Saturday, 8 May 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 23.


[चित्र: Boyra Boys जिनके नाम मात्र ढाई मिनट का वह हवाई युद्ध दर्ज़ है, जिसने 1971 युद्ध का आगाज़ किया]

मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि आखिर चीन मदद के लिए क्यों नहीं आया? चीन तो बड़ी आसानी से उत्तर-पूर्व के रास्ते आक्रमण कर भारत की योजनाओं पर पानी फेर सकता था। चीन ने अमरीका को वादा भी किया था कि अगर भारत आक्रमण करता है, तो पाकिस्तान की मदद के लिए आएगा। फिर ऐसा क्या हुआ कि मुकर गया? 

नवंबर 1971 में याह्या ख़ान और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो इस बात की तस्दीक करने चीन पहुँचे। वहाँ मिला जवाब सुन कर वह चौंक गए।

चाउ एन लाइ ने कहा, “घबराइए नहीं! सोवियत और अमेरिका भारत को आक्रमण नहीं करने देंगे। अगर वे आक्रमण करें, तो आप कुछ पीछे हट जाएँ। हम सब मिल कर यह सिद्ध करेंगे कि भारत की ही ग़लती है। लेकिन, एक बात स्पष्ट कर दूँ कि इस मसले में हम बीच में नहीं पड़ना चाहते”। 

भुट्टो ने उखड़ कर प्रेस में कहा, “चीन से हमें कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए”

यह एक खुला रहस्य है कि दरअसल इस बांग्लादेशी आंदोलन और गुरिल्ला युद्ध के पीछे माओवादी कम्युनिस्ट ही अधिकांश थे। अवामी लीग की वही विंग आक्रामक थी और हथियार उठा रही थी। चीन के लिए वे ‘अपने’ लोग थे, जिन पर वह सीधा आक्रमण नहीं कर सकता था। बल्कि उनकी नज़र में पूरा बंगाली बुद्धिजीवी वर्ग ही उनके करीब था। उन्हें भरोसा था कि अगर गुरिल्ले बांग्लादेश जीत लेते हैं, तो वह कम्युनिस्टों और उनके लिए अच्छा ही है। उन्हें यह भी मालूम था कि पाकिस्तान के पास चीन से शत्रुता का विकल्प ही नहीं है।

इंदिरा गांधी उस वक्त जर्मनी में थी। उन्होंने वहाँ जर्मनी के विदेश मंत्री से कहा, “हमें चीन की तनिक भी चिंता नहीं। वह भारत पर आक्रमण नहीं करेगा। उसकी अपनी घरेलू समस्यायें ही बहुत है।”

यह बात इंदिरा गांधी ने यूँ ही नहीं कही थी। उन्हें चीन और पाकिस्तान की वार्ता की जानकारी गुप्त सूत्रों (मुख्यत: ब्रजेश मिश्र) से मिल गयी थी। उन्हें यह भी स्मरण था कि चीन के लिए दिसंबर के बर्फीले महीने में उत्तर-पूर्व से आक्रमण करना लगभग असंभव है। वह 1962 के युद्ध में फ्रंट पर स्थिति देख आयी थी, जब नवंबर में ही चीन ने अपने पाँव खींच लिए थे। इसलिए, पाकिस्तान से युद्ध का सबसे माकूल वक्त था दिसंबर!

बांग्लादेश से एक करोड़ शरणार्थी आ चुके थे, जिनमें गिनती के अनुसार 82 प्रतिशत हिन्दू थे। वे अब वापस लौटने का मूड पूरी तरह त्याग चुके थे, और न ही भारतीय राजनीतिक दल उन्हें वापस भेजना चाहती थी। अस्सी लाख हिन्दू एक विशाल वोट बैंक थे। 

इतने दिनों में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) भी शांति की ओर बढ़ गया था। टिक्का ख़ान को वापस बुला लिया गया था, और अवामी लीग से वार्ता चल रही थी। शेख मुजीब की रिहाई की भी बात हो रही थी। इंदिरा गांधी अब किसी भी तरह युद्ध चाहती थी, मगर माहौल बदल रहा था।

मुक्ति-वाहिनी भी इंदिरा गांधी द्वारा इतने महीने युद्ध टालने से शंकित थी। उनका कहना था कि भारत हमें मौत के मुँह में भेज कर, खुद कुछ नहीं कर रहा। अगर शांति बहाल हो गयी, तो उन पर मुकदमा होगा और फांसी होगी। 

इंदिरा गांधी उस नवंबर के महीने में यूरोप और अमरीका जाकर राष्ट्राध्यक्षों से बात करती रही। उन्हें समझाया कि नरसंहार रोकने के लिए युद्ध जरूरी है।

बीबीसी साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि आप युद्ध क्यों चाहती हैं? उन्होंने कहा, “मैं बंगालियों की मुक्ति चाहती हूँ। आपके पड़ोस में जब हिटलर यहूदियों का नरसंहार कर रहे थे, आपकी सरकार ने क्या किया? युद्ध ही तो किया?”

रिचर्ड निक्सन ने जब यह सुना तो उनके लिए कुतिया (बिच) और बास्टर्ड जैसे विशेषण पुन: प्रयोग किए, जो रिकॉर्ड में हैं। अमरीका पहुँचने पर निक्सन ने उन्हें धमकाने की कोशिश की, मगर इंदिरा गांधी ने बात टाल कर कहा कि वह इस विषय में बात नहीं करना चाहती। 

अमरीका से लौटते ही इंदिरा गांधी ने युद्ध को ग्रीन-सिग्नल दे दिया। पहला हमला भारत ने 12 नवंबर को किया, 19 नवंबर तक थल सेना कुछ अंदर घुस गयी, 21 नवंबर को ‘बोयरा युद्ध’ नामक वायु-युद्ध हो रहा था। हालांकि अक्सर इतिहासकार लिखते हैं कि युद्ध पाकिस्तान ने दिसंबर में शुरू किया। युद्ध तो सदा से भारत की ही योजना थी। 

युद्ध की खबर सुन कर निक्सन ने किसिंगर से कहा, “लगता है मैंने उस ‘बिच’ को ठीक से धमकाया नहीं”
(क्रमश:)

प्रवीण झा
(Praveen Jha)

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 22.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/22.html
#vss 

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