सन 624 में, मदीना में पैग़म्बर मुहम्मद ने किबला, यानि प्रार्थना का डायरेक्शन, जेरुसलम से मक्का की ओर किया.. और इसके ठीक आठ (8) साल बाद, 632 में मुहम्मद की मृत्यु हो गयी
तब तक मुहम्मद को मानने वालों की भीड़ बहुत बड़ी हो चुकी थी.. और काबा को किबला मानने के बाद इस्लाम की रीतियों और मान्यताओं में आये बदलाव को एक बड़ी भीड़ तो बताने और समझाने का मुहम्मद को बहुत कम वक़्त मिला.. किबला बदलने के साथ ही मुहम्मद के जीवन के आख़िरी कुछ साल युद्ध और सुलह में ही बीते.. अपने जीवन के अंत समय से सिर्फ़ दो (2) साल पहले, यानि सन 630 में, मुहम्मद और उनके अनुयायी मक्का पर कब्ज़ा कर पाए.. तब जा कर काबा के भीतर और उसके आसपास से सारे देवी देवताओं की मूर्तियां हटाई गयीं
तो 624 से लेकर 630, यानि पूरे छः (6) साल तक मुहम्मद और उनके अनुयायी मक्का के जिस काबा की तरफ़ मुहं कर के प्रार्थना कर रहे यह वो 360 मूर्तियों वाला मूर्तिपूजकों का एक मंदिर था.. और ये बात मदीना में उनके साथ रह रहे उनके अनुयायी जानते और समझते थे.. इसलिए आस्था की दरार उसी वक़्त से लोगों के भीतर घर करने लगी थी.. चूंकि मुहम्मद जब तक जिंदा थे तब तक अपने मानने वालों के लिए वो ही सब कुछ थे, इसलिए आस्था की ये खिचड़ी उनके जीते जी बहुत ठीक से उजागर नहीं हो पाई.. लोग विरोध में होते थे मगर मुहम्मद के सम्मान की वजह से कुछ कहते नहीं थे
मगर जैसे ही मुहम्मद इन दुनिया से गये, उनके मानने वालों के बीच जंग छिड़ गई.. ऐसा दुनिया में किसी अन्य धर्म प्रवर्तक के साथ नहीं हुआ है कि उसके जाने के तुरंत बाद उसके ही अनुयायी आस्था को लेकर आपस मे इस हद तक लड़ पड़ें.. इधर मुहम्मद का मृत शरीर उनके कमरे में रखा था और उधर उनके अनुयायी गुटों में बंट रहे थे.. कुछ थे जो उमर, अबु बक़र और उस्मान जैसों के साथ थे तो कुछ अली के पाले में थे.. कुछ सबको छोड़कर क़ुरआन पर टिके रहने का दावा कर रहे थे तो कुछ इस्लाम छोड़ के वापस अपने पुराने धर्म मे लौट रहे थे.. और ये सब तुरंत हुआ था.. कुछ ही घंटों के भीतर।
लोग इसे राजनीति कहते हैं मगर ये राजनीति से कहीं ज़्यादा आस्था के बिखराव की कहानी थी.. और इस आस्था का बिखराव शुरू हुआ था मुहम्मद के किबला बदलने के साथ.. जेरुसलम को छोड़कर मक्का को आस्था का केंद्र बनाने के बाद।
मैं मुहम्मद के बाद की पीढ़ियों की बात नहीं कर रहा.. मैं उनकी बात कर रहा हूँ जो मुहम्मद के साथ थे.. इस्लाम के दूसरे ख़लीफ़ा और मुहम्मद के दोस्त उमर अपनी शिक्षा और आस्था को सर्वोपरि मानते थे.. इस्लाम के चौथे ख़लीफ़ा, मुहम्मद के चचेरे भाई और दामाद अली की शिक्षाओं और आस्था को उनके समर्थक सर्वोपरि मानते थे.. ऐसे ही अन्य लोग भी थे.. मुसलमानों की आस्था और प्रतीकों की मान्यताओं में इतना बड़ा अंतर था कि विरोधी विचारा वाले लोग एक दूसरे को उसी वक़्त से काफ़िर और मुशरिक कहके संबोधित करने लगे थे.. ये बिखराव बहुत पहले ही हो चुका था.. मगर अब चूंकि मुहम्मद नहीं थे इसलिए अब लोग खुलकर सामने आ गए थे।
मुहम्मद ने अपने जीते जी अपने हिसाब से किबला बदल कर अपने अनुयायियों की आस्था को दूसरी तरफ़ मोड़ दिया था.. मगर जैसे कि मैंने पहले बताया, इस नई आस्था को लोगों में पोषित करने के लिए मुहम्मद को ज़्यादा वक़्त नहीं मिला.. किबला बदलने के बाद उनका ज़्यादातर समय युद्ध मे बीता और फिर मक्का पर कब्ज़ा हुवा और फिर उसके दो सालों बाद मुहम्मद इस दुनिया से चले गए।
उनके जाने के बाद हज़रत अबू बक़र ने उनका उत्तराधिकारी बनकर ख़लीफ़ा की गद्दी संभाली.. और उसके बाद दूसरे ख़लीफ़ा उमर बने.. उमर, अबु बक़र, उस्मान जैसे लोग इस्लाम के उस पुराने रूप के कट्टर समर्थक थे जिसका प्रचार मुहम्मद मक्का प्रवास के दौरान करते थे.. जिसमें मूर्तिपूजा, मूर्तिपूजकों के कर्मकांड और उनकी मान्यताओं का घोर विरोध था.. जिसमें जेरुसलम को पहला किबला मानने की आस्था भी शामिल थी.. ये लोग यहूदी धर्म की मान्यताओं से ज़्यादा जुड़े हुवे लोग थे.. ज़्यादा कट्टर थे और तौरेत की सारी बातें हदीस के तौर पर इस्लाम मे ले आये थे।
जबकि दूसरी तरफ़ अली को मानने वाले लोग थे.. अली जो कि स्वयं मुहम्मद के चचेरे भाई थे, और क़ुरैश क़बीले के वारिस.. ये मुहम्मद का क़बीला था जिसके हाथ में काबा का रख रखाव और उसके आसपास के व्यापार का मालिकाना हक़ था.. अली , जिनके बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म काबा के भीतर हुआ था, वो काबा और अपने क़ुरैश क़बीले की परंपराओं के ज़्यादा क़रीब थे.. यहूदी मान्यताओं और यहूदी कट्टरता अली के स्वभाव में नहीं थी.. इसलिए किबला बदलने के बाद अली बाक़ी लोगों से कहीं ज़्यादा सहज थे आस्था के इस बदलाव को लेकर
आप इस फ़र्क़ को एकदम साफ़ अब देख सकते हैं.. दुनिया के सुन्नी और वहाबी इस्लाम को मानने वाले, जो कि उमर, अबूबकर और उस्मान ख़लीफ़ाओं को मानने वाले लोग हैं, उनकी रूढ़िवादी कट्टरता आप देखिए और वहीं अपने आसपास रह रहे अली को मानने वाले शिया, बोहरा और ऐसे लोगों को रूढ़िवादी कट्टरता देखिये..आपको ज़मीन आसमान का फ़र्क मिलेगा.. ये बात भी सच है कि वक़्त के साथ शिया बाहुल्य ईरान जैसे देशों के लोग भी सुन्नियों के प्रभाव से कट्टर होते चले गए और अब वो भी बहुत कट्टर होते हैं.. मगर शुरुवात में ऐसा नहीं था.. उनकी आस्था ज़्यादा नर्म और लचीली थी.. जैसी मक्का के मूर्तिपूजकों की थी.. और उमर, अबूबकर और उस्मान को मानने वालों की आस्थाएं ज़्यादा कट्टर थीं, जैसे यहूदियों की थीं।
(क्रमशः)
© सिद्धार्थ ताबिश
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