Monday, 3 May 2021

यात्रा वृतांत - गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (10)

              ( इंदिरा गांधी सेतु )

मेरी इन यात्राओं को पसंद करने वाले प्रशंसकों में से एक बुद्धिमती, चतुर और त्वरित प्रश्नाकुल प्रशंसिका बबिता सिंह ने पूछा है, कि शिवानंद नौटियाल साहब जब गोमुख से रामेश्वरम तक पैदल गए तब उनके साथ बिहार और ओडीसा में कौन-सी ऐसी घटना घटी, जिसकी तरफ़ आपने इशारा किया है। लेकिन घटना के बारे में विस्तार से नहीं लिखा है। 

तो हे झारझंड वासिनी देवी! सुनो, जब नौटियाल जी गंगा जल लेकर पैदल रामेश्वरम की तरफ़ जा रहे थे, तब उस बिहार प्रांत में अराजकता चरम पर थी। चोरी, छिनताई और दंगा-फ़साद आम थे। उन्होंने बताया, कि गया के आगे बढ़ने पर उन्हें साँझ हो गई। एक छोटा-सा  गाँव मिला। वहाँ उन्होंने कुछ लोगों से पूछा, कि यहाँ कोई मंदिर है, जहाँ वे रात गुज़ार सकें।  गाँव वालों ने कहा, कि कुछ दूरी पर स्टेशन है और वहीं पर एक हनुमान मंदिर है। गाँव वालों ने रास्ता भी बता दिया। वे चल पड़े। थोड़ी देर बाद एक आदमी भाग कर आया और बोला- बाबा जी यह रास्ता लंबा है। मैं आपको एक छोटे रास्ते से ले चल रहा हूँ। पुजारी नौटियाल और उनके ममेरे भाई उसके पीछे-पीछे चल पड़े। यह रास्ता सूनसान और एक जंगल से होकर था। कुछ ही समय बाद उन्हें प्रतीत हुआ कि उस व्यक्ति की नीयत ठीक नहीं है। वह बार-बार इनकी जेबों को टच कर रहा है। इन्होंने अपने ममेरे भाई की तरफ़ देखा और कुछ इशारा किया। दोनों लोगों के पास कीलें लगी हुई लाठियाँ थीं। जब वह अपनी हरकत से बाज नहीं आया, तो इन दोनों ने उस पर लाठियों से वार किया। अचानक हुए हमले से वह आदमी पस्त होकर गिर पड़ा और इनको गालियाँ बकने लगा और धमकी दी कि तुम दोनों भाग कर जाओगे कहाँ? हमारे गिरोह के लोग पकड़ ही लेंगे। ये दोनों भागे और काफ़ी दूर आगे इन्हें एक बल्ब जलता हुआ दिखा। ये वहाँ पहुँचे। वह एक मंदिर था। पुजारी से इन बदहवाश लोगों ने रात गुज़ारने की जगह मांगी पर उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि अगर आप लोगों में से कोई चोर-डकैत हुआ तो मैं क्या करूँगा। इन्होंने बहुत कहा, कि हम गोमुख से गंगा जल लेकर पैदल रामेश्वरम जा रहे हैं पर वह नहीं माना। 
उस मंदिर में कुछ और लोग दूर बैठे आपस में बातचीत कर रहे थे। उनमें से एक उठ कर आया और पूछा, कि क्या बात है महाराज? इन्होंने बता दिया कि हम पैदल रामेश्वरम जा रहे हैं। बीच में एक आदमी ने हमें लूटने की कोशिश की, हम उसे पीट कर आए हैं और वह आदमी अपने लोगों को लेकर आता ही होगा। वह व्यक्ति शायद मंदिर कमेटी का प्रधान था। उसने पुजारी को निर्देश दिया कि इन बाबाओं को फ़ौरन हल्दी डाल कर दूध पिलवाओ और इनके रहने एवं भोजन की व्यवस्था करो। रात रुक कर सुबह ये बाबा प्रस्थान कर गए। 

             ( रामेश्वरम मंदिर का शिखर )

अब अगला क़िस्सा ओड़ीसा का। पुरी के जगन्नाथ मंदिर का दर्शन करने के बाद इन्हें भोजन में सिर्फ़ मंदिर में बनी खिचड़ी ही मिली। वहाँ इनके पुरोहित ने कहा, महराज हम लोगों के घर पर मछली रोज़ बनती है, इसलिए आपको घर नहीं ले जा सकता। फिर कोणार्क और भुवनेश्वर के बीच एक ढाबे में उन्होंने चाय पीने के लिए अपने कंधे पर लटके गंगा जल के कलसे को एक पेड़ की टहनी पर टाँगा और ढाबे वाले के पास साफ़ किए हुए दो गिलास लेकर गए तथा कहा, कि भाई इसमें तीन-तीन कप चाय भर दो। उसने कहा कि आप लोग तो दो ही हो तो तीन-तीन कप क्यों? इन्होंने कहा, कि ओडीसा और बंगाल में चुकड़िया भर चाय को गिलास कहते हैं, हम यूपी वाले लोटा भर चाय पीते हैं। हालाँकि तब तक उत्तरांचल (जिसे बाद में उत्तराखंड नाम दिया गया) बन चुका था पर उसकी यूपी से अलग कोई पहचान नहीं थी। और पहाड़ी कहने पर जिस पहाड़ का बोध होता, वह कश्मीर या दार्जिलिंग था, जहां के निवासियों की शक्ल-सूरत भिन्न होती है। इससे वे शक करते। इसलिए यूपी की ही पहचान बतायी। हमने यह भी कहा कि हमारे लिए चाय बनाने के बर्तन को धोकर ही चूल्हे पर चढ़ाएँ। उसने चाय बना दी। हमने पैसे दिए तो ढाबे वाला बोला- बाबा जी लोगों से दाम नहीं। हमने कहा, दाम नहीं लेंगे तो हम चाय नहीं लेंगे, तब उसने लिए। हम एक पेड़ के नीचे बैठ कर चाय पीने लगे, तभी ढाबे में बैठा एक व्यक्ति हमारे पास आया और बोला, कि बाबा जी खाना खा लो, दाम हम दे देगा। इन लोगों ने कहा, कि हम मुफ़्त में नहीं खाते। अपने भोजन का पैसा ख़ुद देते हैं। वह कोई बड़ा ठेकेदार था। उसने जेब से सौ-सौ के नोटों की दो गड्डियाँ निकालीं और हमारे पैरों पर रख कर बोला, कि ये आप लोगों के लिए हैं। हमने कहा भाई हम श्रद्धालु हैं। हम न तो बाबा हैं न संन्यासी। हाँ जाति ब्राह्मण ज़रूर है। हम गृहस्थ हैं इसलिए आपका दान नहीं ले सकते। वह व्यक्ति शराब के नशे में था। बोला आपको लेना ही पड़ेगा। अन्यथा मैं यहीं आपके पैरों के समीप बैठा रहूँगा। हमने कहा, कि ये पैसे हमने ले लिए अब हम तुम को इस निर्देश के साथ वापस कर रहे हैं कि इन पैसों से किसी कन्या की पढ़ाई का खर्च उठाओ। तब वह पैसे ले कर गया। 

इस तरह के तमाम अजीबो-गरीब संस्मरण के साथ उनकी यात्रा का क़िस्सा पूरा हुआ। उन्होंने यह भी बताया, कि रामेश्वरम पहुँचने के पूर्व उन्हें पंबन इंदिरा गांधी सेतु से बैक वाटर का एक बड़ा समुद्री इलाक़ा पार करना था। यह सेतु पंबन क्षेत्र के इस समुद्र को सड़क मार्ग से जोड़ता है। इसके बग़ल में रेलवे पुल बना है, जो 19वीं सदी के उत्तरार्ध में बना था। यह पुल पहले बीच से अलग हो जाता था, ताकि ज्वार आने पर समुद्र की उत्ताल लहर निकल जाए। अब इंदिरा गांधी सेतु सड़क मार्ग से इस रामेश्वरम द्वीप को भारत से जोड़ता है। यह बहुत ऊँचा है। पुल के पहले से ही हवा इतनी तेज चल रही थी, कि वे बार-बार समुद्र की रेत पर गिर जाते। रेत के कंकड़ नंगे पाँव को छलनी कर रहे थे। किसी तरह ढाई किमी का यह सेतु पार कर वे रामेश्वरम पहुँचे। पहले तो वहाँ के पुरोहित को भरोसा नहीं हुआ। फिर कुछ चमत्कारिक बातें घटीं जिससे उसे विश्वास हो गया। रामेश्वरम स्नान कर वे ट्रेन से वाराणसी गए और तब कर्मनाशा पार की। तथा विश्वनाथ मंदिर में भी गोमुख के जल से अभिषेक किया। फिर हरिद्वार, ऋषिकेश होते हुए वापस उत्तरकाशी लौटे।
(जारी) 

शंभूनाथ शुक्ल
( Shambhunath Shukla )

गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/9.html
#vss

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