“क्या है आईन-ए-पाकिस्तान (संविधान)? दस-बारह काग़ज के पन्ने? ये लो, मैंने फाड़ दिया। मुझे कौन रोकेगा? आज अवाम मेरे साथ है। मैं जहाँ ले जाऊँगा, वहाँ जाएँगे। ये सारे नेता और भुट्टो साहब दुम हिलाते मेरे पीछे आएँगे।”
- जनरल जिया-उल-हक़
1973 में जब ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो पाकिस्तान का संविधान तैयार कर रहे थे, तो उसी वक्त कुछ फौजियों ने तख़्ता-पलट की साज़िश की थी। उन्हें जिया-उल-हक़ ने पकड़ कर कोर्ट मार्शल कर दिया था। वह भुट्टो के प्रिय बन गए और इस कारण आर्मी चीफ़ भी बनाए गए।
एहतियात के लिए भुट्टो ने संविधान में एक आर्टिकल 6 जोड़ दिया कि अगर सेना का कोई भी व्यक्ति तख़्ता-पलट करता है तो उसे फाँसी दे दी जाएगी।
कुछ-कुछ इंदिरा गांधी की तरह भुट्टो भी 1976-77 में इमरजेंसी (मिलिट्री शासन) लगा कर अपने विपक्षियों को पकड़ कर जेल में डालने लगे। जनता भड़क कर आंदोलन करने लगी। रावलपिंडी-कराची में आगज़नी होने लगी। भुट्टो ने कहा कि वह चुनाव कराने को तैयार हैं, मगर यह कह कर विदेश यात्रा पर निकल गए। अब पाकिस्तान पूरी तरह जलने लगा।
5 जुलाई, 1977 को जनरल जिया-उल-हक़ ने भुट्टो और उनके सभी मंत्रियों को गिरफ़्तार कर लिया। संविधान अपने हाथ में ले लिया, और एक ‘ऑपरेशन फेयरप्ले’ शुरू किया। उन्होंने कहा कि वह नब्बे दिन का अंदर ईमानदारी से चुनाव करवाएँगे, जिसमें कोई धांधली नहीं होगी।
जिया-उल-हक़ में मुगल शासक औरंगज़ेब की छवि इसलिए नहीं दिखती कि वह क्रूर थे। बल्कि इसलिए दिखती है कि वह औरंगज़ेब की तरह कानूनी तरीकों और ईमान के नाम पर कड़ी सजाएँ देते थे। उनके साक्षात्कारों में वह बिना चिल्लाए, बहुत ही सौम्य भाषा में किसी को फांसी पर चढ़ाने की दलील देते नज़र आ जाएँगे।
चुनाव की घोषणा करने के बाद उन्होंने भुट्टो को छोड़ दिया ताकि वह चुनाव की तैयारी कर सकें। भुट्टो का जेल जाना जनता में उनके प्रति प्रेम वापस जगा गया। उनकी रैलियों में भीड़ आकर कहने लगी ‘जिये भुट्टो! जिए भुट्टो’, जो दशकों तक पाकिस्तान का नारा ही बन गया।
जब जिया-उल-हक़ को यह लगा कि भुट्टो चुनाव जीत सकते हैं, तो उन्हें यह भी लग गया कि संविधान के अनुसार उन्हें तख्ता-पलट के लिए फांसी पर चढ़ा सकते हैं। उन्होंने अब भुट्टो को सदा के लिए रास्ते से हटाने का फ़ैसला कर लिया।
जनरल के हाथ में दो चीजें थी। पहली थी भुट्टो के घर से मिली ‘लरकाना प्लान’, जिसमें भ्रष्ट तरीकों से चुनाव जीतने की योजना बनायी गयी थी। दूसरी इससे अधिक वजन रखती थी। भुट्टो ने एक राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी अहमद-रज़ा कसूरी और उनके पिता को मरवाया था। इन आरोपों के तहत भुट्टो को फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया।
इसके बावजूद भुट्टो की बेगम नुसरत भुट्टो रैलियाँ करती रही, और भीड़ जुटती रही। आखिर जिया-उल-हक़ ने इन सबको हिरासत में लेकर नज़र-बंद कर दिया और चुनाव स्थगित कर दिया।
बेनज़ीर को इजाज़त थी कि अपने पिता से जेल में जाकर मिल सके। लेकिन, अब उनकी हैसियत एक आम कैदी जैसी हो गयी थी। जनता भी उनकी वापसी की कोई संभावना नहीं देख रही थी।
जिया-उल-हक़ ने विदेशी पत्रकारों को बुलवा कर उनके सामने कचहरी बिठायी। सभी न्यायाधीशों को पता था कि करना क्या है। आखिर यह सब एक नाटक था।
3 अप्रिल, 1979 को पिण्डी जेल में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो कॉफ़ी वगैरा पीकर थोड़ी देर लेट गए। उन्हें अपनी वसीयत लिखने के लिए काग़ज और कलम दिया गया। उन्होंने कुछ लिखना शुरू किया, फिर वह काग़ज जला दिया।
उन्हें मालूम था, अगले दिन का सूरज वह नहीं देख सकेंगे।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
(Praveen Jha)
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 31.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/31.html
#vss
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