Monday, 24 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 38

मैं एक तर्क पढ़ रहा था कि मनुष्य ख़्वाह-म-ख़्वाह दुनिया बचाने के प्रयास करता है जबकि दुनिया कभी खत्म नहीं हो सकती। डायनासोर मिट गए, मगर दुनिया नहीं मिटी। दुनिया के हर प्राणी खत्म हो जाएँगे, दुनिया फिर भी रहेगी। ऐसा पहले कई बार हुआ है। इसलिए सही वाक्य यह नहीं है कि हमें दुनिया बचाना है। सही वाक्य है कि हमें खुद को बचाना है। दुनिया तो अपना रास्ता खुद तय करती है। कई संयोग एक साथ घटते हैं। जैसे दुनिया कोई बड़ा कंप्यूटर हो, और रीबूट हो रही हो।

शीत-युद्ध का अंत न अमरीका ने किया, न सोवियत ने। वह एक दिन खत्म हो गया। सोवियत का साम्यवाद ढह गया। बर्लिन की दीवार गिर गयी। अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत सेना अपने घर लौट गयी। जिया-उल-हक़ मर गए। इस्लामीकृत पाकिस्तान में एक महिला प्रधानमंत्री बन गयी। भारत में अभूतपूर्व जीत हासिल करने वाले ‘मिस्टर क्लीन’ बेआबरू होकर कूचे से निकले। 

इनमें से एक भी घटना किसी महान क्रांति का परिणाम नहीं कही जा सकती, भले उन घटनाक्रमों पर पन्ने भर दिए जाएँ। ये सभी दुनिया के चक्र (अथवा कुचक्र) के हिस्से हैं। अन्यथा यह सब लगभग एक साथ 1988 से 1990 के मध्य ही क्यों होते? 

अब दर्शन की दुनिया से प्रायोगिक दुनिया में लौटता हूँ। जिया-उल-हक़ के मरने के बाद हुए चुनाव में बेनज़ीर भुट्टो की ऐसी जीत नहीं हुई कि इसे भुट्टो परिवार का ‘ग्रैंड कम-बैक’ कहा जाए। उनकी पार्टी को सिंध प्रांत में विजय मिली, लेकिन पाकिस्तान में पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका। उनके विरोधियों यानी जिया-उल-हक़ के समर्थकों ने भी कई सीटें जीती।

बेनज़ीर को आखिर अपनी सरकार बनाने के लिए ऐसे लोगों का साथ लेना पड़ा, जिनकी पाकिस्तान में पहचान ही अलग थी। वे पाकिस्तान में घुसपैठ कर आए, पान चबाने वाले, अचकन पहन कर लंबी-लंबी हाँकने वाले, ऊर्दू-भाषी लोग थे, जो बिहार-यूपी से आकर बसे थे। यूँ तो ‘घुसपैठ’ शब्द उचित नहीं है, मगर एक पंजाबी या सिंधी के नज़र में उनकी वही छवि थी। विभाजन के चार दशक बाद भी वे मुहाजिर (प्रवासी) थे। उन्हीं के एक नेता हुए अल्ताफ़ हुसैन जिनके बारे में कहा जाता कि वह उंगली के इशारे पर कराची रोक दें। उनकी पार्टी थी मुहाज़िर कौमी मूवमेंट। बेनज़ीर ने मुहाजिरों को सम्मान दिलाने का लालच देकर उन्हें मिला लिया।

अमरीकी कांग्रेस में पहली बार एक मुसलमान देश की महिला राष्ट्राध्यक्ष जब भाषण देने पहुँची, और धारा-प्रवाह ब्रिटिश एक्सेंट में बोलना शुरू किया, तो एक पल के लिए सब हिल गए। 

बेनज़ीर ने कहा, “इस दुनिया में एक नयी हवा चल पड़ी है। आपके अमरीका में भी वह महसूस हो रही होगी, पर हम वह करीब से देख रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान आज़ाद हो चुका है। सोवियत में ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका ने उनके पूर्वी ब्लॉक को हिला दिया है, वहाँ की जनता आज़ादी की राह पर है। दक्षिण अमेरिका में फ़ौजी तानाशाही खत्म हो रही है। पाकिस्तान में तानाशाही खत्म हो चुकी है, और एक युवती वहाँ के जनता की प्रतिनिधि बन कर आपके सामने खड़ी है। उस जमीन पर, जहाँ कभी अब्राहम लिंकन ने कहा था कि सरकार जनता की होगी, जनता के लिए होगी, और जनता द्वारा चुनी होगी। मैं उस आज़ाद दुनिया का हिस्सा हूँ।”

सीनेट के सभी सदस्यों ने खड़े होकर तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया। अख़बारों ने लिखा कि पूरब में नई रोशनी दिख रही है। चार वर्ष पूर्व इसी जगह पर एक और युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी खड़े थे, जिन्होंने कहा था, “सभ्यताएँ एक पीढ़ी से नहीं बनती। कई पीढ़ियों से बनती है। हम सभी उस सभ्यता के एक पीढ़ी मात्र हैं। हमारे कर्मों से ही आने वाले पीढ़ी का भविष्य निर्धारित होगा।”

दोनों ही अलग-अलग अंदाज़ में तबीयत से पत्थर उछाल आसमान में सूराख करने की बात कह रहे थे। लेकिन दुनिया को रीबूट करने के लिए तो एक ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी, जिसका उछाला गया पत्थर उसी की दुनिया में सूराख कर दे। जो दुनिया का क्रम बदल दे, रूप बदल दे, धारणाएँ बदल दे। नियति ने इस काम के लिए जिसे चुना था, उसका नाम था मिखाइल गोर्बाचेव। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 37.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/37.html
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