“जज साहब! आपने जब मेरी सजा का ऐलान किया था, आठ लोगों ने आग में जल कर अपनी जान दे दी। यूँ किसी के लिए कोई अपनी उंगली तक न जलाता। मुझे अपनी मौत की फ़िक्र नहीं, मुझे तो यह फ़िक्र है कि मेरी मौत के बाद इस मुल्क का मंजर क्या होगा!”
- ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो अपील कोर्ट में
मुर्तज़ा और बेनज़ीर में लड़ाई अब यह थी कि असली वारिस कौन। एक ने राजनैतिक लड़ाई लड़ कर उनकी जगह पायी थी, तो दूसरे ने उन्हीं की आज्ञानुसार सिंधियों की तरह खून का बदला खून से लिया था। एक दशक से ऊपर पाकिस्तान से बाहर रह कर जब मुर्तज़ा ने अपने पिता की क़ब्र पर लौटना चाहा, तो उन्हें जेल से छोड़ा नहीं गया। उनके समर्थक उनके पैतृक लरकाना आवास पर जमा हो गए, और उनकी माँ नुसरत भुट्टो ने वहाँ से मार्च कर कब्र पर जाना तय किया।
लेकिन, बेनज़ीर भुट्टो अपने दल-बल के साथ पहले ही कब्र पर पहुँच गयी, जहाँ एक मुशायरे का आयोजन था। उनकी पुलिस ने मुर्तज़ा समर्थकों और नुसरत भुट्टो को कब्र तक पहुँचने ही नहीं दिया। झड़प हो गयी और पुलिस फ़ायरिंग की एक गोली नुसरत भुट्टो के साथ खड़े व्यक्ति को लगी। अब इस परिवार की लड़ाई वाकई खूनी हो चुकी थी।
पाकिस्तान पुलिस का आरोप था कि मुर्तज़ा भारतीय जासूस हैं और रॉ के एजेंट हैं। यह बात ठीक थी कि उन्होंने रॉ से सहयोग लिया था, और दिल्ली में रहे थे। लेकिन एजेंट वाली बात संभवत: ठीक नहीं थी।
मुर्तज़ा के मन में अपनी बहन के लिए नफ़रत नहीं थी। वह उनके पति से नफ़रत करते थे। यह ज़रदारी और भुट्टो परिवार की कुछ हद तक ख़ानदानी रंजिश भी थी। आसिफ़ के पिता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के धुर-विरोधी रहे थे। जेल से छूटने के बाद मुर्तज़ा ने अपने कराची आवास के शौचालय में आसिफ़ की तस्वीर लगवायी, और मेहमानों से कहते कि एक बार शौचालय ज़रूर जाएँ।
आसिफ़ तक भी यह खबर थी। मुर्तज़ा का पोस्टर लिए उनके तीन समर्थकों को दिन-दहाड़े गोली मार दी गयी। 1996 के मई में पहली बार वर्षों बाद बेनज़ीर और मुर्तज़ा मिले। यह एक भाई-बहन की नहीं, बल्कि दो दलों के नेताओं की मीटिंग थी। जो भी हो, यह मीटिंग सफल नहीं रही। मुर्तज़ा बेनज़ीर के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने और उन्हें हराने पर आमादा थे।
उसी वर्ष सितंबर के महीने में मुर्तज़ा इस्लामाबाद से कराची जा रहे थे। इत्तफ़ाक़न उसी विमान पर आसिफ़ अली ज़रदारी भी सफर कर रहे थे। मुर्तज़ा के समर्थक उन्हें पूरे रास्ते घूरते रहे। ज़रदारी घबरा गए। वह कराची उतरते ही अपनी सरकारी गाड़ी में भागे, तो उनके पीछे मुर्तज़ा के गुर्गों ने गाड़ी दौड़ा दी और बंदूक उनकी गाड़ी के ऊपर तान दी। ज़रदारी जैसे-तैसे बाल-बाल बचे।
पुलिस ने उसी दिन हमलावर अली मोहम्मद सोनारा को ढूँढ निकाला, और संभवतः गोली मार दी। मुर्तज़ा अपने चेलों के साथ राइफ़ल हाथ में लिए कराची पुलिस थाने पहुँच गए, और पूरे थाने की तलाशी ली। यह भी हद ही था कि एक नेता पुलिस थाने की तलाशी ले रहा है। वह धमकी देकर गए कि अगर उनका आदमी जिंदा नहीं मिला, तो सबको उड़ा देंगे।
अगले ही दिन कराची में तीन स्थानों पर ब्लास्ट हुए, जिसकी ज़िम्मेदारी मुर्तज़ा पर थोपी गयी। आखिर बेनज़ीर ने उनके आवास की तलाशी के ऑर्डर दिए। मुर्तज़ा ने अपने घर पर पत्रकारों को बुला लिया, और कहा कि वह सीधे जनता को तलाशी लेने का आमंत्रण देते हैं, इस दुश्मन पुलिस को अंदर घुसने नहीं देंगे। यह उनका आख़िरी प्रेस कॉन्फ़्रेंस था।
बीस सितम्बर, 1996 को जब वह अपने घर लौट रहे थे तो उनके आवास के कुछ सौ गज पहले पुलिस ने बैरिकेड लगा रखे थे। उनकी गाड़ी रोकी गयी, और दनादन गोलियाँ दाग दी गयी। गोलियों की आवाज़ सुन कर माँ नुसरत और बेटी फ़ातिमा बाहर की ओर भागी, तो उन्हें रोक दिया गया कि कुछ पुलिस कारवाई चल रही है।
उन्हें यह नहीं बताया गया कि यह कारवाई मुर्तज़ा भुट्टो पर ही हो रही है। अगले दिन बेनज़ीर भुट्टो ने अश्रुपूरित नयनों से अपने भाई को विदाई दी। वर्षों बाद पूरा भुट्टो परिवार एक साथ शोक मना रहा था। वहाँ तीन कब्र एक साथ लगे थे- ज़ुल्फ़िकार और उनके दो बेटों के।
मुर्तज़ा की चौदह वर्ष की बेटी फ़ातिमा की आँखें आसिफ़ अली ज़रदारी पर थी। उन्हें यक़ीन था कि इसी व्यक्ति ने उनके पिता की जान ली, और यही औरों की भी लेगा।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 44.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/05/44.html
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