“जैसे आपके मुल्क में गांधी का नाम चलता है, हमारे मुल्क में भुट्टो का”
- एक पाकिस्तानी से संवाद
ढाका में उस ढलती शाम जनरल नियाज़ी अपनी कमर से एक बटन खोल कर रिवॉल्वर निकालते हैं और जगजीत सिंह अरोड़ा के हाथ में देते हैं। 93000 फौजियों के साथ पाकिस्तान आत्मसमर्पण करता है, और ब्रिगेडियर सिद्दीक़ी कहते हैं, “हार और जीत खेल का हिस्सा है। हमें अपनी हार मानने में कोई गुरेज़ नहीं। अच्छी बात यह है कि यह मुल्क भी यही चाहता है, यहाँ की अवाम भी यही चाहती है।”
1906 में इसी दिसंबर के महीने में यहीं ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई थी, जिसने पाकिस्तान की नींव रखी। बंगाल में मुस्लिम लीग ताकतवर रही। और आज वही बंगाल चाहता था कि पाकिस्तान में ही न रहे? यह एक अकाट्य तथ्य है, जो मोहम्मद अली जिन्ना के पूरे पाकिस्तान मॉडल पर सवाल खड़ा करता है। यह युद्ध पाकिस्तान न सिर्फ़ बुझे मन से लड़ रहा था, बल्कि युद्ध के पहले हफ़्ते में ही समझौते के मसौदे तैयार होने लगे थे। इसका मतलब यह नहीं कि युद्ध ‘फिक्स’ था, लेकिन विचित्र ज़रूर था।
ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने महीनों पहले एक मॉडल दिया था, कि शेख मुजीब पूर्वी पाकिस्तान सँभालें, वह पश्चिम सँभालेंगे। ‘ज़ंग’ अख़बार में हेडलाइन छपी- ‘उधर तुम, इधर हम’। किसिंगर ने भी निक्सन को यही कहा कि इस युद्ध का जो भी परिणाम हो, यह विभाजन तो होकर रहेगा। निक्सन ने कहा, “फिर हम क्यों पागलों की तरह बीच में पड़े हैं? कितने लोग ख़्वाह-म-ख़्वाह मारे गए!”
किसिंगर ने कहा, “और विकल्प क्या था? मानवाधिकार अपनी जगह है, और विश्व राजनीति अपनी जगह। यूँ भी हमने तो किसी को नहीं मारा”
अमरीका ने खून नहीं बहाए, पाकिस्तान ने बहाए। मगर क्यों? मैं दुबारा यह बात दोहराता हूँ कि कोई भी सेना कभी युद्ध नहीं चाहती, राजनीति ही ऐसा चाहती है। उनके अपने लक्ष्य होते हैं।
पंद्रह दिसंबर को जब भारतीय सेना के पैराशूट ढाका की सीमा पर उतर रहे थे, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो न्यूयार्क के होटल में आराम फरमा रहे थे। उनको वहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ में बात-चीत करने भेजा गया था। पोलैंड ने एक प्रस्ताव रखा था कि दोनों देशों की सेनाएँ अपने-अपने घर लौट जाएँ, शेख मुजीब को रिहा कर पूर्वी पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल की जाए। इस प्रस्ताव को सोवियत भी समर्थन दे रहा था, और भारत भी राजी था। पाकिस्तान के लिए भी यह पसंदीदा प्रस्ताव था, और समर्पण की शर्मिंदगी से बच जाते।
याह्या ख़ान ने भुट्टो को फ़ोन किया, “आप यह पोलैंड वाली पेशकश मान लें”
भुट्टो ने कहा, “आपकी आवाज़ नहीं आ रही। हेलो हेलो!”
होटल के ऑपरेटर ने कहा, “मैं कनेक्ट कर दूँ? मुझे तो आवाज़ ठीक आ रही थी। कुछ मामूली समस्या आ गयी होगी”
भुट्टो ने उखड़ कर कहा, “शट अप!”
उसके बाद वह सम्मेलन में अपनी अठारह वर्ष की बेटी बेनजीर के साथ गए। वहाँ उन्होंने कहा, “आप सारे देश मिल कर हमें धमकाना चाहते हैं। हम क्या चूहे हैं जो हार मान लें? हमारा मुल्क किसी से नहीं डरता। हो जाने दो अलग, जो अलग होना चाहते हैं। हम एक नया और ताकतवर पाकिस्तान खड़ा करेंगे।”
अपनी छाती ठोकते उन्होंने कहा, “यह आदमी कोई चूहा नहीं है। मैंने जेल काटी है, मुझ पर हमले हुए हैं, मगर मैं आपके सामने जिंदा हूँ। मैं आप सबको खुली चुनौती देता हूँ। मैं ऐसा पाकिस्तान बनाने जा रहा हूँ, जिसे आप में से कोई भी छू नहीं सकता।”
उसके बाद एक अकल्पनीय घटना हुई। भुट्टो ने खड़े होकर सबके सामने पोलैंड के प्रस्ताव को फाड़ते हुए कहा, “भाड़ में जाएँ आप सब! भाड़ में जाए सुरक्षा परिषद! मैं संयुक्त राष्ट्र छोड़ कर जा रहा हूँ।”
भुट्टो के इस काग़ज़ फाड़ने ने भारत का काम और भी आसान कर दिया। कोई सीज़फायर नहीं हुआ। कोई विदेशी हस्तक्षेप नहीं हुआ। भारतीय सेना बड़े आराम से ढाका की सड़कों पर विजय-यात्रा कर रही थी।
हारे हुए फ़ौजी राष्ट्राध्यक्ष याह्या ख़ान ने शर्म से अपनी गद्दी छोड़ दी, और भुट्टो को आखिर पाकिस्तान मिल गया। शेख मुजीब को पाकिस्तान जेल से रिहा कर वह हवाई अड्डे पर उन्हें छोड़ने गए। भारत में हज़ारों की भीड़ उस कड़ाके की ठंड में उनके स्वागत के लिए खड़ी थी। इंदिरा गांधी उन्हें हवाई अड्डे से राष्ट्रपति भवन की ओर ले गयी।
कुछ ही देर में भीड़ के सामने बांग्लादेश और भारत के झंडे एक साथ फहराए गए। पहले बांग्लादेश का राष्ट्रगान ‘आमार शोनार बांगला’ और फिर भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ गाया गया। दोनों ही गीत एक ही व्यक्ति (रबीन्द्रनाथ टैगोर) ने लिखे थे, एक ही देश को ध्यान में रख कर। जो अब तीन हो गए थे।
इंदिरा, भुट्टो और मुजीब तीनों अपने देश के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में रहे। तीनों का ख़ानदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी सत्ता की गलियारों में रहा। तीनों की मृत्यु अप्राकृतिक हुई।
(क्रमशः)
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प्रवीण झा
(Praveen Jha)
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 27.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/27.html
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