'नक्श फरियादी है, किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
कागज़ी है पैरहन , हर पैकर-ए-तस्वीर का..'
इस्मत आपा से हिन्दी और उर्दू दोनों बराबरी से मोहब्बत करते हैं।उनकी कहानियां बख्तरबंद रूढ़ियों पर गहरी चोट पहुँचाती हैं।अपनी पैनी नज़र से परिवेश को टटोल उसे हूबहु पेश करने में उन्हें महारत हासिल थी। दिक्कत तलब बात बस इतनी थी कि सच्चाई का रुख हम सख्त नापसन्द करते हैं। ख़ुद के गिरेबां में देखने के बजाय हम दूसरों पर तोहमत लगाते हैं। इस्मत चुगताई पर भी तमाम तोहमतें लगीं। लिहाफ़ कहानी के लिए उन पर बकायदा मुकदमा हुआ , जिसका किस्सा जग जाहिर है। उनकी बेबाकी की तमाम नजीरें हमारे पास हैं। उनमें से एक 'इस्मत आपा' में दर्ज है :
"हम इतने सारे बच्चे थे कि हमारी मां को हमारी सूरत से कै आती थी । एक के बाद एक हम उनकी कोख़ को रौंदते-कुचलते चले आये थे । उलटियां और दर्द सह-सहकर वह हमें एक सज़ा से ज़्यादा अहमियत नहीं देती थीं।कमउम्री में ही फैलकर चबूतरा हो गयी थीं। पैंतीस बरस की उम्र में वह नानी भी बन गयीं और सज़ा-दर-सज़ा झेलने लगीं। हम बच्चे नौकरों के रहमो-करम पर पलते थे और उनके हिले-मिले हुए थे।"
उनका ये बयान जड़ जमाई रूढ़ियों से पर्दा उठाता है। सच को बेरहमी के साथ चुटीले अंदाज में कहना उनकी खासियत थी। इस अंदाज से बात कहने में उन्होंने खुद को भी कभी बख्शा नहीं।
उनकी आत्मकथा 'काग़ज़ी है पैरहन' उनके परिवेश और समाज पर गहरी नज़र रखती है। एक पूरे समय और समाज को जिन्दा और बेबाक तरीके से बयान करना इसे ख़ास बनाता है। इसके जरिये उनकी शख्सियत को जानना बेहद दिलचस्प है। इसे पढ़ते हुए आप सकून की आगोश में रौशन ख़्याली से तर-बतर होते रहते हैं। बेलौस लिखी गई ये आत्मकथा खुदमुख्तारी का परचम है।
© अनन्या सिंह
#vss
No comments:
Post a Comment