Saturday, 31 October 2020

शब्दवेध (8) पारिभाषिक शब्द

अपने आगे की चर्चा में हम भारोपीय क्षेत्र में फैली भाषा के लिए भारोपीय का ही प्रयोग करेंगे, क्योंकि, जिस भाषा का प्रसार हुआ था वह न तो वह भाषा थी जिसके नमूने ऋग्वेद की ऋचाओं में मिलते हैं, न ही संस्कृत थी। यह बोलचाल की वह भाषा थी जिसमें उन बोलियों के लक्ष्मण भी विद्यमान थे जिन्हें हम आजकल भारत के दूसरे भाषा-परिवारों में गिनने के अभ्यस्त हैं।

सारस्वत क्षेत्र की भाषा सही प्रतिनिधित्व बांगरू करती है जिसे हरयाणवी ने संभाल रखा है। प्राकृतों के लिए मागधी, आर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री नाम स्वयं प्राकृतों की ध्वनि-प्रकृति से मेल नहीं खाते। ये नामकरण बोलियों के उसी संस्कृतीकरण के प्रमाण हैं, जिनके दबाव या प्रभाव से मगही बोली का प्राकृत रूप बना था। इसका पहले भी मगही/मगी जैसा कोई नाम था और आज भी मगही ही प्रचलित है। इसका नामकरण मग जनों की बोली होने के कारण किया गया था। ऐसा लगता है, मगध में इन जनों की आनुपातिक उपस्थिति अधिक थी, परंतु भोजपुरी और अवधी क्षेत्र में भी इनका निवास या विचरण क्षेत्र था, इसके प्रमाण मध्य पाषाण काल से ही देखने में आते हैं जो महगरा (यहाँ मगों का निवास- *मगघर>मगहर में वर्णविपर्यय हुआ है) से प्रकट है। पहले संभवतः मैदानी भाग में इन्हीं की उपस्थिति प्रमुख थी।

अपनी शक्ति बढ़ा लेने के बाद उत्तर के पहाड़ी क्षेत्र से जिसे आज भी देव भूमि कहा जाता है, और जिसका विस्तार पूरे पर्वतीय क्षेत्र के लिए हो गया, उतर कर देवों ने नदियों के कछार में अपना अधिकार इनके बीच ही जमाया था, और उन स्थानों का नाम देव- पूर्वपद के साथ रखा था जो देवरिया, देवकली, देवार आदि में बचा हुआ है। लहुरा देवा ( देवों की छोटी/ नई बस्ती) जहां से लगभग 7000 ईसा पूर्व के आसपास स्थाई बस्ती के प्रमाण मिले, वह भी मग-बहुल क्षेत्र में ही बसा था।

देवों का इनसे सैद्धांतिक विरोध था। ये मंत्र तंत्र जादू टोना में विश्वास करते थे, जिससे वैज्ञानिक सूझ रखने वाले देवों का विरोध था। सबसे पहले उन्हें इन्हीं से टकराना पड़ा था और यह टकराव हजारों साल तक बना रहा था।

देव समाज के सामने कमजोर पड़ने के बाद मगों को पश्चिमोत्तर की ओर पलायन करना पड़ा था, वे ईरान पहुँचे थे। इनका प्रभाव पश्चिम में दूर तक फैला था और यह माना जाता है अंग्रेजी का मैजिक शब्द मगों/मागियों के चमत्कार के दावे का ही परिणाम है। देवों से शत्रुता की यह गांठ बाद में भी बनी रही, और वैदिक कालीन विस्तार के चरण पर ईरान में देव समाज को अपने प्रभुत्व के बाद भी, जिस विरोध का सामना करना पड़ा उसी का नतीजा था देव शब्द का अवेस्ता में निंदा परक प्रयोग जो अंग्रेजी के डेविल शब्द में भी देखा जा सकता है।

हम भाषा की बात कर रहे हैं, इसलिए याद दिलाना जरूरी है कि अपने प्रभाव क्षेत्र से भगाए जाने के बाद भी न तो इनका पूरा उन्मूलन हुआ, न इनकी ओर से विरोध कम होने के बाद इसकी जरूरत थी। अब वे विघ्नकारी नहीं रह गए थे। इनकी बोली का गहरा प्रभाव भोजपुरी के निर्माण पर पड़ा। मागधी और अर्धमगधी के आपसी संबंध इसी सूत्र से जुड़े हुए हैं। इनके लिए हम आगे पूरबी बोली का ही प्रयोग करेंगें, यद्यपि इनके भीतर कई रंग है। यह ध्यान देने की बात है कि जैन प्राकृत/ आर्ष प्राकृत का आधार अर्धमागधी है जिसमें श-कार से विरक्ति है, और ल-कार की तुलना में र-कार प्रेम पाया जाता है। "जैन धर्म के प्राचीन सक्त अद्धमागह  भाषा में रचे गए है।" (हेमचन्द्र, अभिधान चिंतामणि की टीका; पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पैरा 16 )

भोजपुरी की तरह ब्रज में भी तालव्य सकार (श) नहीं पाया जाता। जिस मथुरा को सूरसेन जनपद की राजधानी बताया जाता है उसकी भाषा के लिए सूरसेनी का प्रयोग अधिक सही है। परन्तु सूरसेनी प्राकृत का प्रसार क्षेत्र कौरवी तक था और बोलियों के मानकीकरण या संस्कृतीकरण को समझने की दृष्टि से यह नाम कुछ भ्रामक है। जो भी हो इस नाम से अभिहित प्राकृत का ही प्रसार महाराष्ट्र में हुआ था, और यही जैनियों के बीच भी प्रचलित हुई थी। परंतु महाराष्ट्री शब्द का ध्वनिविन्यास प्राकृत के अनुरूप नहीं है।

सचाई यह भी है कि प्राकृतों में बहुत मामूली भिन्नताएं हैं, एक बार प्रतिष्ठा पाने और संस्कृत की तरह बोलियों से लुकाछिपी खेल में प्राकृतों के भी शामिल होने के कारण भारत की बोलियाँ प्राकृतों से और इसी तरह अपभ्रंश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती थी, परंतु जैसे संस्कृत से प्राकृताें का जन्म नहीं हुआ, उसी तरह अपभ्रंशों का जन्म प्राकृतों से नही हुआ। अपभ्रंशों (सच कहें तो अपभंसो) का उदय चारणजीवी आभीरों के संगठित हो कर शक्तिशाली बनने का परिणाम था जिसमें कवियों ने अपनी रचनाओं में उनकी ध्वनि प्रवृत्ति को सचेत रूप में पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया और अब प्राकृत से आगे बढ़ कर इसका व्यवहार करने लगे। महत्वपूर्ण बात है एक बार चलन में आ जाने के बाद कवियों का इन पर अधिकार करना। स्थानीय बोलियों से इन्हें ताे प्रभावित होना ही था, इनकी कृत्रिमता का या कहें इनके कतिपय प्रयोगों का प्रवेश बोलियाों में भी हुआ।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (7) इतिहास वेध का समापन

भूमिका  का ध्यान  शब्दवेध आरंभ करने के बाद  आया  और यह  अपेक्षा  से  कुछ अधिक लंबी हो गई, फिर भी कुछ कमियां रह गईं।  जिनकी  रुचि  शब्दों की  परतें उतारने में है,  उनको  यह विचित्र लगा  होगा कि  बात तो  शब्दवेध  की की जा रही है, और वेध  इतिहास  का  किया  जा रहा है।  ऐसे तीरंदाज पर  भरोसा कौन कर सकता है  जो चलाता तो तीर है पर वह तुक्का बन कर  कहीं का कहीं पहुंच जाता है।  अनचाहे ही सही, तुक्का  बनकर  भी  तीर ने अपना काम किया है।    

विद्वान उसे कहते हैं जिसके ज्ञान पर दूसरे भरोसा करके उसकी बात मान लेते हैं, भले उसका ज्ञान बहुत सीमित हो, और अपनी लाज बचाने के लिए,  उसे,  ऐसी बातें तो करनी ही पड़ती हैं जिन्हें वह जानता है, साथ ही ऐसी अटकलें भी लगानी पड़ती हैं जिनमें से कुछ गलत भी सिद्ध हो सकती हैं।  ऐसे ही लोगों पर मैत्रायणी संहिता का कथन -  ब्राह्मण उभयीं वाचं वदति यश्च वेद यश्च न, मै.सं. 2.1.15 -  ज्ञानी दोनो तरह की बातें करता है; जिसे समझता हे उसे तो कहता ही है, जिसे नहीं समझता उसे भी बकता है - पूरी तरह  लागू होता है, और इनमें ही हमारी भी गणना होनी चाहिए।  भाषा के मामले में मैं जिस तरह का विद्वान हूं,उसमें मुझ पर, या  मेरी परिस्थिति में  दुनिया का कोई दूसरा विद्वान हो तो,  उस पर  भी पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। 
  
एक अतिपरिचित पर उतने ही गलत  शास्त्र को,  उलट पलट कर हमने  ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है जिसमें  हर चीज को  नए सिरे से जुड़ना है पर इस बात का सही पता नहीं कि इस मलबे से निकला कौन सा टुकड़ा  पूरी तरह कहां फिट होता है।  ज्ञान  और अनुमान  की  यह  धूप-छांव हमारे  पूरे विवेचन में  जारी रहनी है। उस जटिल, व्यापक  और बहु स्तरीय  समस्या की पूरी  पृष्ठभूमि को  इतना लंबा समय लेकर भी मैं पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर सका, फिर भी इसे समझे बिना कई तरह की भ्रान्तियाँ  पैदा हो सकती हैं,  जिसमें पिछड़ेपन का महिमामंडन, और  विकास के चरणों के  सरलीकरण,   संस्कृत की  एक परिष्कृत भाषा के रूप में  उपेक्षा की समस्या भी पैदा हो सकती थी।  

संक्षेप मे यह याद दिलाना  भी जरूरी है  कि ऋग्वेद में  संकलित रचनाएं उस विशाल भंडार का  नष्ट होने से बचा रह गया क्षुद्र अंश है  जिसकी रचना  1000 साल  की लंबी अवधि में  हुई थी,  इसलिए,  इसमें  भाषा के अनेक प्रयोग हुए हैं,  यद्यपि  प्रयत्न  एक मानक भाषा के अनुरूप  रचना करने का ही था।  दूसरी बात  यह कि  ऋग्वेद की साहित्यिक  भाषा अपने समय की  बोलचाल की  भाषा का प्रतिनिधित्व नहीं करती।   बोलचाल की भाषा के भी  दो रूप थे। एक भिन्न भाषा  और विश्वास  वाली पृष्ठभूमि से  आर्थिक कारणों से,  इस समाज के  प्रभु वर्ग की सेवा में लगे हुए लोगों की  घरेलू बोलियाँ  और दूसरी  संपर्क भाषा के  रूप में उनके द्वारा बोली जाने वाली  भाषा,  जिसमें उनकी  बोलियों की छाप बनी रह सकती थी। 

एक और गलती  जो पेशेवर भाषाशास्त्रियों  से होती रही  वह  यह है कि संस्कृत से  प्रथम परिचय  और उसी को आधार  बनाकर  भाषा विज्ञान का अध्ययन  आरंभ हो जाने के कारण,  भारोपीय का सीधा संबंध संस्कृत से जोड़ लिया जाता था, जबकि  जिस  पाणिनीय संस्कृत को  तुलना  के लिए  चुना  जाता रहा है,  वह  वैदिक सभ्यता से लगभग डेढ़ हजार साल बाद की, पंडितों द्वारा  रची भाषा है, जिसका  बोलचाल में,  इसका  मानक  रूप तैयार होने के समय, शिक्षित  ब्राह्मणों के बीच भी प्रयोग नहीं होता था। इसे स्वीकार करने में कुछ समय लगा।   

भारोपीय क्षेत्र में जिस भाषा का प्रचार हुआ था  साहित्यिक नहीं अपितु  बोलचाल की वह  प्रधान  भाषा  थी  जिसे संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग में लाया जाता था, या कहें जिसका प्रयोग वैदिक समाज का व्यापारी वर्ग,  जो अपने को श्रेष्ठ और   सदाचारी (आर्य, साधु)  कहता था, उसकी भाषा का हुआ करती थी।  परंतु  विशेष बोलियाँ बोलने वाले और निजी उपक्रमों  में लगे हुए लोग  अपने प्रभाव क्षेत्र में अपनी बोली का भी प्रयोग करते थे, और इसी के कारण  मुंडारी  या  द्रविड़ के तत्वों का भी साथ साथ प्रसार हुआ था।  अतः हम यह मानते हैं  आर्य भाषा का प्रयोग  ऋग्वेदिक काल की  संपर्क भाषा  के लिए ही  हो सकता है।  

संस्कृत ब्राह्मणों की  भाषा बन कर पैदा हुई जिसे  गुरू से सीख कर जाना, जा सकता है  और  जिसकी  शुद्धता बनाए रखने के लिए, इसे सीखने का अधिकार  ब्राह्मणों ने  अपने पास सुरक्षित रखा था। उपनयन के अधिकारी  दूसरे  वर्णों को   साक्षर बनाया जाता था और अपने लिए वर्णधर्म के अनुसार दूसरी  विद्याएँ सिखाई जाती थीं।  यह बाजार की और बनियों की  भाषा नहीं थी, न बनाई जा सकती थी। इसलिए न तो इसका चलन आम जनों में हो सकता था, न बाद की भाषाएँ इसके विकार या विघटन से पैदा हो सकती थीं।  

होता यह रहा कि भारत की कोई बोली यदि किसी कारण से अधिक समादृत हो जाती थी और इसकी पहुँच सारस्वत क्षेत्र, जिसे बाद में किसी चूक से शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र कहा जाने  लगा, पर वह अपनी कतिपय विशेषताओं की रक्षा करती हुई संस्कृतीकरण की उसी प्रक्रिया से गुजरती थी  जिससे  पूर्वी बोली  हजारों साल पहले इस  क्षेत्र में पहुंचने के बाद  वैदिक में परिवर्तित हुई थी।  इसी के कारण प्राकृत और पाली की आपस में जो भी भिन्नता हो,  इनकी साहित्यक कृतियों को  मात्र ध्वनि परिवर्तन से,  बहुत आसानी से  संस्कृत में रूपांतरित किया जा सकता है और  प्राकृत के आचार्य  ऐसा करते भी रहे हैं। 

व्यापारियों ने समाज को अहिंसक बना कर चोरोे-लुटेरों से मुक्त ऐसा समाज बनाने के लिए, जिसमें व्यापारिक गतिविधियाँ निर्बाध चल सकें, बड़े पैमाने पर जैन मत अपनाया और उसके साथ प्राकृत को अपनी व्यावहारिक भाषा बनाया जिससे, जैन प्राकृत जो महाराष्ट्री प्राकृत से, तथा दोनों, ऊपर बताए गए कारण से  शोरसेनी प्राकृत से मिलती थीं असाधारण प्रोत्साहन दिया गया और इसी को  सुगम  पाकर  संस्कृत नाटककारों ने अशिक्षित लोगों की  भाषा के रूप में संवादों में  प्रयोग किया। ध्यान रहे कि जिस बोली में  गौतम बुद्ध  या  महावीर अपने उपदेश देते रहे वह संस्कृत से निकली नहीं थी।  सारस्वत क्षेत्र में  पहुंचने के बाद उसका  संस्कृतीकरण हुआ था।  नमि साधु इसीलिए मागधी को  आर्ष प्राकृत  कहते थे  और संस्कृत का विकास इस प्राकृत से मानते थे।  उनका कथन इस सीमा तक सही था वैदिक और संस्कृत का विकास  पूरब की बोलियों में आए परिवर्तन का  परिणाम है। 

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

फ्रांस की घटना पर मुनव्वर राना का बयान निंदनीय है / विजय शंकर सिंह

फ्रांस में अध्यापक की उनके मुस्लिम छात्र द्वारा की गयी हत्या पर शायर मुनव्वर राना की इस हत्या को औचित्यपूर्ण ठहराने के संबंध में दिया गया उनका बयान, निंदनीय और शर्मनाक है। किसी भी प्रकार से मानव हत्या के अपराध को औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता है। 

फ्रांस में पैगंबर मोहम्मद साहब के विवादित कार्टून के बाद से एक-एक कर कई हत्याएं की गईं। टीचर की हत्या के बाद फ्रांस के एक चर्च में हमलावर ने एक महिला का गला काट दिया और दो अन्य लोगों की भी चाकू मारकर हत्या कर दी। इसे लेकर फ्रांस और मुस्लिम देशों के संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं। 

इन हत्याओं को मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने जायज ठहराया है। मुनव्वर राणा का कहना है कि अगर कोई हमारी मां का या हमारे बाप का ऐसा कार्टून बना दे तो हम तो उसे मार देंगे। उन्होंने यह भी कहा है कि हमारे देवी देवताओं मा सीता और राम पर ऐसा कार्टून बनाये तो हम मार देंगे। मुनव्वर राणा इन दिनों अपनी शायरी से ज्यादा अपने बयानों की वजह से चर्चा में रहते हैं।

उनके बयान में भी वही चीज पोशीदा है, यानी, आस्था पर चोट अगर पहुंचायी जाएगी तो उसकी प्रतिक्रिया हिंसक या हत्या में होगी। अगर फ्रांस के उस टीचर की हत्या का समर्थन किया जा रहा है, तो फिर पिछले कुछ सालों से आस्था के आहतवाद के अनुसार, होने वाली मॉब लिंचिंग का विरोध किस आधार पर किया जा सकता है ? फिर यही मान लीजिए कि जिसकी आस्था आहत हो वह फिर, आहत करने वालों की हत्या ही कर दे। फिर एक बर्बर और प्रतिगामी समाज की ओर ही तो लौटना हुआ ? 

आस्था से हुआ आहत भाव कितना भी गंभीर हो, पर उसकी प्रतिक्रिया में की गयी किसी मनुष्य की हत्या एक हिंसक और बर्बर आपराधिक कृत्य है। जो कुछ भी उस किशोर द्वारा अपने अध्यापक के प्रति फ्रांस में किया गया है, वह अक्षम्य है, और उसका बचाव बिल्कुल भी नहीं किया जाना चाहिए। 

एक मित्र ने यह तर्क दिया है कि शार्ली हेब्दो के कार्टून पर क्या प्रतिक्रिया है। इसका उत्तर है कि वह कार्टुन आपत्तिजनक और निंदनीय है। इस कार्टुन के खिलाफ फ्रेंच कानून के अंतर्गत अदालत का रास्ता अपनाया जाना चाहिए था, न कि हत्या कर देना। 

अगर आहत भाव पर ऐसी हत्याओं का बचाव किया जाएगा और उनको औचित्यपूर्ण ठहराया जाएगा तो आहत होने पर हत्या या हिंसा की हर घटना औचित्यपूर्ण ठहराई जाने लगेगी। फिर कानून के शासन का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। 

शार्ली हेब्दो पहले भी पैगम्बर के आपत्तिजनक कार्टून छाप चुका है। उसने न केवल इस्लाम के ही बारे में आपत्तिजनक कार्टून छापे है, बल्कि उस अखबार में, कैथोलिक धर्म और चर्च के खिलाफ भी कार्टून छापे गए हैं। पहले भी 2012 में, पैगम्बर के आपत्तिजनक कार्टून छापने के बाद शार्ली हेब्दो के कार्यालय पर आतंकी हमला हुआ था और उसके 12 कर्मचारी मारे गए थे। 

लेकिन उस जघन्य आतंकी घटना के बाद भी उक्त अखबार की न तो नीयत बदली और न नीति। शार्ली हेब्दो ने अस्थायी कार्यालय से अपना अखबार निकालना जारी रखा और ऐसे ही कटाक्ष भरे, आपत्तिजनक कार्टून फिर छापे गए। पूरे फ्रांस या यूरोप में मैं हूँ शार्ली का एक अभियान चलाया गया। 

किसी की धर्म मे आस्था है तो किसी की संविधान में और किसी की दोनो में। आस्था नितांत निजी भाव है। लेकिन, देश धर्म की आस्था से नहीं चलता है बल्कि संविधान से कायदे कानून से चलता है। फ्रेंच कानूनो के अंतर्गत वहां के आस्थावान लोगों को शार्ली हेब्दो के खिलाफ कार्यवाही करनी चाहिए थी, न कि आतंकी हमला और अध्यापक की हत्या। 

धर्म के उन्माद और धर्म के प्रति आस्था के आहत होने की ऐसी सभी हिंसक और बर्बर प्रतिक्रियायें, चाहे वह गला रेत कर की जाने वाली हत्या हो, या मॉब लिंचिंग या भीड़ हिंसा, यह सब आधुनिक और सभ्य समाज पर एक कलंक है। इसमे कोई दो राय नही है कि ऐसा कार्टून बनाना निंदनीय है और ईश्वर धर्म और पैगम्बर से जिनकी भी आस्था जुड़ी हो, उसे, आहत नही किया जाना चाहिए। 

पर इसका यह बिल्कुल भी अर्थ नही है कि, ऐसा कुकृत्य करने वालो की हत्या कर दी जाय और फिर उस हत्या के पक्ष में खड़ा हो जाया जाय। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में यह सदैव ध्यान रखा जाना चाहिए कि, आप को सड़क पर खड़े होकर छड़ी घुमाने का अधिकार है, पर वहीं तक जब तक कि वह किसी की नाक पर न लग जाय। 

( विजय शंकर सिंह )

शब्दवेध (6) हिंडोलन से आन्दोलन तक

हम भाषा या समाज के सिरे से  विचार करते हैं तो यह बात समझ में नहीं आती  कि वैचारिक खलबली  बहुधा उस भू-भाग में क्यों  पैदा होती रही है, जिसमें सिमटे रह जाने पर वह यदि लुप्त न हुई तो सिकुड़ कर, समाज पर भार बन जाती है और सारस्वत क्षेत्र तक पहुँची तो आन्दोलन बन कर देश-देशान्तर में फैल जाती रही है। गंगा घाटी की महानगरी भी तीन लोक से न्यारी या दुनिया से कटी हुई है, सरस्वती घाटी के नगरों की पुरानी संज्ञा का पता नहीं चलता, परन्तु सरस्वती और इसके अनुपयोगी हो जाने के बाद सिंधु तटीय नगर एक विशाल क्षेत्र में साझी विरासत के बाद भी एस दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए आगे बढ़ने के प्रयत्न में दूसरों को मिटा देने को तैयार रहते हैं। गंगाघाटी का टकराव परस्पर विरोधी है, प्रतिस्पर्धी नहीं।  विरोध का आधार दार्शनिक है जिसे हम  प्रकृतिवाद और प्रगतिवाद के बीच द्वन्द्व के या सनातन विरोध के रूप में लक्ष्य करते हैं।

सरस्वती घाटी में जिस चरण  पर हम पहली बार इसे लक्ष्य करते हैं, दार्शनिक दृष्टिकोण में अधिक परिवर्तन नहीं आता, परंतु यह विरोध की जगह  समायोजन का रूप ले लेता है जिसमें समय-समय पर  अपने आर्थिक अधिकारों का टकराव तो बना रहता है,  परन्तु असहयोग नहीं दिखाई देता।   यह चरण कई हजार साल बाद का है,  परंतु इसका मुख्य कारण आर्थिक गतिविधियों के चरित्र में आया अंतर है,  क्योंकि  मध्य उत्तर गंगा घाटी में यह कई हजार साल बाद भी विक्षोभ,  विरोध,  और  विरक्ति में परिणत हो जाता है। सामाजिक न्याय का आग्रह भी  इसी में अधिक दिखाई देता है जो सरस्वती  घाटी में सतह पर आता दिखाई नहीं देता।  

ऋग्वेद में  प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञता के सभी क्षेत्रों में सैद्धांतिक ज्ञान और अमल  असुरों के हाथ में रहता है,  जो  कृषि कर्म से परहेज करते हैं। वे सभी आविष्कार और उपक्रम  जिन पर सरस्वती-सिंधु सभ्यता  गर्व करती है उन लोगों के हाथ में है  जिनको  पहले राक्षस  और फिर बाद में   असुर  के  समावेशी नाम से जाना जाता है।   लाभ में  हिस्सेदारी को लेकर हिंसक टकराव यहां भी देखने में आता है,  और   नौवहन पर भी इनका ही अधिकार होने के कारण प्राग वैदिक चरण पर ही वैदिक  स्वामी वर्ग  से उत्पीड़ित  एक जत्था  दूर कहीं भी  आश्रय तलाश करने के लिए रवाना होता है, और  इस अभियान से आरंभ होती है विश्व की पहली नगर सभ्यता।

कहानी विचित्र है, परंतु इसका ध्यान आ गया  तो इसे  आपके साथ साझा करना जरूरी लगा।  सुमेरिया में भी अपने  वैचारिक  आग्रहों के कारण, वे खेती नहीं कर सकते।  मनुष्य द्वारा उपजाए गए, अनाज और फल  के आदी हो जाने के बाद  उन्हें  वह उत्पाद चाहिए,  परंतु  कृषि-कर्म नहीं।  इसके लिए स्थानीय आबादी को नियंत्रित करने का तरीका अपनी  जादुई  शक्ति का प्रचार करके  समाज के पुरोधा बन कर, उन्हें मानसिक रूप में अपना दास बनाते हुए, यह दावा करते हुए कि इनका सीधा संपर्क देवताओं से है, अपने निवास के लिए उनके श्रम और अपनी दक्षता के बल पर ‘गगनचुंबी’ जिगुरात बनाते हुए राज करते रहे। इनकी जादुई शक्ति  की धाक  स्थानीय निवासियों पर  इनके पहुंचने के साथ ही जम गई थी,  जब उन्हें पता चला कि ये  समुद्र में भी उसी तरह रह  सकते हैं जैसे जमीन पर। 

इस कहानी के विस्तार में नहीं जाएंगे,  इतना ही संकेत पर्याप्त है कि यह ऋग्वेद में आए प्रतीकात्मक कथाओं में,   विश्वरूपा के निपट भोगवादी  आचार के कारण  उसके वध,  त्वष्टा से उसके संबंध, त्वष्टा द्वारा प्रतिहिंसा,  बलि और वामन की कथा और वैदिक  साहित्य में  दोहराए गए  इस प्रसंग से  कि असुरों ने ही पहली बार सुदूर  क्षेत्र में नगर बसाए, जो उनकी भाषा में इस लोक में तो था ही द्युलोक और अंतरिक्ष में भी था (असुराणां एषु लोकेषु पुर आसन् अयस्मय अस्मिंल्लोके रजतान्तरिक्षे हरिणी दिवि, ते देवा संस्तम्भं संस्तम्भं पराजयन्ता ह्यासं स्त एताः प्रतिपुरोऽमिन्वत,...3.8.1) आदि अनेक प्रतीक कथाओं में झलकता है।  

रोचक बात यह कि  यदि  पुरातत्व का सहारा न लेकर  केवल साहित्य के मर्म विश्लेषण से  इतिहास लिखा जाता  तो भी  यह  दावा  किया जा सकता था  कि भारत में  नगर सभ्यता  बहुत प्राचीन काल में थी परंतु इससे  पहले ही कहीं अन्यत्र नगर बसाए जा चुके थे।

हम अपने  मुख्य विषय से  भटक गए।   कहना केवल यह चाहते  थे सरस्वती सभ्यता में  असुरों की भूमिका, दार्शनिक  कट्टरता  और  आर्थिक  भागीदारी को लेकर,  तनाव के बावजूद, विरोधी नहीं है, विज्ञान विरोधी नहीं है,, उत्पादन विरोधी नहीं है, जबकि गंगा घाटी में आज तक प्रधान समस्या मुख्यतः समाजिक कुसमायोजन की दिखाई देती है, परंतु इसका आर्थिक पक्ष दबा रह जाता है। इसका प्रधान कारण यह है कि कृषि आधारित होने के कारण इसमें ठहराव है, जमीन से जुड़ाव है और इसका एस कारण यह भी है कि उन्हीं असुरों की तकनीकी दक्षता को इसमें उचित प्रोत्साहन न मिल सका जो व्यापारिक कारणों से सारस्वत क्षेत्र में मिला। दूसरे देशों में जिस दौर में गाड़ी में, पहिए में, जोताई और खोदाई, कताई, जल प्रबंधन और भूमि प्रबंधन आदि में नए प्रयाेग और आविष्कार हुए भारत में ऐसा संभव न हुआ क्योंकि तकनीकी दक्षता रखने वालों की हिस्सेदारी उत्साहवर्धक न थी जो पहल और प्रयोग की जननी है।  यहाँ तक कि अपने हिस्से के लिए उन्होंने कभी कोई आंदोलन नहीं किया। वह टकराव तक नहीं हुआ जो सारस्वत  क्षेत्र में  दिखाई देता है। 

 जो भी हो यहां  विरोध और  विक्षोभ  का एक आधार  पुराने विश्वास को लेकर था।  पुराने ओझा जादू -टोने,  और  तंत्र मंत्र में सिद्धि पाने का दावा करते  थे जिसकी  कृषि कर्मी और वैदिक समाज कृत्या, मायाचार,   जादू  कह  कर निंदा करता था।  ऐसे लोगों को यातुधान कह कर उनसे परहेज करता था।  ये हठसाधना, नर बलि, पशुबलि से विलक्षण कारनामों का विश्वास दिलाते हुए   शैव और शाक्त  परंपराओं के रूप में आदिम कालीन स्वच्छंदता  के साथ,  उत्पादक श्रम से मुक्त रह कर भी परजीवी के रूप में बने रहे।  ब्राह्मणत्व से प्रतिस्पर्धा करते हुए ये अपनी प्रतिष्ठा के लिए जब तब हलचल मचाते रहे उसे भ्रमवश सामाजिक न्याय का आंदोलन मान लिया जाता है परंतु  निकट से देखने पर इसकी पुष्टि नहीं होती।  इन्हें आंदोलन कहने के स्थान पर हिंडोलन कहना अधिक उपयुक्त है।

मानवतावादी सरोकारों से जो आंदोलन आरंभ हुए उनके नैतिक औचित्य और आर्थिक उपादेयता के कारण ही इनका प्रसार सारस्वत क्षेत्र तक हुआ और यदि वे व्यापारिक पर्यावरण को अनुकूल बनाने में सहायक हुए तो उनके प्रसार के संगठित प्रयत्न हुए और  इनको आर्थिक समर्थन वणिकों की ओर से मिला।

सारस्वत चरण पर राजस्थान का अधिकांश भाग उर्वर था। व्यापारिक गतिविधियों में राजस्थानियों की संलग्नता अधिक रही लगती है।  सिंध और गुजरात खेती के पशुश्रम पर और आगे परिवहन के साधनों के रूप में उनके उपयोग के कारण पनपे पशु व्यापार के चलते प्रमुख व्यापारियों के रूप में आगे बढ़े। बाद में उस सभ्यता के बुरे दिन आए, कई शताब्दी तक प्राकृतिक विपर्यय के कारण राजस्थान रजस्थान या रेगिस्तान में बदल गया फिर भी आज तक व्यापारिक और औद्योगिक गतिविधियों में मारवाड़ी, सिंधी और गुजराती ही बने रहे। सारस्वत क्षेत्र में पहुँचने के बाद कोई दर्शन और  भाषा क्यों अखिल भारतीय स्वीकार्यता और प्रसार पा जाती है इसका कारण, हमारी समझ से उसका उस तंत्र से जुड़ना है जो अनेक इतर रहस्यमय कारणों से यदि पिछले आठ हजार साल से नहीं तो भी पाँच हजार साल से आज तक सक्रिय है। 

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (5)

क्व अभ्रस्पृशं शास्त्रं क्व तृणभंगुरा मतिः।
चूर्णीभूत्वा प्रवातोत्था अतिलंघयितुमुत्सुका।।

 मैं   अपने को  भारत का  एकमात्र  मार्क्सवादी  सोच वाला व्यक्ति  इसलिए मानता हूं,   मार्क्सवादी होने का दावा करने वाले मेरे समय के दूसरे सभी विद्वान  और उनकी  सीख और समझ में  पले बढ़े बुद्धिजीवी  औपनिवेशिक कूट चक्र से बाहर न निकल पाने के कारण  अपने  विवेचन में  भाववादी  रहे हैं और आज भी हैं। वे  विदेशी भाषा को  वरीयता देते हैं,  विदेशों के विचार  से  निर्देशित होते हैं,  विदेशी अध्येताओं पर  अपने समाज  और इतिहास  के गहन अध्ययन का भार सौंप कर, उनसे निर्देशित होते हैं, परंतु स्वयं राजनीति को ही  अपनी चारदीवारी मानते हैं और  उसको भी व्यावहारिक  कदाचार के साथ स्वीकार करते हुए अपना सारा समय उसी पर बर्वाद करते हैं।  

वे  नस्लवाद का मौखिक विरोध करते हैं और आर्यों की विशेष गुण संपन्न नस्ल की बात करते हुए अपने इतिहास की व्याख्या करते हैं।  वे अपने समाज को,  अपने यथार्थ को,  अपने दिमाग में भरे हुए खयालों से समझना चाहते हैं और उनकी दशा उस मनोविक्षिप्त जैसी होती है, जिसका संबंध अपने यथार्थ से कट गया हो, और वह अपने मनोभाव के अनुसार   बाहरी जगत का अनुमान करते हुए उससे टकराव की स्थिति में बना रहता है  -  उस पर हंसता है, पत्थर  फेंकता है, और  उस पर विजय पाने की कोशिश में  समाज के लिए संकट तो पैदा ही करता है, अपनी स्थिति को भी अधिकाधिक दयनीय बनाता चला जाता है।  दुनिया को बदलने के लिए खुद को होश में रखना जरूरी है और उसमें रहने के लिए अपनी आंखों पर, अपने अनुभवों पर, अपनी समझ पर भरोसा करना जरूरी है। उधार की समझ अपनी नहीं होती, न उसके अन्तर्विरोधों पर हमारा ध्यान जा पाता है।

 दोष  अकेले उनका नहीं है  ,  हम  विद्वानों को उनके  ज्ञानावेश के कारण खयालों की दुनिया से खयालों  की दुनिया तैयार करने की  असाध्य बीमारी का शिकार पाते हैं। यदि ऐसा न होता तो आज से 3000 साल पहले  से आरंभ होने वाले भाषा चिंतन से  आधुनिक जगत को आश्चर्यचकित करने वाले  भारतीय वैयाकरणों को  जिन्होंने भाषा का अध्ययन  ऋग्वेद की ऋचाओ को समझने के लिए आरंभ किया था, इस बात का ध्यान तो होता कि किसी सृष्टि से पहले जब कुछ नहीं था,  यहां तक कि जिस परमेश्वर की हम कल्पना करते हैं,  वह तक निराकार था (नासदीय सूक्त) फिर चारों वेद कैसे हो सकते थे? यज्ञ कैसे हो सकता था?   वह भाषा  जिसमें वेद रचे गए थे, एक जैसी नहीं है?  एक साथ उसी भाषा के इतने रूप कैसे हो सकते थे?  उससे सभी भाषाओं की उत्पत्ति कैसे हो सकती थी? 

इस संशय की स्थिति में उन्हें  पुरुष सूक्त की नए सिरे से व्याख्या करनी चाहिए थी । मोटी  समझ से काम लेने पर यह बात समझ में आ जाती कि समस्या अधिक जटिल है और किसी दूसरे चरण से संबंधित है। और तब उनकी समझ में यह भी आ जाता कि यह ब्रह्माण्ड की सृष्टि का नहीं,  कृत्रिम  अर्थात्  मानव रचित  उस चरण का इतिहास है जिसे कृत्रिम उत्पादन या कृषि क्रांति की संज्ञा दी जाती है।  

इसकी स्थापना के बाद या आर्थिक निश्चिंतता और स्ख्यावृद्धि के बाद  समाज ने स्वयं, अपने भीतर कार्य विभाजन किया था,  और वर्ण व्यवस्था की स्थापना हुई।  

पुरुष,  प्रजापति का रूप है जिसकी अनेक परिकल्पनाओं में   कुछ हमारे लिए खासे रोचक हैं - ‘यज्ञ  ही प्रजापति है’, (एष वै प्रत्यक्षं यज्ञो यत्प्रजापतिः, शतपथ 4.3.4.3);  अन्न ही प्रजापति है’ (अन्नं वा अयं प्रजापतिः, शतपथ, 7.1.2.4), जिसकी व्याख्या करते हुए तैत्तिरीय  उपनिषद  में  आरंभ में ही‘अन्न को ही ब्रह्म है’, बताया गया है (अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते। याः काश्च पृथिवीं श्रिताः। अथो अन्नेनैव जीवन्ति। अथैनदपियन्त्यन्ततः।अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्‌। तस्मात्‌ सर्वौषधमुच्यते।सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति। येऽन्नं ब्रह्मोपासते। अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्‌। तस्मात्‌ सर्वौषधमुच्यते। अन्नाद्‌ भूतानि जायन्ते। जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतेऽत्ति च भूतानि। तस्मादन्नं तदुच्यत इति।तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयात्‌।) 

 हम इस वाक्य को  टेक की तरह दुहराते रहे हैं कि यज्ञ  कृषि कर्म है,  और  इस बात को प्राचीन कृतियों में तरह तरह से दुहराया गया है। जिस  तर्क से  खेती को उत्तम साधन बताया जाता रहा है वह यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है (यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म) का अनुवाद है।  यज्ञ का कर्मकांड और प्रतीक विधान इसी की पुष्टि करता है।  खेती  अनेकानेक  विशेषज्ञताओं से जुड़ा हुआ  उपक्रम है - ऋग्वेद के अनुसार इसके तार सभी से जुड़े हुए है. - विश्तज्ञ तन्तुभिः ततं, या गीता के शब्दों में,  यज्ञः  कर्म समुद्भवः ।  इसके सुचारु संचालन के लिए  योग्यता के अनुसार कार्य विभाजन  आवश्यक था, और इसलिए  कृषक समाज ने  अपने भीतर ही  श्रम विभाजन और कार्य विभाजन आरंभ किया  तथा  उस प्राचीन व्यवस्था का अन्त किया यही पुराने तरीके या बलिपशु का वध था - देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम्। 

 भाववादी आग्रहों के कारण बार-बार अनेक रूपों में  दुहराई और समझाई गई इस कहानी को समझने में हमारे विद्वान, वे विद्वान भी  जो वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति  को लेकर  चिंतित थे,  इतने लंबे विफल रहे, फिर भाषा की समझ के विषय में  उनके संस्कृत पर अनन्य अधिकार  के बाद भी,  हम उनके विवेचन पर भरोसा नहीं  कर सकते। उनकी व्याख्या संस्कृत भाषा को समझने की दृष्टि से अचूक है, पर भाषाओं की उत्पत्ति और स्वयं संस्कृत का उद्भव और विकास समझने में बाधक।

हम समाज रचना,   संस्कृति  और  भाषा की समस्या को  अर्थ-तंत्र के साथ रखकर समझना चाहें तो हमारा काम अधिक आसान हो जाता है।  भाषा कोई भी हो (और यहाँ  हम  बोलियों के लिए भी  भाषा का  प्रयोग कर रहे हैं)   ऐसी नहीं है  कि  उसमें अनगिनत भाषाओं का घालमेल  न हुआ हो। 

यह आहार की तलाश में किसी भाषा-भाषी क्षेत्र में समय समय पर आकर बसने वाले, या उसके चिरकालिक संपर्क में रहने वाले दूसरी भाषाएँ बोलने वालों के प्रभाव  का परिणाम है।  इस तथ्य की अनदेखी करने के कारण नस्लवादी  सोच वाले विद्वान  दावा करते रहे हैं कि भाषाओं में परिवर्तन  और उनसे निकटता रखने वाली परवर्ती भाषाओं का 'जन्म' भाषा के अपने आंतरिक नियमों से संभव हुआ है।  वे न  रक्त में कोई मिलावट सहन कर सकते थे,  न अपनी भाषा में।    पिछड़ी अवस्था में  रहने वाले या रहने को विवश किए गए लोगों से  उन्होंने कुछ ग्रहण नहीं किया,  उन्हें केवल दिया है।  यह भावना  एक शुद्ध भाषा से  बोलियों और उप बोलियों के उल्टे सिद्धांत का जनक है  और  यह सिद्धांत  सर्वत्र  दिखाई देता है। आरंभ समाज व्यवस्था से ही हो जाता है -  'संसार का सब कुछ बाह्मण का है और उसकी कृपा से ही दूसरे सभी लोगों का पालन होता है - सर्वं स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किं चिज्जगतीगतम् । श्रैष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति । स्वं एव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च । आनृशंस्याद्ब्राह्मणस्य भुञ्जते हि इतरे जनाः)। फिर सभी बोलियों में संस्कृत और उसके क्षरण से उनका जन्म तो होना ही था। 

उनके असाधारण ज्ञान के बावजूद,  भाववादी  सोच से  मुक्त  न हो पाने के कारण,  न केवल  प्राचीन शास्त्रकारों का समस्त ज्ञान  उटपटांग  मान्यताओं से भरा हुआ है,  अपितु पाश्चात्य विद्वानों की स्थापनाएं, जिनके  आतंक में हम  अधमरे पड़े रहते हैं, इतनी ही  प्रचंड मूर्खताओं से भरी हुई हैं। भाववादी सोच के पीछे निहित स्वार्थ काम करते हैं , जो अन्यथा  प्रबुद्ध और  तार्किक   दृष्टिकोण अपनाने वाले विद्वानों की आंख पर  भी पर्दा डाल देते हैं।  ब्राह्मणों  का स्वार्थ जातीय  वर्चस्व की रक्षा करना था पश्चिमी विद्वानों का स्वार्थ औपनिवेशिक हित की रक्षा  और  गोरी जाति और ईसाई मत के  वर्चस्व को  कुछ और हवा देना।

जो भी हो  भाषा में ऐतिहासिक क्रम में होने वाले परिवर्तन भी आंतरिक ध्वनि नियम  के कारण नहीं  मुख्यतः सामाजिक मेलजोल  या अपनाने और  विलय  के कारण होते हैं,  यद्यपि ऐतिहासिक कारणों से,  समीपवर्ती ध्वनि के प्रभाव से,  आलस्य  और प्रमाद से,  व्यक्तियों के उच्चारण तंत्र की सीमाओं से  भी मामूली परिवर्तन संभव हैं,  परंतु यदि कोई भाषा  के मूल से अलग होकर  किसी दूसरे संपर्क में आए बिना कहीं व्यवहार में आए तो उसमें  आने वाले परिवर्तनों को लक्ष्य नहीं किया जा सकता। सामाजिक संपर्क के कारण  एक एक शब्द की रचना प्रभावित हो सकती है,  जैसा  हमने एक बार  तेलुगू के ‘ऑकटि’ के उदाहरण से से स्पष्ट किया था जिसमें  हिंदी का  एक  तमिल ऑन्र के प्रभाव में ऑक हो जाता है और उसमें उस बोली का आलंकारिक प्रत्यय ‘टि’ जाता है जो बंगाली में (-टी/-टा) बहुत प्रचलित है, पर भोजपुरी में महाप्राणता के अनुराग में (-ठी/-ठो) हो जाता है और इसका वेकल्पिक प्रयोग ‘-गो’ हो जाता है जो मराठी के विस्मयसूचक  ‘आइ गो’ (माई रे) में दिखाई देता है। 

ये रे, गो, टा, टि,ठो, या, वो, ई, नी, ऊ, ए, [भाई>भइया/ भाऊ/भावे/भायानी] भाषा पर विचार करते समय हमारी नजर से ओझल हो जाते हैं, जैसे राह चलते समय पहले गुजरे लोगोे के पाँवों के निशान, जिनके गुजरने से यह पथ बना है। बोली ही नहीं अनेक शब्दों की बनावट में भी अनेक भाषाभाषियों की उपस्थिति देखी जा सकती है। इस तरह भाषा में ध्वनि परिवर्तन उन बोलियों की ध्वनि सीमा और विशिष्टता के प्रभाव से होते हैं जिनका आर्थिक कारणों से पारस्परिक समागम होता है। यह प्रभाव बृहद पैमाने पर भी होता है, जैसा भारोपीय के प्रसार में देखने में आता है और क्षुद्र स्तर पर भी जिसका नमूना ‘ऑकटि’ है। इस परिवर्तन में कुछ शताब्दियों से लेकर हजारों साल का समय लगता है और फिर भी कमियाँ बनी रह जाती है। राजस्थानी राणा को राणाप्रताप की लोकप्रियता के कारण भोजपुरी में आज लगभग अपना लिया है पर राणी नहीं चल सकता। तमिलभाषी को स्वामी का उच्चारण >सामी>चामी करना ही है।#

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


जन्मदिन 31 अवकक्टूबर - सरदार पटेल को याद करते हुए / विजय शंकर सिंह

आज आधुनिक भारत को राजनीतिक स्वरूप प्रदान करने वाले देश के महानतम नेताओ में से एक सरदार बल्लभभाई पटेल का जन्मदिन है। 1947 में देश आजाद हुआ और सरदार पटेल 1950 में दिवंगत हो गए। अंग्रेजों ने जिस भारत को आज़ाद किया था, वह बेहद छिन्नभिन्न और अलग अलग लगभग 600 देसी रियासतों में बंटा था। इन सबको एक सूत्र में पिरो कर आधुनिक भारत का वर्तमान राजनीतिक मानचित्र देने का महान कार्य सरदार पटेल ने ही पूरा किया था। 

आज उनके जन्मदिन पर उनसे जुड़ा एक अविश्वसनीय पर वास्तविक घटना का विवरण आप सबसे साझा कर रहा हूँ, जो इस महान व्यक्तित्व के जीवन के एक अद्भुत पहलू को उजागर करती है। यह विवरण, स्वाधीनता संग्राम सेनानी महावीर त्यागी की पुस्तक में सरदार पटेल और उनकी सुपुत्री मणिबेन जी के सादे जीवन के बारे में उल्लिखित है। 

महावीर त्यागी एक बार सरदार पटेल के घर गए तो, उनकी पुत्री मणिबेन एक सामान्य वस्त्र में अपने पिता के ही पास बैठी थी। महावीर त्यागी ने मणिबेन के साधारण कपड़ो को देख कर थोड़ा परिहास किया और तब आगे क्या हुआ, यह आप खुद पढिये। महावीर त्यागी, सरदार पटेल और उनकी पुत्री मणिबेन के बीच का यह प्रसंग  भावुक कर देने वाला है। 
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एक बार मणिबेन कुछ दवाई पिला रही थीं। मेरे आने-जाने पर तो कोई रोक-टोक थी नहीं, मैंने कमरे में दाखिल होते ही देखा कि मणिबेन की साड़ी में एक बहुत बड़ी थेगली (पैवंद) लगी है। 

मैंने जोर से कहा, 'मणिबेन, तुम तो अपने आप को बहुत बड़ा आदमी मानती हो। तुम एक ऐसे बाप की बेटी हो कि जिसने साल-भर में इतना बड़ा चक्रवर्ती अखंड राज्य स्थापित कर दिया है कि जितना न रामचंद्र का था, न कृष्ण का, न अशोक का था, न अकबर का और न अंगरेज का। ऐसे बड़े राजों-महाराजों के सरदार की बेटी होकर तुम्हें शर्म नहीं आती ?" 

बहुत मुंह बना कर और बिगड़ कर मणि ने कहा, " शर्म आये उनको, जो झूठ बोलते और बेईमानी करते हैं, हमको क्यों शर्म आये?"
मैंने कहा, " हमारे देहरादून शहर में निकल जाओ, तो लोग तुम्हारे हाथ में दो पैसे या इकन्नी रख देंगे, यह समझ कर कि यह एक भिखारिन जा रही है। तुम्हें शर्म नहीं आती कि थेगली लगी धोती पहनती हो! " 
मैं तो हंसी कर रहा था....

सरदार भी खूब हंसे और कहा, " बाजार में तो बहुत लोग फिरते हैं. एक-एक आना करके भी शाम तक बहुत रुपया इकट्ठा कर लेगी।" 

पर मैं तो शर्म से डूब मरा जब सुशीला नायर ने कहा, " त्यागी जी, किससे बात कर रहे हो ? मणिबेन दिन-भर सरदार साहब की खड़ी सेवा करती है। फिर डायरी लिखती है और फिर नियम से चरखा कातती है। जो सूत बनता है, उसी से सरदार के कुर्ते-धोती बनते हैं। आपकी तरह सरदार साहब कपड़ा खद्दर भंडार से थोड़े ही खरीदते हैं। जब सरदार साहब के धोती-कुर्ते फट जाते हैं, तब उन्हीं को काट-सीकर मणिबेन अपनी साड़ी-कुर्ती बनाती हैं। " 

मैं उस देवी के सामने अवाक खड़ा रह गया। कितनी पवित्र आत्मा है, मणिबेन. उनके पैर छूने से हम जैसे पापी पवित्र हो सकते हैं।

फिर सरदार बोल उठे, " गरीब आदमी की लड़की है, अच्छे कपड़े कहां से लाये? उसका बाप कुछ कमाता थोड़े ही है।" 
सरदार ने अपने चश्मे का केस दिखाया। शायद बीस बरस पुराना था। इसी तरह तीसियों बरस पुरानी घड़ी और कमानी का चश्मा देखा, जिसके दूसरी ओर धागा बंधा था। 

कैसी पवित्र आत्मा थी! कैसा नेता था! उसकी त्याग-तपस्या की कमाई खा रहे हैं, हम सब ! आज के नेतागण रोज़ नई विदेशी घड़ी बाँधते हैं ! राजाओं-महाराजाओं के समान ठाट-बाट से रहते हैं !! "

( विजय शंकर सिंह )

Friday, 30 October 2020

ईदमीलादुन्नबी - आज पैगम्बर मोहम्मद का जन्मदिन है / विजय शंकर सिंह

आज ईदमीलादुन्नबी है। यानी पैगम्बर हजरत मोहम्मद की यौमे पैदाइश। पैगम्बर ने अरब के मूढ़ और जहालत भरे तत्कालीन समाज मे एक प्रगतिशील राह दिखाई थी। एक नया धर्म शुरू हुआ था। जो मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करता था, समानता और बंधुत्व की बातें करता था और इस धर्म का प्रचार और प्रसार भी खूब हुआ। वह धर्म इस्लाम के नाम से जाना गया। 

पर आज हजरत मोहम्मद और इस्लाम पर आस्था रखने वाले धर्मानुयायियों के लिये यह सोचने की बात है कि उन्हें क्यों बार बार कुरान से यह उद्धरण देना पड़ता है कि, इस्लाम शांति की बात करता है,पड़ोसी के भूखा सोने पर पाप लगने की बात करता है, मज़दूर की मजदूरी, उसका पसीना सूखने के पहले दे देने की बात करता है और भाईचारे के पैगाम की बात करता है। 

आज यह सारे उद्धरण जो बार बार सुभाषितों में दिए जाते हैं उनके विपरीत इस्लाम की यह क्षवि क्यों है कि इसे एक हिंसक और आतंक फैलाने वाले धर्म के रूप में देखा जाता है। यह मध्ययुगीन, धर्म के विस्तार की आड़ में  राज्यसत्ता के विस्तार की मनोकामना से अब तक मुक्त क्यों नहीं हो पाया है ? 

फ्रांस में जो कुछ भी हुआ, या हो रहा है वह एक बर्बर, हिंसक और मध्ययुगीन मानसिकता का परिणाम है। उसकी निंदा और भर्त्सना तो हो ही रही है, पर इतना उन्माद और पागलपन की इतनी घातक डोज 18 साल के एक किशोर में कहाँ से आ जाती है और कौन ऐसे लोगों के मन मस्तिष्क में इंजेक्ट करता है कि एक कार्टून उसे हिंसक और बर्बर बना देता है ? 

फ्रांस में जो कुछ भी हुआ है वह बेहद निंदनीय और शर्मनाक है। पहले पैगम्बर मोहम्मद के एक कार्टून का बनाया जाना और फिर उस कार्टून के प्रदर्शन पर एक स्कूल के अध्यापक की गला काट कर हत्या कर देना। बाद में चर्च में घुस पर तीन लोगों की हत्या कर देना। यह सारी घटनाएं यह बताती है कि धर्म एक नशा है और धर्मान्धता एक मानसिक विकृति।  

एक सवाल मेरे जेहन में उमड़ रहा है और उनसे है, जो इस्लाम के आलिम और धर्माचार्य हैं तथा अपने विषय को अच्छी तरह से जानते समझते हैं। एक बात तो निर्विवाद है कि, इस्लाम में मूर्तिपूजा का निषेध है और निराकार ईश्वर को किसी आकार में बांधा नहीं जा सकता है। इसी प्रकार से पैगम्बर मोहम्मद की तस्वीर भी नही बनायी जा सकती है। यह वर्जित है और इसे किया भी नहीं जाना चाहिए। यह भी निंदनीय और शर्मनाक है। 

पर अगर ऐसा चित्र या कार्टून, कोई व्यक्ति चाहे सिरफिरेपन में आकर या जानबूझकर कर बना ही दे तो क्या ऐसे कृत्य के लिये पैगम्बर ने कहीं कहा है कि, ऐसा करने वाले व्यक्ति का सर कलम कर दिया जाय ? मैंने मौलाना वहीदुद्दीन खान का एक लेख पढ़ा था, जिंसमे वे कहते हैं कि ब्लासफेमी या ईशनिंदा की कोई अवधारणा इस्लाम मे नहीं है। वे अपने लेख में पैगंबर से जुड़े अनेक उदाहरण भी देते है। अब अगर पैगम्बर ने यह व्यवस्था नहीं दी है तो फिर यह किसने तय कर दिया है कि, चित्र या कार्टून बनाने वाले की हत्या कर दी जाय ? 

इस्लाम के अंतिम पैगम्बर हजरत मोहम्मद के जन्मदिन पर उनके अनुयायियों और उनके पंथ के विद्वानों को आज आत्ममंथन करना चाहिए कि कैसे उनका यह महान धर्म अब भी मध्ययुगीन हिंसक और बर्बर मानसिकता का परिचय देता रहता है। ऐसी हिंसक घटनाएं और इनका मूर्खतापूर्ण समर्थन यह बताता है कि आस्थाएं कितनी भुरभुरी ज़मीन पर टिकी होती है, जो अक्सर आहत हो जाती है। आस्थाओं के आहत होने की मानसिकता भी एक संक्रामक रोग की तरह है। यह संक्रामकता किसी भी महामारी से अधिक घातक होती है। 

पैगम्बर के जन्मदिन ईद मिलादुन्नबी के इस अवसर पर आप सबको शुभकामनाएं। 

( विजय शंकर सिंह ) 

शब्दवेध (4) बोलियों में बोली- भोजपुरी

हिंदी से  स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर लेने के बाद भी,  मैं हिंदी नहीं बोल पाता था । हिंदी मेरे लिखने की भाषा थी,  बोलने की भाषा भोजपुरी, भोजपुरी में भी  मल्लिका,  यद्यपि मैं स्वयं इस नाम से परिचित नहीं था। इसका ज्ञान मुझे बहुत बाद में भोजपुरी के अधिकारी विद्वान, जगन्नाथ मणि त्रिपाठी  के माध्यम से हुआ  कि  भोजपुरी    अकेली  ऐसी बोली है  जिसकी तीन उपबोलियां है -  मल्लिका,  काशिका  और  बज्जिका। 

मैं भोजपुरी इसलिए बोलता था कि भोजपुरी के प्रवाह और माधुर्य   के सामने  हिंदी   एक नकली,  भीतर से खोखली  और  व्यंजना में कमजोर,  मुहावरों लोकोक्तियां के  व्यवहार के मामले में  कृपण  और इसलिए  लड़ खड़ाती हुई  भाषा प्रतीत होती थी। भोजपुरी के क्षेत्र विस्तार के विषय में  मेरी जानकारी कम थी पर  तो भी चाहता था  कि भोजपुरी का अध्ययन विश्वविद्यालय  स्तर तक होना चाहिए,  परंतु  यह नहीं सोचा था  कि इसका मानक रूप कौन सा होना चाहिए?  

भोजपुरी क्षेत्र से बाहर निकलने पर  बोली के प्रति  यह आसक्ति तो कम होनी ही थी,  धीरे धीरे भोजपुरी के संदर्भ में दूसरी समस्याएं, जिनके विषय में क्षीण  असंतोष पहले भी था,  प्रधान होती गई,  और उसकी वे विशेषताएं जिन पर मुझे गर्व था,  केवल भोजपुरी तक सीमित नहीं थीं, वे सभी बोलियों की  विशेषताएँ हैं,  और भाषा के पिछड़ेपन का द्योतक हैं।  उदाहरण के लिए,  पिछड़ी अवस्थाओं में  विशिष्ट वस्तुओं और क्रियाओं के लिए अलग शब्द थे परंतु वे जिस वर्ग से संबंधित थीं उनके लिए कोई सामान्य  (जातिवाचक)  शब्द नहीं हुआ करता था,  यह विद्वानों का मानना है  और  मोटे तौर पर ही सही है, कारण भाषा की उन्नत अवस्था में क्रिया, गुण और संज्ञा  में अंतर करने के लिए हमें  सूक्ष्म  अर्थभेदक शब्दों की  आवश्यकता होती है,  यदि  उनके उपयुक्त  व्यंजना  नहीं होती  तो  बनावटी शब्द तैयार करने होते हैं,  जो भाषा की मूल प्रकृति से मेल नहीं खाते। जातिवाचक शब्दों का नितांत  प्राथमिक अवस्था में अभाव  पिछड़ी बोलियों की कमी है तो प्रयत्न के बाद भी  अर्थभेदक  पदों का अभाव  उन्नत भाषाओं की कमी।  उदाहरण के लिए भोजपुरी के मेल्हल, मकलाइल, भचकल, भहराइल, कोड़राइल, हुमचल, अगराइल, लइकोर के समान व्यजना के शब्द  हिंदी में नहीं मिलेंगे, इनमें से अनेक को हिंदी शब्दसंपदा का अंग बनाया गया है,   व्यंजकता के ह्रास के साथ।

जो भी हो मेरा ध्यान बाद में भोजपुरी की कमियों की ओर अधिक था और सबसे बड़ी बात है तीन उपबोलियों वाली एक विशाल क्षेत्र में  फैली होने के बाद भी  इसमें साहित्यिक अपेक्षाओं को पूरी करने वाली कोई रचना हुई नहीं, जबकि  छोटी भाषाओं में ऐसे रचनाकार हुए हैं जिनकी  कृतियों को अपनाकर हिंदी   गौरवान्वित अनुभव करती है।  यह तब और आश्चर्यजनक लगता है जब हम पाते हैं कि  ज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण  और सबसे लंबी आयु वाला  केंद्र  काशी  इसी के क्षेत्र में पड़ता है।  देश देशान्तर मे काशी वासी विद्वान दैनिक व्यवहार में भोजपुरी बोलते थे।

इसके बोलने वालों की संख्या  और क्षेत्र विस्तार  को देखते हुए इस बात पर भी हैरानी होती है सूफी कवियों में भी  किसी ने भोजपुरी को माध्यम बनाकर किसी कृति का  सृजन नहीं किया।  

पहले इसका कारण समझ में नहीं आता था।  यह समझने में समय लगा कि ठेठ  भोजपुरी में अपना व्याख्यान देने वाले लालू प्रसाद यादव श्रोताओं को  मसखरे जैसे क्यों लगते हैं?  कारण यह है  अन्य बोलियों की अपेक्षा भोजपुरी बहुत पिछड़ी हुई है।  

जिस मगध ने विशाल साम्राज्य की मौर्य काल और गुप्त काल में महान साम्राज्यों का स्थापना की, जिसे शताब्दियों तक प्रशासनिक केन्द्र काव गौरव प्राप्त रहा उसकी बोली इतनी दयनीय! इस बात पर पुनः विस्मय में होता है कि जिस क्षेत्र में  गौतम बुद्ध और  महावीर जैसे  बड़े आंदोलनकारी हुए और उन्होंने अपनी बोलियों को ही  अपने प्रचार का माध्यम बनाया वह बोली  इतनी अविकसित कैसे रह गई?    एक  ही क्षेत्र से  एक ही समय में  महावीर की भाषा  जैन प्राकृत  की जननी कैसे बनी और गौतम बुद्ध की  भाषा  पाली  में  कैसे विकसित हुई।   दोनों में इतना अंतर कैसे आया। 

इस विषय में   सुनीति  कुमार चट्टोपाध्याय का एक  मत बहुत रोचक है।  वह मानते हैं पाली और प्राकृत के रूप में हम जिन भाषाओं से परिचित हैं उनका मूल रूप क्या था इसे नहीं जाना जा सकता।  उनके अनुसार  ये दोनों भाषाएं  पहली बार  जब कौरवी क्षेत्र में,  या कहें,  शूरसेनी प्राकृत   क्षेत्र में पहुंचती हैं  तो उनका  वह साहित्यिक रूप  निश्चित होता है जिससे हम परिचित हैं।  यहां पहुंचने के बाद इन भाषाओं का अखिल भारतीय विस्तार हो जाता है, इससे पहले यह अपने क्षेत्र तक सीमित रहती हैं।

यदि हम गौर करें  हिंदी के जन्म के साथ भी ऐसी बात देखने में आती है।   भले गिलक्रिस्ट ने  हिंदी के  व्यवहारिक रूप  का निर्धारण करने के लिए लल्लू जी लाल और सदल मिश्र को , शौरसेनी क्षेत्र से आमंत्रित किया हो पर वह चल नहीं पाया।  चला वह रूप  जिसे रानी केतकी की कहानी में इंशा अल्लाह  खान ने पेश किया था,  परंतु हिंदी के निर्माण में कोरवी क्षेत्र के किसी व्यक्ति का हाथ नहीं,  इसमें पहल भोजपुरी क्षेत्र ने की थी और हिंदी के केंद्र कोलकाता,  पटना,  बनारस,  इलाहाबाद,  लखनऊ होते हुए  अंत में कौरवी क्षेत्र में पहुंचते हैं।   सुनीति बाबू को  आर्य भाषा हिंदी की इस  विकास यात्रा के सन्दर्भ में  ही पाली और प्राकृत की  याद आई थी और  इस तर्क से  हिंदी के संदर्भ में उनका  विचार था कि जो भाषा कौरवी क्षेत्र में पहुंच जाती है, उसी का अखिल भारतीय प्रसार होता है  और इस तर्क से उन्होंने हिंदी को भारत की स्वाभाविक राष्ट्रभाषा स्वीकार किया था, आपत्ति उन्हें केवल लिपि को लेकर थी।

भारोपीय  अर्थात्  संस्कृत के विषय में भी  उनको एक उलझन का सामना करना पड़ा था कि  आदि भारोपीय की कल्पित ध्वनियों में  घोष महाप्राण ध्वनियाँ  केवल पूर्वी हिंदी में क्यों पाई जाती है।  यदि आर्यों का प्रवेश पश्चिम से हुआ तो पश्चिम की बोलियों में इनका अभाव क्यों देखने में आता है?  जिस तर्क से पाली प्राकृत और हिंदी के विषय में  उद्भव क्षेत्र  और  मानकीकरण के क्षेत्र का निर्धारण  उनके द्वारा किया गया था,  उसी को पीछे ले जाकर संस्कृत अर्थात भारोपीय पर घटित करते तो  भारोपीय  और संस्कृत  के विकास के पीछे  भोजपुरी की भूमिका  साफ दिखाई देती।  परंतु  आर्य आक्रमण की मान्यता पर उनके जीवन भर का काम और श्रेय निर्भर करता था,  इसलिए  उनकी आंखों पर पर्दा पड़ गया अथवा वह इसे कहने का साहस नहीं जुटा सके।  

यह साहस  पहली बार  डॉ रामविलास शर्मा ने जुटाया  और  मैं उनके प्रमाण के बाद ही  स्वयं  इसका दावा करने का साहस जुटा सका,  जबकि   दूसरे कारणों से मैं इसका संकेत पहले भी देता आया था, परंतु दावे के साथ नहीं। संकोच यह था कि भोजपुरी भाषी होने के कारण इसे पूर्वाग्रह जन्य माना जा सकता है।

यदि कोई समझना चाहे तो समझ सकता है कि संस्कृति  और मनोरचना के भी गुण सूत्र होते हैं जो हजारों साल तक  सक्रिय रहते हैं।  भोजपुरी में कुछ विशेष नहीं था,  परंतु यह उस क्षेत्र की  और उन लोगों की भाषा थी  जिन्होंने स्थाई कृषि का आरंभ किया था।   इस गौरव के कारण  इसमें  आत्मरति इतनी प्रबल रही कि इसने  अपने पुराने भदेस  प्रयोगों को  त्यागने की जरूरत नहीं समझी। अपने व्याकरण को भी  यथासंभव  अपरिवर्तित रखा जबकि इस बीच  यह कई बोलियों के संपर्क में आई और अंत तक इसमें दूसरे परिवारों में गिनी जाने वाली  बोलियों के अँतरे बने रहे। स्तरीय साहित्य  सर्जना  के  मार्ग में  भी यह पिछड़ापन प्रधान कारण बना रहा।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

Thursday, 29 October 2020

शब्दवेध (3) भाषा और इतिहास

भाषा के पाँव नहीं होते, वह कहीं स्वयं जा नहीं सकती। जब आर्यों की जाति के भारत पर हमले की, या आर्य भाषाभाषियों के किसी रूप में भारत में प्रवेश की मान्यता का खंडन सर्वमान्य हो गया तो कुछ लोगों ने यह कहना आरंभ किया कि लोग तो नहीं आए पर भाषा आई थी। 

बोलने वालों के हिले डुले बिना भाषा कैसे आ गई? हुआ यह होगा कि भाषा ईरान तक फैल गई होगी और पूर्वी ईरान के पड़ोस के लोगों के सम्पर्क में आने वाले भारतीयों में पहुँची होगी और फिर भारत में फैल गई होगी। यह विचत्र सूझ  रोमिला जी की है।  आधार ? आधार यह कि चलो बाहर से किसी बड़े जत्थे के किसी रूप में आने के प्रमाण नहीं, पर भाषा के भारत से यूरोप तक व्याप्त होने के तो प्रमाण हैं। रहा सवाल आने का तो इसका एक ही तरीका उनकी समझ में आया जो ऊपर है, जाने की संभावना कल्पनातीत थी।  

भाषा के विषय में अगली सचाई यह कि यह संक्रामक बीमारी भी नहीं है कि अपने संपर्क में आने वालों को पकड़ ले। यदि यह संभव होता तो हजारों साल से पड़ोस की बोलियों की सीमा रेखाएँ ही बदल गई होतीं। ग्रीक और लातिन ने अपनी दूरियाँ मिटा ली होतीं। पर इस ओर उनका ध्यान नहीं गया, क्योंकि वह मानती हैं कि भाषा विशेषज्ञता के क्षेत्र में आती है और उस पर विशेषज्ञों ने अभूतपूर्व काम किया है। उनकी मान्यता का खंडन करने के लिए उतनी ही गहन विशेषज्ञता होनी चाहिए। [[मेरी पुस्तक (दि वेदिक हड़प्पन्स) के दो माह के अध्ययन के बाद उन्हें एक ही कमी नजर आई थी कि मैंने भाषाविज्ञान जैसे विशेषज्ञता के क्षेत्र में दखल क्यों दिया।  विरोधियों की प्रशंसा की भाषा यही होती है। इसका फलितार्थ यह कि अपनी जानकारी के क्षेत्र में उन्हें कोई कमी न मिली।  ठीक ऐसी ही संस्तुति आर एस शर्मा से मिली थी।  हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, (1987, प्रथम खंड) पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने कहा था, ‘और सब तो ठीक है पर तुमने मोहनजोदड़ो लिखा है, आज कल मान्यता यह है कि स्थान नाम का जो उच्चारण स्थानीय लोग करते हों वही प्रयोग में आना चाहिए और इसलिए इसे मोहेंजोदड़ो होना चाहिए।  अर्थात् प्राचीन इतिहास के ‘विश्रुत’ जिन विद्वानों की मान्यताओं का मैंने खंडन किया था उनको तलाशे भी दूसरी कोई कमी न मिल सकी। मैंने शर्मा जी आश्वासन दिया था कि अगले संस्करण में यह भूल सुधार दी जाएगी, क्योंकि उनके सम्मुख यह याद दिलाने की धृष्टता नहीं कर सकता था कि जिस दिल्ली में हम बात कर रहे हैं उसे ही दिल्ली, देहली और देल्ही लिखा जाता है। नाम का लक्ष्य नामधेय का अभिज्ञान कराना होता है और यदि यह प्रयोजन नाम ही नहीं उपनाम से भी सिद्ध हो जाता है तो वह सही है अन्यथा शुद्धता के चक्कर में पड़े तो कल को कोई इससे भी शुद्ध उच्चारण के साथ उपस्थित हो कर आपके सुझाव में भी सुधार कर सकता है। ]]

भाषा में जो भी परिवर्तन होते हैं वे सामाजिक संरचना में परिवर्तनों के परिणाम होते हैं। मनुष्य अपनी भाषा का प्रसार करने के लिए कहीं नहीं जाता। वह भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है। सामाजिक संचलन आर्थिक गतिविधियों के परिणाम हैं। इस तरह भाषा-शास्त्र का समाज-शास्त्र होता है और समाजशास्त्र का अर्थ-शास्त्र।  भाषावैज्ञानिक अध्ययन का यह एकमात्र वैज्ञानिक आधार है और जो अध्येता किसी भी कारण से इसका ज्ञान नहीं रखते या ज्ञान होते हुए भी इसका ध्यान नहीं  रखते, वे ही आक्रमण और घुसपैठ करा कर अपनी मनमानी करने को बाध्य होते हैं। सच यह है कि वे इस बात का भी ध्यान नहीं रखते कि युद्ध और आक्रमण का भी आर्थिक आधार होता है। वे इसे न समझने के कारण कुछ कबीलों को प्रकृति से ही युद्धोन्मादी, क्रूर और रक्त-पिपासु बना देते हैं।  इसी तरह यूरोपीय विद्वानों ने तैयार की थी रक्तपिपासु, दुर्दांत आर्यों की जाति जिसकी क्रूरता की कहानियों के पीछे वे अपनी क्रूरता को इंसानियत की पराकाष्ठा सिद्ध कर सकें। सचाई इससे उलट यह है कि युद्ध, रक्तपिपासा और क्रूरता का भी आर्थिक और सामाजिक आधार होता है जो प्रकृति की कृपणता जन्य दरिद्रता में अपने को जीवित रखने की विवशता से भी तैयार हो सकता है, और सब से सब कुछ छीन कर अपने पास रखने के लोभ से भी पैदा हो सकता है। 

कोलिन रेनफ्रू ने (लैंग्वेज ऐंड आर्कियालॉजी,1987) में ही पहले की सभी मान्यताओं को खारिज करके उस क्षेत्र को जिसे भारत में कृषि और स्थायी आवास के स्थलों की पहचान से पहले कृषि का उद्भव क्षेत्र माना जाता था, वहाँ से बड़े पैमाने पर जन संचलन के अभाव में भी कृषि विद्या के प्रसार के साथ( हम कहें कि आर्थिक सक्रियता के चलते) भाषा के प्रसार की बात की थी। ये ऊहापोह हड़प्पा सभ्यता के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलने, मैकाय (फर्दर एक्सकैवेशन्स ऐट मोहेंजाड़ो, खंड 2 )में आर्य भाषा के समूचे प्रसार क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता के सांस्कृतिक उपादानों के प्रसार की पुष्टि करने के बाद में हो रहे थे। मैलोरी ने भी (1989, इन सर्च ऑफ इंडो-यूरोपयन : लैंग्वेज, आर्किऑलोजी ऐंड मिथ) में रेनफ्रू का उपहास करने और यह प्रतिपादित करने के बाद भी कि लघु एशिया पर्यंत की भाषा भारतीय आर्यभाषा थी, सीधे यह स्वीकार नहीं किया कि भाषा का प्रसार यदि आर्थिक गतिविधियों के चलते हुआ था तो यह तथाकथित हड़प्पा सभ्यता की गतिविधियों के कारण और भारतीय भूभाग से हुआ था। 

यहाँ इस इतिहास को याद करने का कारण यह कि कृषि विद्या भी आबादी बढ़ने के साथ नई कृषि-भूमि की तलाश करते हुए किसी भूभाग में फैलने और बसने वालों के साथ फैलती है और उसी के साथ भाषा फैलती है और इसी प्रक्रिया से मध्य उत्तरी भोजपुरी क्षेत्र के पहाडी भाग में पहली बार स्थायी कृषि और आवास में सफल किसानों ने नीचे उतर कर क्रमशः पूरी गंगाघाटी को आबाद किया था और इसी तरह आगे वढ़ते हुए नए कार्यक्षेत्र ( कुरुक्षेत्र) और धर्मक्षेत्र (कृषिकर्म और उसके लिए भूमि का समतल, निष्कंटक बनाना ही पहले का यज्ञ और धर्म था - यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवा, तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्)  अर्थात् आपया, दृषद्वती और सरस्वती का विस्तृत क्षेत्र पा कर इसे सर्वोपरि क्षेत्र मानते हुए अपना अधिकार जमाया। इसी की याद गीता के धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे में बची रह गई है।

यह यात्रा बहुत मंद गति से, कई हजार साल के दौरान, अनेक बोली क्षेत्रों से गुजरते हुए, स्थानीय जनों में नई सोच रखने वाली आबादी को खेतिहर बनाते और अपनी समाज रचना में आत्मसात करते हुए और अपनी व्यावहारिक भाषा को नए रुप में ढालते हुए, उनकी विशिष्ट ध्वनियों और शब्दभंडार को ग्रहण करते हुए संपन्न हुई थी, परन्तु इसे सबसे लंबी अवधि तक कौरवी क्षेत्र में पूरी सक्रियता दिखाने और ग्राम्य चरण से नागर चरण तक का विकास करने का अवसर मिला, इसलिए इसका पूर्ण संस्कार यहाँ हुआ और वैदिक से लेकर संस्कृत तक के मानक रूप यहीं तय किए गए। इसी के वैदिक चरण की भाषा का व्यवहार देसी और विदेशी व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े लोग संपर्क भाषा के रूप में करते थे पर यह ऋग्वेद की साहित्यिक भाषा से उतनी ही भिन्न थी जितनी बोलचाल की भाषाएँ साहित्यिक भाषाओं से होती हैं।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

अभिनंदन को पाकिस्तान ने युद्ध की धमकी के काऱण रिहा किया था - पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री का बयान / विजय शंकर सिंह

पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख्वाजा मुहम्मद आसिफ द्वारा यह खुलासा करना कि, विंग कमांडर अभिनंदन को, भारत द्वारा युद्ध की धमकी दिए जाने के बाद छोड़ा गया था और इससे पाकिस्तान डर गया था, यह कितना सच है यह तो दोनो ही देशों के कूटनीति के विशेषज्ञ ही बता पाएंगे, पर यह सच है कि अभिनंदन की रिहाई जल्दी ही हो गई थी। पाकिस्तान की असेम्बली में जो कहा गया उस पर मीडिया में जो छपा है, उसे पढिये। मीडिया के अनुसार, 
" पाकिस्तान से असेंबली में भारत और मोदी सरकार के खौफ का ताजा सबूत सामने आया है। भारत के फायटर प्लेन पायलट अभिनंदन को लेकर पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख्वाजा मुहम्मद आसिफ ने कहा कि अभिनंदन को पाकिस्तान ने भारत के खौफ में, भारत को खुश करने के लिए छोड़ा था।  पाकिस्तान असेंबली के पूर्व स्पीकर सरदार अयाज सादिक ने भी कहा कि उस वक्त पाकिस्तान के आर्मी चीफ बाजवा के पैर कांप रहे थे और चेहरे पर पसीना था कि कहीं भारत अटैक न कर दे।" 

अब यह हमारी धमकी का प्रतिफल था या अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव यह तो तभी पता चलेगा जब इस घटना से जुड़ा कोई अफसर या किरदार अपनी आत्मकथा लिखेगा और उसमे इस घटना का उल्लेख होगा। लेकिन असेम्बली किया गया यह खुलासा नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है और न इसे नजरअंदाज किया जाना चाहिए। अभिनंदन को, पाकिस्तान द्वारा, जल्दी छोड़ दिया जाना, भारत सरकार की एक कूटनीतिक उपलब्धि ज़रूर है। इसकी सराहना की जानी चाहिये। जब अभिनंदन को रिहा किये जाने के रहस्य पर बात होगी तो बालाकोट और अभिनन्दन के पकड़े जाने की पृष्ठभूमि की चर्चा भी होगी। क्योंकि यह सारी घटनाएं एक दूसरे से जुड़ी हैं। 

पूरा घटनाक्रम इस प्रकार है। साल 2019, तारीख़ 14 फ़रवरी. जम्मू और कश्मीर के पुलवामा के पास एक ज़ोरदार विस्फोट होता है और इसकी चपेट में आ जाता है केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के 78 वाहनों का क़ाफ़िला। इस विस्फोट से 40 जवानों की घटनास्थल पर मौत हो जाती है और पूरे देश में दुःख और आक्रोश की लहर दौड़ जाती है। यह सब कुछ आम चुनावों से ठीक पहले होता है और घटना को लेकर राजनीति भी गरमा जाती है। दो सप्ताह के बाद यानी 26 फ़रवरी को, भारत ने दावा किया कि भारतीय वायु सेना के मिराज-2000 विमान ने रात के अंधेरे में नियंत्रण रेखा को पार करके पाकिस्तान के पूर्वोत्तर इलाक़े, खैबर पख़्तूनख़्वाह के शहर बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद नामक आतंकवादी संगठन के 'प्रशिक्षण शिविरों' के ठिकानों पर सिलसिलेवार 'सर्जिकल स्ट्राइक' किया है। अगले दिन पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई होती है। भारतीय वायुसेना के मिग-21 ने पाकिस्तानी वायुसेना के एक एफ़-16 को मार गिराया. बाद में पाकिस्तान ने भी मिग-21 को मार गिराया और विंग कमांडर अभिनंदन को गिरफ़्तार कर दो दिनों के बाद रिहा कर दिया। 

पाकिस्तान यह स्वीकार करे या न करे पर यह कोई रहस्य नहीं है कि, 14 फरवरी 2019 को हुये पुलवामा हमले में उसका हांथ था। यह सन्देह तब भी था, जब यह घटना घटी थी। पाकिस्तान द्वारा भारत मे आतंकवाद फैलाने की साज़िश आज से नही बल्कि अक्टूबर 1947 से लगातार हो रही है। यह अलग बात है कि 1947 के बाद जब जम्मूकश्मीर का विलय भारतीय संघ में हो गया तो, तब से लेकर 1990 तक कश्मीर में कोई सुनियोजित आतंकी घुसपैठ की घटना नही हुयी। हालांकि, छिटपुट घुसपैठ तो बराबर होती रही। सन 1990 के समय हुयी व्यापक घुसपैठ और कश्मीर के पंडितों के पलायन के पहले, 1965 और 1971 में, भारत पाक के बीच दो युद्ध हो चुके थे, जिनमे1965 में पाकिस्तान हारा था और 1971 में तो वह टूट ही गया था । एक नया देश बना बांग्लादेश जो अब दक्षिण एशिया का सबसे तेजी से विकसित होने वाले देशों में से शुमार हो रहा है। 

पुलवामा ही नही, पठानकोट एयरबेस पर हुआ आतंकी हमला, उसके पहले, 26/11 2008 का मुम्बई हमला, और अगर 1993 के मुम्बई विस्फोटों की बात करें तो वह सीरियल विस्फोटों की तब तक की सबसे बड़ी घटना, न केवल पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित थी, बल्कि वह पाकिस्तान द्वारा वित्तपोषित भी थी। पाकिस्तान एक अविश्सनीय मित्र देश है यह अलग बात है कि वह लिखा पढ़ी में हमारा मोस्ट फेवर्ड नेशन भी है। पाकिस्तान की योजना न केवल देश मे आतंकी कार्यवाहियों को अंजाम देना है, बल्कि उसकी योजना देश के अंदर के सामाजिक तानेबाने को भी छिन्नभिन्न कर कर साम्प्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा देना भी है। भारत के सेक्युलर चरित्र से पाकिस्तान सदैव असहज रहता है और यह प्रवित्त आज से नहीं बल्कि आज़ादी के पहले से ही जब एमए जिन्ना पाकिस्तान की मांग पर बजिद थे, तब से है। 

अगर विभाजन के इतिहास का अध्ययन करें तो यह दिलचस्प तथ्य मिलेगा कि, जब जब कांग्रेस की तरफ से कांग्रेस अध्यक्ष या प्रतिनिधि के रूप में मौलाना आज़ाद, किसी बातचीत में शामिल होने गए हैं, तब तब जिन्ना ने न केवल खुद को असहज महसूस किया बल्कि उन्होंने  कांग्रेस को एक हिंदू दल के रूप में संबोधित किया और मौलाना आजाद की उपस्थिति पर आपत्ति जताई। मौलाना आज़ाद, मौलाना हसरत मोहानी और खान अब्दुल गफ्फार खान यह तीनों शीर्षस्थ कांग्रेसी नेता, एमए जिन्ना को कभी रास नहीं आये। जब धर्मान्धता की अफीम का नशा चढ़ता है तो एमए जिन्ना जैसा एक सेक्युलर और आधुनिक विचारधारा का नॉन प्रैक्टिसिंग मुस्लिम व्यक्ति भी धर्मांध हो जाता है। राजनीतिक स्वार्थ जो भी न करावे वह थोड़ा है। 

पुलवामा हमले में 40 सीआरपीएफ के जवान शहीद हुए थे। पूरी कन्वॉय में आरडीएक्स से लदी एक कार कन्वॉय के बीच मे चल रही एक बस से टकरा जाती है और उस बस में सवार सभी जवान मारे जाते हैं। यह घटना बेहद दुःखद और आक्रोशित करने वाली थी। फिर उसके बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक होती है, और फिर विंग कमांडर अभिनंदन का जहाज पाकिस्तान की एरिया में गिर जाता है और वह पाकिस्तान में गिरफ्तार होते हैं जिन्हें बाद में कूटनीतिक प्रयासों से मुक्त कराया जाता है। अब यह भी कहा जा रहा है कि भारत ने अभिनंदन को न रिहा करने पर हमला करने की धमकी दी थी। यह बात सच हो सकती है और इस पर अनावश्यक रूप से संशय नहीं करना चाहिए। 

लेकिन, बालाकोट एयर स्ट्राइक और अभिनंदन को मुक्त करा लेना कोई ऐसी आपवादिक रणनीतिक उपलब्धि नही है कि उस पर हम अपनी पीठ ठोंके। बल्कि यह पुलवामा हमले की प्रतिक्रिया या बदला भी कहना चाहें तो इसे कहा जा सकता है, था। पर बालाकोट और अभिनंदन मुक्ति अभियान की ज़रूरत क्यों पड़ी? जब इस पर सोचा जाएगा तो यही बात सामने आएगी कि क्योंकि हम पुलवामा हमले में अपने 40 जवान खो चुके थे, देशव्यापी आक्रोश था तो जवाबी कार्यवाही हमे करनी ही थी, और हमने की और उसका असर भी हुआ। यह निर्णय ज़रूरी भी था। 

एक सवाल आज तक अनुत्तरित है कि पुलवामा हमले में हमारी वे कौन सी रणनीतिक  भूलें थीं जिनके कारण हमारे 40 जवान मारे गए ? क्या सरकार ने इस घटना की जांच कराई कि किस अफसर का इस पुलिस बल के मूवमेंट में क्या भूमिका थी ? आरडीएक्स कहाँ से आया और किसने इसे प्लांट किया ? कन्वॉय के मूवमेंट के दौरान सड़क सुरक्षा की गयी थी या उसमे कोई चूक थी ?  आतंकी गतिविधियों से भरे पड़े उस क्षेत्र से इतनी लंबी यात्रा क्यों हमने सड़क मार्ग से करने की सोची ? बल का यही मूवमेंट हवाई जहाज से क्यों नही कराया गया ? खबर यह भी थी कि सीआरपीएफ ने हवाई जहाज से मूवमेंट कराने की अनुमति मांगी थी, पर उसे बजट की कमी बता कर टाल दिया गया। सरकार के पास जब भी पुलिस फोर्स के लिये धन मांगा जाता है तो अक्सर अर्थाभाव हो भी जाता है। फिर तो बस या ट्रक में जैसे भी हो लंगे फंदे पहुंचना ही था तो कन्वॉय रवाना हुआ। अगर इलाक़ा सामान्य है तब तो कोई बात नहीं, फोर्स का मूवमेंट ऐसे ही होता ही है। लेकिन जम्मूकश्मीर जैसे संवेदनशील इलाके में पुलिस बल को वह भी मय लवाजमे के इस प्रकार भेजना, निरापद तो बिलकुल नहीं था। 

पुलवामा का हमला, चाहे इसकी योजना सीमापार पाकिस्तान में किसी जगह पर बनी हो, या घाटी के अंदर बैठे आतंकी संगठन के नेताओ के घर इसकी साज़िश हुयी हो, यह घटना, खुफिया एजेंसियों की जबरदस्त विफलता का प्रमाण है। खुफिया एजेंसियों का काम ही है कि वे किसी भी घटना के बारे में अग्रिम अभिसूचना पहले से दे दें और एक्जीक्यूटिव विभाग का दायित्व है कि वे उन अभिसूचना पर जो भी निरोधात्मक कार्यवाही कर सकते हैं करें। शहादत एक सर्वोच्च बलिदान है। पर इस सर्वोच्च बलिदान की नौबत न ही आये तो ही रणनीतिक सफलता मानी जाती है। 40 शवो के साथ लास्ट पोस्ट की धुन, शव पर चढ़े हुए पुष्पगुच्छ और पुष्पचक्र जिसे अंग्रेजी में रीथ कहते हैं, गर्व का भान तो कराते हैं, पर यह सब बेहद हृदयविदारक है और हर बल के ऑपरेशन में यह ज़रूर देखा जाता है कि कम से कम जनहानि हो। अतः यह स्वीकार किया जाना चाहिये कि, जिस प्रकार से पुलवामा हादसा हुआ है वह एक घोर प्रशासनिक और इंटेलिजेंस एजेंसियों की प्रोफेशनल नाकामी का परिणाम था । 

हमारी सैन्य और पुलिस की कार्यशैली में, यह पहली खुफिया विफलता नहीं है। बल्कि अब तक की सबसे बड़ी खुफिया विफलता करगिल की सबसे बड़ी और संगठित घुसपैठ रही है, जिंसमे पाकिस्तान के घुसपैठिये आ कर टाइगर हिल तक पर कब्ज़ा कर लिए और श्रीनगर लेह राजमार्ग वे काटने ही जा रहे थे। करगिल युद्ध लगभग 60 दिनों तक चला और 26 जुलाई को उसका अंत हुआ। कारगिल युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के करीब तीन हजार सैनिकों को मार गिराया था। पाकिस्तानी घुसपैठियों के खिलाफ सेना की ओर से की गई कार्रवाई में भारतीय सेना के 527 जवान शहीद हुए तो करीब 1363 घायल हुए थे। करगिल कोई युद्ध नही था, बल्कि घुसपैठियों को अपनी भूमि से निकालने का एक बड़ा ऑपरेशन था। सरकार ने इसे युद्ध घोषित भी नहीं किया था। हमारी सेना ने लाइन ऑफ कंट्रोल यानी एलओसी पार नहीं की थी औऱ यह भी एक कारण था जिससे हमारे जवान अधिक संख्या में शहीद हुए। 

पुलवामा में जो खुफिया विफलता हुयी उसके लिये सरकार द्वारा जिम्मेदारी तय कर के दोषी लोगों के खिलाफ कार्यवाही की जानी चाहिए थी। हो सकता है ऐसा हुआ भी हो। पर कोई सन्दर्भ अभी तक नहीं मिला है। बालाकोट और अभिनंदन की मुक्ति अगर एक उपलब्धि है तो पुलवामा हमला एक गम्भीर सुरक्षा चूक और शर्मनाक विफलता भी है जहां 40 जवान बस में बैठे बैठे एक विस्फोट में उड़ा दिए गये। उपलब्धि की अगर सराहना की जाती है तो इस गम्भीर चूक की जिम्मेदारी भी उनको लेनी होगी जो यह सराहना स्वीकार कर रहे हैं। 

इस प्रकार के आतंकवाद निरोधक सैन्य या पुलिस ऑपरेशन में जनहानि होती है औऱ इसे प्रोफेशनल हेजार्ड कहते हैं पर ऐसे ऑपरेशन का नेतृत्व करने वाले अधिकारी यह उपाय भी मुकम्मल तरह से करते हैं, जिससे कम से कम जनहानि हो। पाकिस्तान लम्बे समय से आतंकियों की घुसपैठ हमारे यहां करा रहा है और यह घुसपैठ रुकने वाली भी नहीं है। इसके लिये हमें खुफिया तंत्र को मज़बूत तो करना ही होगा साथ ही विभिन्न खुफिया एजेंसियों, आईबी, रॉ, राज्य सरकार की स्पेशल ब्रांच, और मिलिट्री इंटेलिजेंस में एक उचित समन्वय भी बनाना होगा। डोकलां और हाल ही की हुयी गलवां घाटी की घटना भी इस क्रम में जोड़ कर देखी जा सकती हैं। जिस पाकिस्तान को अब तक भारत सभी युद्धों में बुरी तरह पराजित कर चुका हो, वह अगर हमारी युद्ध की धमकी से थर थर कांपने लगें और डर कर विंग कमांडर अभिनन्दन को मुक्त कर दे तो यह हमारे लिये बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि उसी पाकिस्तान के एक मेजर जनरल एके नियाजी ने 90 हज़ार सैनिकों के साथ हमारी सेना के आगे बेल्ट और टोपी उतार कर आत्मसमर्पण किया था, जो विश्व के सैन्य इतिहास में एक अत्यंत गौरवपूर्ण विजय मानी जाती है। पाकिस्तान एक विफल राष्ट्र है उससे भारत की कोई तुलना, कम से कम सैन्य संसाधन के क्षेत्र में नहीं ही की जा सकती है और न ही की जानी चाहिये। 

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 28 October 2020

शब्दवेध (2) बोली वचनं प्रमाणम्

मुझे पता है मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं उसकी जानकारी रखने वाले जिन पुस्तकों को पढ़कर  ज्ञानी बनते हैं,  उन पर  मैं भरोसा नहीं करता,  परंतु उनकी सहायता लेता हूं।  मैं  भाषा की  जिन समस्याओं  को हल करना चाहता हूं,  उनके विषय में जो जानकारी  किताबों में उपलब्ध है  वह सतही है।  वह ज्ञान  आरंभ से गलत इरादों से,  गलत  मान्यताओं से,  अलग तरीके अपनाकर,  उन तरीकों को वैध बनाने के लिए ज्ञान,  भाषा विज्ञान और कोश-निर्माण के जो भी काम हुए,  वे  उल्टे हुए, यह बात उन विद्वानों को भी  पता थी, जो उन गलतियों पर  पर्दा डालने के लिए, विज्ञान के नाम पर, सिद्धांत गढ़ रहे थे  और  रही सही कमी  संस्कृत-धातुओं से प्रेरित हो कर भारोपीय आद्य-रूपों की कल्पना करते हुए  कोश निर्माण कर रहे थे  और उनको प्रमाण मानकर  नई बेवकूफियां कर रहे थे।   इसलिए  विद्वानों से मेरा विरोध मुझे आश्वस्त करता है कि जिसे  वे  गलत मानते थे  परंतु गलत सिद्ध करने का साहस नहीं जुटा पाते थे,  उसे गलत सिद्ध करने का तरीका क्या हो सकता है  इसकी ओर हमने ध्यान दिया है।   हमारे  लिए  विद्वानों और कोशग्रंथों का कार्यसाधक उपयोग तो है पर निर्णायक महत्त्व नहीं  है।  उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि जिन आँकड़ों का संकलन हमारे बस की बात नहीं, वे, वहां, उनके अथक श्रम के कारण, हमें एकत्र मिल जाते हैं।

सोचने का उनका तरीका वैज्ञानिक नहीं था, इसे  गलत सिरे से  तुलनात्मक  भाषाविज्ञान का अध्ययन करने वालों ने आरंभ से अंत तक स्वीकार किया। विलियम जोंस ने इस तर्क का सहारा लेते हुए कि संस्कृत भारत के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं है, इसे केवल ब्राह्मण बोलते हैं, इसलिए ब्राह्मण अपनी भाषा लिए दिए किसी ऐसे क्षेत्र से आए हो सकते हैं जहाँ यह भाषा बोली जाती थी। इस क्षेत्र का निर्धारण उन्होंने बोली के आधार पर नहीं केन्द्रीयता के आधार पर किया। वहाँ वह बोली तो मिली नहीं, जो भाषा मिली उसका संस्कृत से वही संबंध था जो भारत की प्राकृतों का।  सार रूप में वह मानते रहे  कि इतनी उन्नत भाषा का आरंभ किसी बोली से होना चाहिए, उसी का क्रमिक  विकास एक शिष्ट (शिक्षितों की) भाषा में हो सकता है और अपनी इस तलाश में वह नोआ की संतानों की भाषा पर पहुँच कर हाथ खड़े कर दिए कि यहाँ वह बोली मिल ही न सकी।  

कुछ दूसरे उस बोली की तलाश यूरोप में करने के लिए प्रयत्नशील भी रहे,  इलीरियन (पश्चिमी फ्रीजियन) से इतालवी की कुछ समानताएँ भी लक्ष्य कीं, इसे चलाने का प्रयत्न भी किया पर यह लंगड़ा सिद्ध हुआ और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि रोमन्स भाषाओं की जननी तो वह निश्चित रूप से है पर भारोपीय की जननी इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता, इसलिए अपनी पुरानी जिद पर कायम रहते हुए मूल बोली के क्षेत्र को अज्ञात मान कर लघु एशिया से हित्ती के (हत्तूसा, बोगाजकुई से प्राप्त) पुरातात्विक अभिलेखों में वैदिक समाज, भाषा और विश्वास की निकटता को लक्ष्य करके इसे वैदिक से भी पुरानी सिद्ध करने को तत्पर रहे। हमें उनके नस्लवादी पाठ पर बहस नहीं करनी, याद इस बात की दिलानी है कि वहाँ भी वैदिक साहित्य वैदिक भाषा से पीछे नहीं जा सके, बोली तक नहीं पहुंच सके, क्योंकि वह बोली भारत से बाहर कहीं थी नहीं और भारत में उसकी खोज करने के लिए तैयार नहीं थे। 

इसलिए  जहाँ  हमें  पंडितों द्वारा तैयार किए गए  सिद्धांत,  विज्ञान,  और कोश ग्रंथों पर पूरा भरोसा नहीं है, वहीं जो व्याख्यायें हम देते हैं,  वे तर्कसंगति और  हेतुवाद पर आधारित है,  पर अनेक स्थितियों में एक ही नाद कई स्रोतों से उत्पन्न हो सकता है और उसका अनुनाद उन उन स्रोतों, क्रियाओं, गुणों और उस नाद की आवृत्ति (क्रिया विशेषण) के लिए हो सकती है। ऐसी  स्थिति में विचार प्रवाह में इनमें विभेद करने में   अपनी सतर्कता के बाद भी हमसे चूक हो सकती है, परन्तु अब समस्या शास्त्रीय न रह कर मोटी समझ की, बोलचाल के प्रयोगों की हो जाती है, इसलिए   इसमें अधिकारी बदल जाते हैं।   भाषा वैज्ञानिक अवैज्ञानिक सिद्ध होते हैं, तो  कम पढ़े-लिखे लोग,  अशिक्षित लोग और उनमें भी महिलाएं  अधिक भरोसे के हो जाते हैं।  कहें, अल्पशिक्षित या अशिक्षित  व्यक्ति सिखाए हुए ज्ञान के तुलनात्मक अभाव में बोली के अविकृत रूप और व्यंजना से अधिक  परिचित होता है। कुछ प्राचीन प्रयोग जो उसी समाज के उसी स्तर के पुरुषों की बोली से उठ चुके हैं वे महिलाओं की बोली में, लोकगीतों और संस्कार गीतों में, मुहावरों/लोकोक्तियों में, लोरियों और क्रीड़ा में  बने रहते हैं।  इसलिए किताबी भाषाविज्ञानी जहाँ इस संवाद में कोई योगदान नहीं कर सकते, वहाँ बोलियों की समझ रखने वाले अधिक उपयोगी हो जाते हैं। वे  ऐसे समीकरणों पर जिनका अधिक स्वाभाविक वैकल्पिक रूप उनकी जानकारी में  हो,  सुझाव दे कर या यह जता कर ही कि यहाँ अधिक खींचतान से काम लिया गया है, या यह गले नहीं उतरता, उस पर पुनर्विचार में सहायक हो सकते हैं। परन्तु संस्कृत के आचार्यों द्वारा तैयार किए गए धातुपाठ की याद दिलाना हमारे काम का नहीं, यद्यपि पहुँचते हम भी धातुरूपों - वे मूल नाद  जिनमें भाषा के विविध पदों का बीजरूप उपलब्ध हो- पर ही हैं। 

संस्कृत से बचते हुए चलना इसलिए भी जरूरी है कि पाश्चात्य भटकाव संस्कृत को ही प्रमाण मानने के कारण आरंभ हुए, जिनसे बाहर निकलने का रास्ता भाषाशास्त्री आज तक नहीं तलाश सके।  वह बोली जिसका क्रमिक विकास संस्कृत में हुआ, वह अन्यत्र न पाई जा सकती है न खींचतान कर गढ़ी जा सकती है। जो दबंगई संस्कृत भाषा के विषय में दिखाते हुए यूरोपीय वर्चस्व की स्थापना की गई वह उस बोली के साथ, उसे बोलने वालों के साथ नहीं की जा सकती थी।
( क्रमशः ) 

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh ) 


शब्दवेध (1) भाषा पर विचार की चुनौतियां

मेरे सामने भाषा पर विचार की दो चुनौतियाँ हैं। एक  भाषा की मूल बोली के संस्कृत (भारोपीय) तक की विकास रेखा की पड़ताल है  और दूसरी जो इस पर प्रकाश डालने में भी सहायक है,  भाषा की,  या कम से कम उस भाषा की उत्पत्ति की समस्या, जिससे तथाकथित भारोपीय के बहुनिष्ठ या सर्वनिष्ठ शब्दों   की उत्पत्ति का भौगोलिक और भाषाई परिवेश समझ में आता  है। पिछले 50 वर्षों के ऊहापोह के  बाद दोनों के विषय में  मेरे  स्पष्ट विचार हैं।  भाषा की उत्पत्ति नैसर्गिक  ध्वनियों की नकल से  हुई,  और वह बोली  जिसका विकास भारोपीय भाषाओं में हुआ उसका आदिम रूप भोजपुरी क्षेत्र में  प्रचलित था।  प्रश्न समस्या को  सुलझाने का नहीं है। यह काम मैं पहले  इसी  पन्ने पर कर चुका हूं।  चुनौती  साक्ष्यों की यथेष्टता का और उनके औचित्य का है ।

[शब्द]
सबसे पहले हम  शब्द को ही लें।  यदि  यह शब्द  आद्य भोजपुरी (आद्य भारोपीय) में विद्यमान था  तो  उसमें  दंत्य  ध्वनि तो थी,  तालव्य का विकास कुछ बाद में हुआ, यह यूरोपीय  नजर से समस्या को देखने वालों का विचार है।   इसमें  आधी सचाई है  और आधा फरेब।  सचाई यह कि मूल बोली में  तालव्य ध्वनि नहीं थी, फरेब यह कि उच्चारण स्थान बदलने से दन्त्य का विकास तालव्य में हुआ।  

यह  गलती  भाषा विज्ञान में नस्लवादी सोच के प्रभाव का परिणाम है जिसमें  नस्ल की शुद्धता के लिए  किसी दूसरे समुदाय से मेलजोल की संभावना न थी।  नस्लवादी सोच  हमारे देश में भी  रही है, अन्यथा वर्णसंकरता की  भर्त्सना  न की जाती। पर हमारा  सामाजिक यथार्थ  इसका खंडन करता है। उसमें  अपने गोत्र में  विवाह  संबंध  को वर्जित माना जाता है, यहां तक कि   अनुलोम  विवाह की अनुमति रही है।   

वर्णसंकरता की अवधारणा मातृप्रधान समाज के  पुरुषप्रधान समाज में बदलने का परिणाम है और यही विलोम विवाह के निषेध का भी कारण है।  हम इसके इतिहास में   नहीं जाएगे।   यह उल्लेख  केवल यह बताने के लिए कि हमारी भाषा से लेकर समाज रचना तक से सामाजिक अंतर्मिलन की पुष्टि होती है और इसलिए हम इस विषय में अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपना सकते हैं कि जिस समुदाय ने आद्य  भारोपीय  बोली जाती थी उसमें  तालव्य ‘श’ नहीं था,  केवल दंत्य ‘स’ था।  ऐसी दशा में  मूल  शब्द में ‘श’ नहीं  ‘स’ रहा होगा।

भोजपुरी की  एक अन्य विशेषता स्वर प्रधानता की है इसलिए  इसमें  एक ही ध्वनि का द्वित्त तो हो सकता है,  परंतु   असवर्ण-संयोग   इसकी प्रकृति  के अनुरूप नहीं है।  इस सीमा के कारण   मूल  उच्चारण सबद रहा  होगा ऐसा लग सकता है परन्तु हमें सही मूल उच्चारण के लिए उस मूल ध्वनि को समझना होगा जिससे इसका जन्म हुआ।  

यह ध्वनि पैदा कैसे हुई?  वह आशय इससे कैसे जुड़ा जिसमें इसका  प्रयोग होता है?  ‘शब्द’ का अर्थ क्या है? जिस मूल ध्वनि से  यह शब्द बना  उसका  क्या दूसरे किसी आशय में भी  प्रयोग  हुआ हो सकता है?  उनकी व्याप्ति कहां तक है? ऐसे अनेक प्रश्न है जिनका उत्तर दिए बिना हम अपनी मूल स्थापना का औचित्य सिद्ध नहीं कर सकते। 

मूल ध्वनि  होठों के झटके   के  साथ  अलग होने  से   अर्थात  होठ चलाने से उत्पन्न ध्वनि ‘सप्’ है। इसका प्रयोग उन सभी क्रियाओं और कार्यों और विशेषताओं  के लिए हो सकता था, जिनमें  ओठ  का चलना  अनिवार्य है।   यहां  हम पाते हैं कि मूल रूप सपद होना चाहिए,  जिसमें ‘द’ प्रत्य'य है। 

इस  प्रत्यय के निकटवर्ती  ध्वनि के प्रभाव से 'त', 'द'  और 'थ' तीन रूप हो जाते हैं। इस नियम से  सपद का भी पूर्वरूप 'सपत' होना चाहिए।  यह तकार सप् के शप् हो जाने के बाद ही बना रहा,  और इसे  हम शप्  और शाप (शपति/ शपते) में पाते हैं।  

इससे रोचक है  अघोष ध्वनियों का सानिध्य, जो शप-थ  में देखने में आता है। जिसे संस्कृत के विद्वान  वर्ण-साम्य  (सावर्ण्य) कहते हैं, वह अघोष का अघोष और सघोष का सघोष से साम्य हुआ। सप के शप बनने तक कोई समस्या नहीं, पर प के घोष ‘ब’ होने पर ‘त’ भी वर्णसाम्य के नियम के घोष ‘ब’ हो जाता है। बाँगड़ू प्रभाव से ‘ब’ का स्वर लोप हो जाता है और इस तरह मूल ‘सपत’ संस्कृत का शब्द बनता है।  

हम जिस नतीजे पर पहुँचते हैं वह यह कि (1) सबद शब्द का अपभंश नहीं, शब्द सपत का संस्करण है।
2. सबद संस्कृत शब्द के प्रभाव में सपत का नवीकरण हो सकता है, परंतु अर्थभेद के लिए आदिम बोली में सबद रूप अस्तित्व में आ चुका था।
3. सामान्य कथन के अतिरिक्त क्रोध या भर्त्सना और निश्चयात्मक कथन सपत/साप > शपते/शाप और ‘शपथ’ की व्युत्पत्ति भी इसी मूल से है।

परंतु ओठ की सक्रियता केवल बोलने के ही जुड़ी नहीं है। खाते पीते समय भी होठ से ध्वनि निकलती है और भो- सपोड़ना, त. साप्पाडु, अं. सपर/ सूप, और सं. सूप और सूपकार का मूल (धातु रूप) सप् ही हुआ।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

फरीदाबाद का निकिता हत्याकांड / विजय शंकर सिंह

हरियाणा के फरीदाबाद की घटना बेहद दुःखद औऱ आक्रोशित करने वाली है। हालांकि सरकार का कहना है कि पुलिस ने मुलजिम गिरफ्तार कर लिए हैं पर इस प्रकार सड़क पर हुयी इस घटना ने कानून और पुलिस, दोनो के ही इकबाल के खोखलेपन को उजागर कर दिया है।यह घटना चाहे प्रेम प्रसंग से जुड़ी हो, या इकतरफा प्रेम, जो समाज की एक बहुत बड़ी गलतफहमी बन चुकी है, की कुंठा का परिणाम हो, बेहद निंदनीय और शर्मनाक है। ऐसी घटनाये पहले भी घट चुकी हैं और आगे भी होती रहेंगी। पर इन्हें रोका कैसे जाय, यह आज के पुलिसिंग की सबसे बड़ी चुनौती है। पर इस चुनौती को केवल, पुलिस और कानून के भरोसे छोड़ कर निश्चिंत भाव से नहीं बैठा जा सकता है। समाज को भी इस व्याधि के निपटने के लिये सक्रिय होना होगा।

अक्सर हम यह समझते हैं कि, किसी भी जुर्म की सज़ा बढ़ा देने से उक्त अपराध में कमी आ जाएगी, पर ऐसा होता नहीं है। फांसी फांसी दो की उन्मादी सज़ा बढ़ाने की मांग अपनी जगह उचित हो सकती है, पर किसी भी सज़ा का भय आपराधिक तत्वो में कितना है, यह हम सब अपने सामने रोज ही देख रहे हैं। यदि फांसी की सज़ा से अपराध रूकते तो हत्या बंद या कम हों जानी चाहिए थी, क्योंकि उसमें फांसी की सज़ा का प्राविधान तो बहुत पहले से ही है।

इसी घटना की यदि, एक अपराध के दृष्टिकोण से समीक्षा करें तो पुलिस ने, मुकदमा दर्ज कर अपना विधिक काम कर दिया है। उसने मुलजिम पकड़ लिये हैं। उन्हें जेल भी भेज ही दिया जाएगा और बाद में आरोपपत्र भी अदालत जाएगा ही। हो सकता है अदालत से उन मुल्जिमान को सजा भी मिल जाय। सज़ा भी हो सकता है, इसे रेयर ऑफ द रेयरेस्ट अपराध मानते हुए फांसी की ही सज़ा मिल जाय। फिर यह केस फाइल बंद हो जाएगी। पर इस घटना से समाज की जो विकृति सामने आयी है क्या वह अंतिम है। उत्तर है, जी नहीं। समस्या की जड़ उसी दूषित मनोवृत्ति में है जो महिलाओं से बलात्कार और फिर उनकी हत्या करवाती है। उससे कैसे निपटा जाय यह सबसे महत्वपूर्ण सवाल है जिसका हल, अकेले पुलिस और सरकार के पास नहीं है।

निर्भया से जुड़ी घटना हो या हाथरस के गुड़िया की, या हैदराबाद के एक महिला डॉक्टर से गैंग रेप की या अब फरीदाबाद की यह घटना, इन सब मे जो हिंसा का बर्बर अतिरेक है यह अपराधी के किस मनोदशा का दुष्परिणाम है इस पर अपराधशास्त्रियों को सोचना होगा, और समाज विशेषकर माता पिता और घर परिवार के लोगों को भी इस जटिल समस्या से जुझना होगा।

अगर आप यह सोच रहे हैं कि केवल  पुलिस के बल पर ही ऐसे अपराध रोके जा सकते हैं तो यह एक बहुत बड़ी गलतफहमी है। अपराध के बाद अपराधी का पता न लगना और उनकी गिरफ्तारी का न होना, यह पुलिस की कमी हो सकती है, पर महिलाओं से जुड़े ऐसे अपराध का पहले ही थाना पुलिस के संज्ञान में आ जाना, यह बेहद कठिन और लगभग असंभव तथ्य है।

अब इसी अपराध का उदाहरण लीजिए, जिसके बारे में यह तथ्य सामने आ रहे हैं कि घटना की पृष्ठभूमि, प्रेम प्रसंग या अंतर्धार्मिक प्रेम प्रसंग से जुड़ी हुयी है। भारतीय परंपरागत समाज मे वैसे भी प्रेम प्रसंग, अब भी एक टैबू या वर्जित फल की तरह समझा जाता है, और अगर ऊपर से वह प्रेम संबंध, अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक है, तब तो इनसे जुड़ा कोई भी प्रकरण बेहद संवेदनशील हो जाता है। जैसी खबरें आ रही हैं यह मामला अंतर्धार्मिक प्रेम प्रसंग का है। यह लम्बे समय से चल भी रहा था। पहले भी मुकदमा दर्ज हुआ पर बाद में निकिता के परिवार द्वारा समझौता कर लिया गया। उसी की इसकी दुःखद और हिंसक परिणति कल निकिता की जघन्य हत्या के रूप में हो गयी। क्या यहां परिवार और समाज को, जब यह सब मसला चल रहा था, तभी सतर्क नहीं हो जाना चाहिए था ?

जिस गतिविधि की जानकारी घर परिवार को नही है और अगर है भी, तो वे भी इसे पोशीदा रखे हों, और फिर पुलिस से यह उम्मीद की जाय कि पुलिस को इन सबकी जानकारी रहे तो, पुलिस से हम सबकी यह अपेक्षा अनुचित ही होगी। लेकिन अगर ऐसी कोई सूचना पहले से ही पुलिस को किसी छेड़छाड़ या बदतमीजी के रूप में है और उसे पुलिस ने गंभीरता से नहीं लिया और उस पर तब कोई प्रभावी कार्यवाही पुलिस द्वारा नहीं की गयी है तो यह पुलिस की कमी  है, जिसकी जांच की जानी चाहिए।

अंतर्धार्मिक प्रेम प्रसंग औऱ धर्म परिवर्तन का जो एंगल इस मामले में आ रहा है, वह इस जघन्य कांड में, अपराध का एक महत्वपूर्ण मोटिव हो सकता है। निश्चित रूप से यह मोटिव घर परिवार की जानकारी में तो रहा होगा, पर पुलिस को इन सबकी कितनी भनक थी, यह मैं नहीं बता पाऊंगा। फिलहाल तो ऐसे अपराधियों के खिलाफ जो भी कड़ी से कड़ी कानूनी कार्यवाही करनी है वह की जानी चाहिए और वह होगी भी। आगे ऐसी ही घटनायें न हों इसके लिये हमें अपने घर, परिवार, आसपास और समाज को भी एक सजग दृष्टि से देखते रखना होगा।

इसी से जुड़ी दिनेशराय द्विवेदी जो एक वरिष्ठ एडवोकेट हैं की निम्नलिखित  टिप्पणी भी पढ़ी जानी चाहिए,

इस घटना के बारे मे कहा जा रहा है कि, कुछ समय पहले इसी मामले में धारा 365 आईपीसी का मुकदमा दर्ज हुआ था। यही लड़की जिसकी हत्या हुई है बरामद कर परिवार को सौंप दी गयी थी। फिर परिवार के कहने पर कि वे मामला चलाना नहीं चाहते मुकदमा बन्द कर दिया गया, कोई चालान नहीं किया गया।'

अगर धारा 365 आईपीसी में एफआईआर दर्ज है और यदि इस धारा में आरोपपत्र अदालत में पेश किया गया होता तो अदालत तक को यह अधिकार नहीं था कि उसमें किसी भी तरह से राजीनामा स्वीकार करके मुकदमा खत्म कर देती। फिर यह सवाल उठता है कि, पुलिस ने परिवार के कहने पर मुकदमा क्यों खत्म कर दिया ? क्या उसे ऐसा कोई अधिकार कानून में है ? धारा 365 आईपीसी किसी व्यक्ति/ परिवार के विरुद्ध अपराध होने के साथ साथ एक सामाजिक अपराध है और राज्य के विरुद्ध भी अपराध है।  फिर उसमें गैरचालानी एफआर लगाई गयी होगी यह लिख कर कि इसमें कोई गवाह नहीं  मिला, जिसे मजिस्ट्रेट ने भी मंजूर कर लिया होगा। यहाँ मजिस्ट्रेट की भी गलती थी। उसे दुबारा अन्वेषण करने का आदेश देना चाहिए था।

ऐसे मामलों में अक्सर यह होता है कि अपहरणकर्ता तगड़े रसूख वाला व्यक्ति होता है। वह पुलिस पर और लड़की के परिवार पर दबाव डालता है। इस में धन और बल दोनो का जोर होता है। फिर पुलिस भी पीड़ित पक्ष को दबाती है। तब जाकर राजीनामा होता है। यह राजीनामा रिकार्ड में दर्ज नहीं होता। सबूतों के अभाव में अन्तिम रिपोर्ट दाखिल की जाती है और उसे मंजूर करा लिया जाता है। फरियादी को एक बार नोटिस भेजा जाता है। नोटिस पर हाजिर न होने पर मजिस्ट्रेट उसे मंजूर कर लेती है। यह अपराधों के बढ़ते रहने का मुख्य कारण है। इसमें अपराधियो की पुलिस से साँठगाँठ होती है। केवल पुलिस से ही नहीं बल्कि राज्य के राजनीतिज्ञों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फिर जब मर्डर और रेप जैसी घटनाएँ होती हैं तो उन्हें साम्प्रदायिक रंग देकर राजनीति की बिसात पर खेल खेला जाता है।

इस मामले में पुरानी एफआईआर पर एफआर पेश करने की जाँच होनी चाहिए। जिम्मेदार पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। हाईकोर्ट को उस मजिस्ट्रेट के खिलाफ भी जाँच खोलनी चाहिए जिसने इस मामले में एफआर को मंजूर किया था।

( विजय शंकर सिंह ) 

Monday, 26 October 2020

चुनाव में लोकहित के मामले, चुनावी मुद्दे क्यों नहीं बनते हैं ? / विजय शंकर सिंह

बिहार विधानसभा 2020 के चुनाव प्रचार में एक दिलचस्प परिवर्तन दिख रहा है। यह परिवर्तन एन्टी इनकम्बेंसी का नहीं, जाति और धर्म के ध्रुवीकरण का नही, किसी के प्रति सहानुभूति की लहर का नही, डीएनए टाइप भाषणों के विरोध का नहीं और न ही किसी व्यक्ति की अंधभक्ति में लीन होकर अवतारवाद का है, बल्कि बरसो से रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे लोकहित के मामले जो अक्सर चुनावी नक्कारखाने में तूती की तरह उपेक्षित और अनसुने रह जाते थे,  वह अब, अपनी पहचान और स्वर के साथ न केवल पहचाने जा रहे है, बल्कि उस तूती की आवाज़, नक्कारखाने के बेमतलब और प्रायोजित शोर पर भारी भी पड़ रही है। इस चुनाव में न तो मंदिर मुद्दा है, न आरक्षण का पक्ष विपक्ष, न पैकेजों का प्रसाद, बल्कि मुद्दा है सबको रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य। मुद्दों के इस परिवर्तन का स्वागत किया जाना चाहिए। ऐसे मुद्दे न किसी भी राजनीतिक दल को अमूमन रास नहीं आते हैं, बल्कि यह उन्हें असहज कर देते हैं और कभी कभी तो उनकी बोलती बंद कर देते हैं। बिहार के चुनाव में व्यापक लोकहित के ये मुद्दे अगर इसके बाद के आने वाले राज्यों और देश के चुनाव में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये रखते हैं तो यह संसदीय और चुनावी लोकतंत्र के लिये एक शुभ संकेत होगा।  

इन चुनावों में सभी दल अपने अपने वादों और रणीति के अनुसार जनता के समक्ष साष्टांग है। यही वह समय होता है जब जनता, जनार्दन की भूमिका में होती है और उसकी आवाज़, यानी आवाज़ ए खल्क ईश्वर की आवाज़ समझी जाती है। पर यह चांदनी महज कुछ दिनों की होती है फिर तो जनता अपनी जगह, नेता अपनी जगह और सरकार अपने ठीहे में, और उन वादों की, जो चुनाव के दौरान राजनीतिक लोगों ने जनता से किए होते हैं, कोई चर्चा भी नहीं करता है। चुनाव के दौरान भी नये वादे किये तो जाते हैं, 
पर पुराने वादों पर कोई दल मुंह नहीं खोलता है, और जनता भी कम ही उनके बारे में सवाल उठाती है। जैसे जैसे मतदान की तिथि नजदीक आने लगती है, नये नये वादे और तेजी से उभरते हैं, जैसे संगीत में पहले विलंबित फिर द्रुत उभरता है। अंत में यह सारा शोर मतदान के दिन ही जब वोट मशीनें सुरक्षा घेरे में मतगणना स्थल की ओर ले जाई जाती रहती हैं तो थम जाता है और फिर गांव में फिर वही मायूसी और सुस्ती लौट आती है जो वहां का स्थायी भाव बन चुका होता है। 

चुनाव दर चुनाव होते रहते हैं। पर गांव की समस्याएं और तस्वीर बहुत कुछ नहीं बदलती है। न तो वादे बदलते हैं, न ही समस्याएं, न वादे करने वालों के इरादे, न ही गांव की सड़कें, स्कूल, अस्पताल, और बेरोजगार युवाओं की अड्डेबाजी, बहुत कुछ अपरिवर्तित जैसा दिखता है, बस चुनाव में नेताओ की गाड़ियों के मॉडल ज़रूर बदल जाते हैं।  कुछ उम्मीदें जनता की बढ़ जाती हैं, और उसे कुछ नए और मोहक आश्वासन भी मिल जाते हैं। 

भारत मे संसदीय लोकतंत्र के चुनाव के  इतिहास में, सन 1952 से 1967 तक देश मे एक ही दल, कांग्रेस का वर्चस्व रहा लेकिन 1967 में कांग्रेस को सभी राजनीतिक दलों की चुनौती एक साथ डॉ लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत के अनुसार मिली। लेकिन फिर भी केंद्रीय सत्ता से कांग्रेस की विदाई नहीं हो सकी और 1971 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस एक नए कलेवर में बहुत बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आयी।

1977 का चुनाव, किसी दल को सत्ता में लाने के बजाय इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने के मुद्दे पर आपातकाल के खिलाफ एक जनादेश था। वैचारिक रूप से अलग थलग पर एक ही झंडे और चुनाव चिह्न से जुड़ी जनता पार्टी 1977 में सत्ता में तो आई, पर वैचारिक अंतर्विरोधों के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और 1980 में जनता ने इंदिरा गांधी को पुनः सत्ता सौंप दी। इस चुनाव में मुद्दा जनता दल की नाकामी और आंतरिक कलह बना। 

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुये, मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस को 'न भूतो' बहुमत मिला। यह राजीव गांधी के पक्ष में कोई जनादेश नही था बल्कि इंदिरा गांधी को दी गयी, एक जन श्रद्धांजलि थी। अपार बहुमत की राजीव सरकार, बोफोर्स घोटाले के मुद्दे पर ढह गयी और 1989 में वीपी सिंह, दो वैचारिक ध्रुवों पर स्थित, भाजपा और वाम मोर्चे की बैसाखी पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने पर दो साल के अंदर ही उन्हें पद छोड़ना पड़ा। 

1991 में कांग्रेस सबसे बडी पार्टी बन कर उभरी। उसी साल चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो जाती है और पीवी नरसिम्हा राव को नया प्रधानमंत्री चुना जाता है। 1996 तक यह सरकार रहती है। यह सरकार नयी आर्थिक नीति के लिये याद की जाती है। लेकिन 1996 के बाद अस्थिरता का एक  दौर आता है, जो 1999 तक चलता है जब अटल जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए सत्ता में आती है। यह दौर एकल दल के वर्चस्व की समाप्ति का दौर होता है जो 2014 तक चलता है। 

2004 में एनडीए सत्ता से बाहर हो जाती है और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यूपीए सत्ता में आती है जो दस साल सरकार में रहती है। फिर 2014 में पहली बार भाजपा अपने दम पर सत्ता में पूर्ण बहुमत से आती है, जो एक बड़ी उपलब्धि है। यह अलग बात है कि, भाजपा ने अपने मंत्रिमंडल में एनडीए के अन्य सहयोगियों को भी सरकार में शामिल किया। 2014 के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को और भी बेहतर बहुमत मिला और नरेन्द्र मोदी पीएम के अपने दूसरे कार्यकाल में हैं। 

संसदीय लोकतंत्र में सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है और जनता जिन मुद्दों पर वोट देती है वह मुद्दे चुनाव घोषणापत्र में शामिल होते हैं। पर चुनावी राजनीति का सबसे दुःखद पहलू यह है कि, सभी राजनीतिक दल उन मुद्दों पर बात करने से कतराते हैं, जो उन्होंने अपने घोषणापत्र में दे रखे हैं। वे उन वादों की स्टेटस रिपोर्ट भी जनता के सामने नहीं रखना चाहते जो सरकार ने अपने कार्यकाल में पूरे किये हैं। चुनाव उन मुद्दों पर भटका दिया जाता है जो न जनता की मूल समस्या से जुड़े होते हैं और न ही विकास से, बल्कि चुनाव को जानबूझकर धर्म और जाति के मुद्दों की ओर ठेल दिया जाता है, जिससे वे असल मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं। और जब जवाबदेही वाले मुद्दे सामने नहीं होंगे तो धार्मिक और जातिगत मुद्दों पर तो केवल वाचालता और मिथ्यवाचन ही हावी रहेगा, जिसका परिणाम गैर जिम्मेदारी औऱ हवाई मुद्दों के आधार पर चुनी गयी सरकार के रूप में होता है, और ऐसी सरकार, पूरे कार्यकाल में केवल  धर्म और जाति के दलदल में ही फंसी रहना चाहेगी क्योंकि वह इस मानसिकता में आ जाती है और जनता को यही मुद्दे अधिक प्रभावित करते हैं। धीरे धीरे यह मानसिकता मतदाताओं की बन भी जाती है कि लोकहित के कार्य धर्म और जाति के मुद्दों के आगे महत्वहीन होते हैं। 

1977 के बाद साल 2014 का चुनाव भी एक जनांदोलन और तत्कालीन सरकार की विफलता से उत्पन्न व्यापक आक्रोश के आधार पर लड़ा गया था। अंतर बस यह था कि 1977 में मुख्य मुद्दा इंदिरा सरकार द्वारा थोपा गया आपातकाल था, जबकि 2014 में मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था। अन्ना आंदोलन लोकप्रिय ज़रूर हुआ था पर न तो वह जेपी आंदोलन की  तरह व्यापक था और न मनमोहन सरकार द्वारा आपातकाल जैसी ज्यादती ही हुयी थी। लेकिन 2014 के चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह से पराजित होना पड़ा और उसकी स्थिति यह हो गयी कि मान्यता प्राप्त विपक्षी दल का दर्जा भी उसे न तो 2014 में मिला और न ही 2019 में। 

अब बात करते हैं 2014 के मुख्य मुद्दे की, जो भ्रष्टाचार से जुड़ा था। यूपीए 2 के अंतिम साल घोटालों से भरे रहे और आरोपों, सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिकाओं और सीएजी की कुछ रपटों से यह परिदृश्य बन गया कि यह सरकार अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है। भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा पहले भी था पर 2014 में यह लगा कि आने वाली नरेंद्र मोदी सरकार, लम्बे समय से चली आ रही इस व्याधि पर कुठाराघात करेगी और एक बेहतर और सुव्यवस्थित शासन प्रणाली की शुरुआत होगी। गुजरात का विकास देश के लिये एक मॉडल के रूप में रखा गया। पर जब सरकार 2014 में बदली और एनडीए की सरकार बनी, तब से लेकर आज तक 2014 के सबसे ज्वलंत मुद्दे पर कोई उल्लेखनीय कदम सरकार द्वारा उठाया जाना तो दूर रहा, बल्कि सरकार ने ऐसे कदम उठा लिये जिनसे सरकार की पारदर्शिता और धुंधली हो गयी। 

अब एक नज़र 2014 में किये गए उन प्रमुख वादों पर डालते हैं, जिन पर सरकार को काम करना था, 
● मूल्‍य वृद्धि रोकने का प्रयास : 
● न्‍याय-व्‍यवस्‍था के सभी स्‍तरों में फास्‍ट ट्रेक कोर्ट स्‍थापित करना।
● शिक्षा के स्‍तर का विकास : 
● प्रत्‍येक नागरिक के लिए उचित स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं मुहैया कराना। 
● हर सूबे में 'एम्‍स' स्‍थापित करना। 
● भ्रष्टाचार की गुंजाइश न्यूनतम करके ऐसी स्थिति पैदा की जाएगी कि कालाधन पैदा ही न होने पाए। 
● विदेशी बैंकों और समुद्र पार के खातों में जमा कालेधन का पता लगाने और उसे वापस लाने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी। 

जब यह वादे 2014 के स्वप्निल माहौल में, उम्मीद की न जाने कितनी सतरें जगा रहे थे और टीवी की स्क्रीन 'अच्छे दिन आने वाले हैं' के मनमोहक और कर्णप्रिय विज्ञापनों से गुलज़ार हो रही थी तो, लग रहा था कि, कोई सरकार नहीं बनने जा रही है, बल्कि एक अवतार का आगमन हो रहा है, जो अब सब कुछ बदल कर रख देगा। तब देश का माहौल ही कुछ अजब गजब हो चला था। तब के संकल्पपत्र 2014 को, फिर से पढिये। वक़्त के उसी दौर में खुद को ले जाकर आत्ममंथन कीजिए कि इतने सुनहरे और खूबसूरत वादों पर सवार होकर आने वाली सरकार जब 2019 का चुनाव लड़ रही थी तो, न तो इन वादों का उल्लेख सत्तारूढ़ दल कर रहा था, और न ही जनता मुखर होकर उनसे सवाल कर रही थी। 100 स्मार्ट सिटी, 2 करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष रोजगार, उद्योगों का संजाल, और भी न जाने क्या क्या यह सब कहाँ खो गए ? अब तो इनकी चर्चा भी कोई नहीं करता है । वे भी नहीं जो इन वादों को मास्टरस्ट्रोक और गेम चेंजर मान रहे थे। इन वादों को तो, सरकार अपने कार्यकाल के पहले ही साल भूल गयी और इन वादों को  फिर कोई याद न दिलाये, तो कह दिया गया कि चुनावों के दौरान ऐसी वैसी बातें कह दी जातीं ही हैं। यह सब जुमले होते हैं। मतलब छोड़िये इन्हें। इन पर खाक डालिये ! 

2014 के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव और उसके पहले तथा बाद में होने वाले राज्यो के चुनावों में, न तो 2014 के वादों पर बहस हुयी और न ही 2014 के बाद होने वाले मास्टरस्ट्रोक नोटबन्दी और जीएसटी पर कोई बात हुयी। सत्तारूढ़ दल को अपनी उपलब्धियों के बजाय अपने पुराने आजमाए नुस्खे, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, कब्रिस्तान बनाम श्मशान, कपड़ो से दंगाइयों की पहचान का दर्शन, और आतंकी आ जाएंगे आदि मुद्दों पर बात करना सहज लगा और उन्होंने इन्ही मुद्दों को जनता के बीच ज़िंदा रखने की कोशिश की। बिहार के चुनाव में भी जब जेपी नड्डा यह कहते हैं कि 300 आतंकी जम्मूकश्मीर में अपनी गतिविधियों को अंजाम तक पहुंचाने के लिये तैयार बैठे हैं तो वे यह भी भूल जाते हैं कि यह कथन उनके ही निकम्मेपन को उजागर कर रहा है, क्योंकि 2014 से अब तक देश औऱ जम्मूकश्मीर में भाजपा की ही सरकार है और नोटबन्दी तथा अनुच्छेद 370 के खात्मे ने, सरकार के ही अनुसार, आतंकवाद की कमर तोड़ दी है। चुनाव में सत्तारूढ़ दल सदैव ही निशाने पर रहता है, पर विपक्ष के पास कुछ भी कहने का असीम विस्तार होता है। ऐसे में अगर सरकार ने अपने घोषणापत्र पर कोई ज़मीनी काम नहीं किया है तो उसकी स्थिति, उसी छात्र की तरह हो जाती है, जो असहज मानसिकता में परीक्षा हॉल में जाता है और सारे देवी देवताओं को याद करता हुआ अपना पर्चा लिखता है। आज यही स्थिति बिहार के चुनाव में भाजपा की है कि उन्हें अपने 15 साल की उपलब्धियां याद नही हैं पर 15 साल के पहले वाले 15 साल के जंगल राज की याद ताजा है। यह एक प्रकार की सेलेक्टिव याददाश्त का उदाहरण है। 

अब एक नज़र 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा द्वारा किये गये, मुख्य चुनावी वादों पर डालते हैं, 
● बिहार में नए कृषि विश्वविद्यालय और एक वेटनरी विश्वविद्यालय की स्थापना होगी।
● समय पर ऋण चुकाने वाले किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर कृषि ऋण देने की योजना।
● हर गांव को बारहमासी पककी सड़क से जोड़ा जाएगा।
● हर स्कूली बच्चे को मिलेगा स्वास्थ्य कार्ड। बीमारी निकलने पर सरकारी खर्च पर इलाज होगा।
● सभी भूमिहीनों को घर बनाने के लिए जमीन दिया जाएगा।
● 2022 तक सभी गृहविहीनों को शुद्ध पेयजल, शौचालय एवं बिजली कनेक्शन के साथ पक्के घर मुहैया कराए जाएंगे।
● 10वीं और 12वीं पास 50 हजार मेधावी छात्रों को लैपटॉप दिया जाएगा।
● युवाओं को बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे।
● राष्ट्रीय स्तर के मेडिकल, इंजीनियरिंग, पॉलीटेक्निक, आईटीआई स्थापित किए जाएंगे।
● 24x7 एंबुलेंस सेवा और ट्रॉमा केयर की व्यवस्था की जाएगी।
● हर शहर में हर साल रोजगार मेले का आयोजन किया जाएगा। इसमें बड़ी बड़ी कंपनियों को बुलाया जाएगा।
● सभी प्रखंडों में मिनी आईटीआई, सभी उपखंडों में एक आईटीआई सभी जिलों में एक पॉलिटेक्निक और सभी प्रमंडलों में एक एक इंजीनियरिंग और चिकित्सा महाविद्यालय की स्थापना होगी।
सूची बहुत लंबी है पर मैंने उन्ही वादों को लिखा है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से जुड़े है ।

क्या 2015 के इन वादों के बारे में कोई चर्चा नहीं की जानी चाहिए ? यह तर्क दिया जा सकता है कि सभी वादे पूरे नहीं किये जा सकते, और यह एक वाजिब तर्क भी है। पर यह तो सरकार को अपने चुनावी सभा मे बताना ही चाहिए कि, किन वादों को पूरा किया गया और किन को नही छुआ गया। चुनावी घोषणापत्र पर जब बहस, जवाबदेही और पूछताछ बंद होने लगेगी तो सबसे अधिक राहत की सांस राजनीतिक दल ही लेंगे क्योंकि वादे कर दरिया में डाल, उनकी आदत बन गयी है और वे इसे केवल एक इवेंट से अधिक नहीं समझते हैं। 

वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे के एक ब्लॉग में ब्रूकिंग्स इंडिया के सर्वे में बिहार के विकास की जमीनी स्थिति के कुछ आंकड़े प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो बिहार के इस चुनाव में मुद्दे बनने चाहिए।
● स्वास्थ्य पर औसतन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ख़र्च 348 रुपए है, जबकि राष्ट्रीय औसत 724 रुपया है। 
● निजी अस्पतालों में भर्ती का अनुपात राज्य में 44.6 फ़ीसदी है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 56.6 फ़ीसदी है। 
● निजी अस्पतालों में दिखाने का अनुपात बिहार में 91.5 फ़ीसदी है. इसमें राष्ट्रीय अनुपात 74.5 फ़ीसदी है.
● बिहार की सिर्फ़ 6.2 फ़ीसदी आबादी के पास स्वास्थ्य बीमा है. इसमें राष्ट्रीय औसत 15.2 फ़ीसदी है। 
● स्वास्थ्य पर बहुत भारी ख़र्च के बोझ तले दबे परिवारों का आँकड़ा 11 फ़ीसदी है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 13 फ़ीसदी है.
● यह सैंपल सर्वे के आँकड़े 2016 के हैं। अगर कुछ बेहतरी हुयी है तो सरकार उसे भी बता सकती है। कुछ साल पुराने ● वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत के बाद सालाना 10 फ़ीसदी बजट में बढ़ोतरी की दरकार को बिहार सरकार ने लागू नहीं किया है।
● 2014-15 में बजट का 3.8 फ़ीसदी हिस्सा स्वास्थ्य के मद में था और यह 2016-17 में 5.4 फ़ीसदी हो गया, लेकिन 2017-18 में यह गिरकर 4.4 फ़ीसदी हो गया. इस अवधि में कुल राज्य बजट में 88 फ़ीसदी की बढ़त हुई थी.
● बिहार में स्वास्थ्य ख़र्च का लगभग 80 फ़ीसदी परिवार वहन करता है, जबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 74 फ़ीसदी है.
● बिहार में एक भी ऐसा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है, जो स्थापित मानकों पर खरा उतरता हो.
● एक लाख जनसंख्या पर एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर होना चाहिए, अर्थात बिहार में 800 केंद्रों की ज़रूरत की तुलना में 200 ही ऐसे केंद्र हैं। 
● राज्य में 3,000 से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अपेक्षित हैं, लेकिन ऐसे केंद्रों की संख्या सिर्फ़ 1,883 है.
● एक ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्र के तहत लगभग 10 हज़ार आबादी होनी चाहिए, लेकिन बिहार में ऐसा एक उपकेंद्र 55 हज़ार से अधिक आबादी का उपचार करता है। 
● नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल के मुताबिक, बिहार में 28,391 लोगों पर एक डॉक्टर है, जबकि दिल्ली में यही आँकड़ा 2,203 पर एक डॉक्टर का है। 
● नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल, 2018 के अनुसार, बिहार की 96.7 फ़ीसदी महिलाओं को प्रसव से पहले पूरी देखभाल नहीं मिलती है.
● यूनिसेफ़ के अनुसार, बच्चों में गंभीर कुपोषण के मामले में भी बिहार देश में पहले स्थान पर है. साल 2014-15 और 2017-18 के बीच पोषण का बजट भी घटाया गया। 
क्या राजनीतिक दल, सजग जनता और मिडिया बंधु इन्हें चुनाव प्रचार के दौरान उठाना चाहेंगे ? 

2014 के बाद एक नयी प्रवित्ति विकसित हुयी है कि, सरकार के खिलाफ बोलना, सरकार से सवाल पूछना, सरकार को याद दिलाना, सरकार के कृत्यों के सम्बंध में प्रमाण मांगना यह सब हेय, पाप और देशद्रोह है। इस संस्कृति ने एक ऐसे समाज का विकास किया जो स्वभावतः चाटुकार और मानसिक रूप से दास बनने लगा। सत्ता को तो ऐसा ही समाज रास आता है। सत्ता को प्रखर, विवेक, संदेह करने और प्रमाण मांगने वाला समाज भी रास नहीं आता है। उसे भेड़ में परिवर्तित आज्ञापालक समाज ही रास आता है। 

और ऐसा तब होता है जब जनता यह भूल बैठती है कि आखिर उसने किसी को चुना क्यों है ? किस उम्मीद पर चुना है ? किन वादों पर सत्ता सौंपी है ? उन उम्मीदों का क्या हुआ ? उन वादों का क्या हुआ ? और अगर कुछ हुआ नहीं तो फिर हुआ क्यों नही ? इसके लिये जिम्मेदार कौन है ? और जो जिम्मेदार है उसे क्यों नहीं दण्डित किया गया ? यह सारे सवाल लोकतंत्र को जीवित रखते हैं और सत्ता को असहज। प्रश्न का अंकुश ही सत्ता के मदांध गजराज को नियंत्रित रख सकता है। 

विवेकवान, जाग्रत, अपने अधिकारों के लिये सजग और सतर्क रहने वाली जनता से अधिकार सम्पन्न  सत्ता भी डरती और असहज रहती है। वह डरती रहती है। हम सरकार को कुछ उद्देश्यों के लिये उनके द्वारा किये गए वायदों को पूरा करने के लिये चुनते हैं न कि राज करने के लिये अवतार की अवधारणा करते हैं। सरकार हमारे लिये और हमारे दम पर है न कि हम सरकार की मर्ज़ी पर निर्भर है। वक़्त मिले तो सोचिएगा कि, हमने सरकार से उसके वादों और नीतियों के बारे में पूछताछ करना क्यों छोड़ दिया,  और हमारी इस चुप्पी का परिणाम अंततः भोगना किसको पड़ेगा ? 

( विजय शंकर सिंह )
 

Saturday, 24 October 2020

बंगाल की दुर्गा पूजा - एक ऐतिहासिक विवेचना. / विजय शंकर सिंह

पहले यह पंक्तियां पढिये,
“कहती थीं माता मुझको सदा राजीव नयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, 
यह पुरश्चरण पूरा करता हूँ,
देकर मात एक नयन।”

कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त लक लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, 
दक्षिण कर दक्षिण लोचन ले 
अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन 
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, 
हुआ देवी का त्वरित उदय। ”

यह पंक्तियां, महाप्राण, सूर्यकांत त्रिपाठी की कालजयी कविता, ‘ राम की शक्तिपूजा ‘ की अंतिम अंश की कुछ पंक्तियां है। यह लंबी  कविता हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में तो अपना स्थान रखती ही है, बल्कि कुछ आलोचक इसे विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में भी एक कविता मानते हैं। कविता में निराला ने दिखाया है कि किस प्रकार,  राम, रावण से लंका की लड़ाई में हार रहे हैं. और तब अपनी इस दशा से विचलित राम कहते हैं, 

‘हाय! उद्धार प्रिया (सीता) का 
हो न सका। ‘ 

इसी समय उनके अनुभवी और वयोवृद्ध सलाहकार जांबवंत सुझाव देते हैं कि वे यह युद्ध इसलिए हार रहे हैं कि उनके साथ केवल नैतिक बल है। शक्ति नहीं है। कोई भी युद्ध केवल नैतिक बल से नहीं जीता जा सकती, उसके लिए तो युद्ध शक्ति का होना आवश्यक है। कविता में जांबवंत कहते हैं, 

‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, 
करो पूजन! 
छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो, रघुनंदन!!’ 

जांबवंत की इन बातों का आशय दुर्गा की नौ दिनों तक कठोर साधना से था। जाम्बवंत का यह विवरण अन्य राम कथा में विस्तार से नहीं मिलता है।

इन पंक्तियों की पृष्ठभूमि यह है, राम रावण से निर्णायक युद्ध करने सागर तट पर पहुंच गए हैं। उन्होंने दुर्गा की पूजा शुरू की। उनका संकल्प है कि वे देवी के चरणों मे 108 कमल के पुष्प अर्पित करेंगे। मंत्रोच्चार होने लगा। राम कमल पुष्प देवी के चरणों मे अर्पित करने लगे। राम मंत्रमुग्ध पूजा में निमग्न थे। अंतिम पुष्प जब वे अर्पित करने के लिये पात्र, जिसमे पुष्प रखे थे, में ढूंढा तो वहां उन्हें कोई पुष्प नहीं मिला। राम अजीब दुविधा में पड़ गए। अगर अब, वह आसन छोड़ कर दूसरा कमल पुष्प लेने निकलते हैं तो, उनकी साधना भंग होती है, और 108 पुष्पों का अर्पण पूरा नहीं होता है तो, उनका संकल्प टूट जाता है। अचानक उन्हें याद आया, उनकी सुंदर और आकर्षक आंखों को उनकी मां, ( कौशल्या )  कमल नयन कहती थी, बस तुरन्त उन्होंने यह निश्चय किया कि वह अपनी एक आंख, पुष्प के स्थान पर अर्पित कर देंगे। उन्होंने तीर उठाकर आंख पर प्रहार करना चाहा, तभी, देवी प्रगट हो गयीं और अंतिम कमल पुष्प जो देवी ने ही चुपके उठा लिया था, राम को सौंप दिया। राम ने वह पुष्प अर्पित कर के अपना संकल्प पूरा किया। देवी ने पूजा स्वीकार की और रावण के विरुद्ध युद्ध मे राम को विजयी होने का आशीर्वाद दिया, 

" होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।”
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।

निराला की यह कविता, न तो वाल्मीकि की रामायण पर आधारित है और न तुलसी की रामचरितमानस पर। माना जाता है कि निराला ने इस कविता का कथानक पंद्रहवीं सदी के सुप्रसिद्ध बांग्ला भक्तकवि कृत्तिबास ओझा के महाकाव्य ‘श्री राम पांचाली’ से लिया था। पंद्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में रची गई यह रचना वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गई ‘रामायण’ का बांग्ला संस्करण है. इसे कृत्तिबासी रामायण’ भी कहा जाता है. इसकी विशेषता यह है कि यह संस्कृत से इतर किसी भी अन्य उत्तर भारतीय भाषा में लिखा गया पहला रामायण है। अवधी भाषा में तुलसीदास के रामचरित मानस के रचे जाने से भी डेढ़ सदी पहले कृतिवास का यह बांग्ला काव्य आ गया था।  बंगाल में आधुनिक दुर्गा पूजा के प्रारंभ का इतिहास कृतिवास के उक्त रामायण से माना जाता है। बांग्ला भी तब एक बोली ही थी। जब तक ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बांग्ला भाषा को आधुनिक रूप में नहीं ढाला, यह एक समृद्ध बोली ही बनी रही।

शारदीय नवरात्र में दशमी के दिन, विजयादशमी यानी दशहरा एक धूमधाम से मनाया जाने वाला त्योहार है। बात चाहे मैसुरु के जंबू सावरी दशहरे की हो या कुल्लू-मनाली के दशहरे की या गुजरात के गरबा नृत्य के साथ मनाए जाने वाले उत्सव की, देश के हर भूभाग में इस त्योहार का अलग ही रंग होता है। पर बंगाल की दुर्गापूजा का रंग सबसे अलग है। 10 दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के दौरान वहां का पूरा माहौल शक्ति की देवी दुर्गा के रंग में रंग जाता है। ढाक की ध्वनि, विभिन्न मुद्राओं में दुर्गा की भव्य और अचंभित कर देने वाली मृतिका प्रतिमाएं आदि बंगाल की समृद्ध सभ्यता और संस्कृति का परिचय देते हैं।बंगाली जनमानस के लिए दुर्गा और काली की आराधना से बड़ा कोई उत्सव नहीं है। जिस दिन देश भर में दीपावली मनाई जाती है, उसी दिन बंगाल में काली पूजा की धूम होती है। बंगाल के लोग, देश-विदेश जहां कहीं भी रहें, इस पर्व को खास बनाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते। ऐसे में एक स्वाभाविक जिज्ञासा उठती है कि, आखिर वह कौन सी घटना या परंपरा रही जिसके चलते बंगाल में शक्ति पूजा ने सभी त्योहारों में सबसे प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है।

कृत्तिबासी रामायण की कई मौलिक कल्पनाओं में रावण को हराने के लिए राम द्वारा शक्ति की पूजा करने का भी प्रसंग है।विद्वानों के अनुसार इस प्रसंग पर बंगाल की मातृ-पूजा की परंपरा का प्रभाव है। बंगाल ही नहीं, पूरा पूर्वी भारत, असम से लेकर त्रिपुरा के तक मातृ पूजा का प्रभाव है। यह शाक्त परंपरा का प्रभाव है। इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए कृतिवास ओझा ने अपने इस महाकाव्य में शक्ति पूजा का विस्तार से वर्णन किया। उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गांव गढ़ाकोला के मूल निवासी महाकवि निराला के जीवन का एक बड़ा भाग, महिषादल, बंगाल में बीता था। उनपर बांग्ला समाज, संस्कृति और भाषा का बहुत प्रभाव पड़ा था। कुछ विद्वानो  के अनुसार उनको कृतिवास रामायण के इस प्रसंग ने यह अद्भुत कविता लिखने की प्रेरणा दी, और, अंतत: उन्होंने इसे अपनी कविता का कथानक बनाने का निश्चय  किया।

कवि कृत्तिवास ओझा के विषय में उनकी रामकथा के लोकप्रिय होने के बावजूद लोगो को उनके बारे में अधिक जानकारी नहीं थी।  उनकी रामायण के प्रारंभ अथवा प्रत्येक कांड के अंत में एक-दो ऐसी पंक्तियाँ अवश्य मिल जाती थीं जिनसे ज्ञात होता था कि इस रामायण के रचयिता का नाम कृत्तिवास हैं और वे एक प्रतिभासंपन्न कवि थे। बांग्ला साहित्य के विद्वानों नगेंद्रनाथ वसु एवं निदेशचंद्र सेन नेे, एक हस्तलिखित ग्रंथ  जो कृत्तिवास का आत्मचरित कहा जाता है को दिनेश चंद्र सेन ने 1901 ई. में अपने ग्रंथ ‘बंगभाषा व साहित्य’ के द्वितीय संस्करण में प्रकाशित किया था । इसके बाद एक अन्य बांग्ला विद्वान नलिनीकांत भट्टशाली ने भी एक हस्तलिखित पोथी कहीं से प्राप्त की। इन पोथियों के अनुसार कृत्तिवास पुरुलिया के रहनेवाले थे।  इनके पितामह का नाम मुरारी ओझा, पिता का नाम वनमाली एव माता का नाम मानिकी था। कृत्तिवास पाँच भाई थे। ये पद्मा नदी के पार वारेंद्रभूमि में पढ़ने गए थे। वे अपने अध्यापक आचार्य चूड़ामणि के अत्यंत प्रिय शिष्य थे। अध्ययन समाप्त करने के बाद वे गौड़ेश्वर के दरबार में गए। जनश्रुति के अनुसार कृत्तिवास ने गौड़ेश्वर को पाँच श्लोक लिखकर भेजे। उन्हें पढ़कर राजा अतीव प्रसन्न हुए और इन्हें तुरंत अपने समक्ष बुलाया। वहाँ जाकर इन्होंने कुछ और श्लोक सुनाए। राजा ने इनका अत्यंत सम्मान से स्वागत और सत्कार किया तथा बंग भाषा में रामायण लिखने का अनुरोध किया। कृतिवास ने गौड़ेश्वर के राज्याश्रय से बांग्ला के प्रसिद्ध, महाकाव्य की रचना की।

लेकिन, कृतिवास की यह रचना तो जन जन में लोकप्रिय हो गयी, पर उनके बारे में बहुत कुछ लोगो को ज्ञात न हो सका। मध्यकाल के भक्ति कवियों के बारे में जितना उनकी रचनाओं का प्रसार हुआ है, उसकी अपेक्षा उनके जीवन के बारे में लोगों को कम ही जानकारी है। यही बात, हिन्दी की  दिग्गज त्रयी कबीर, सूर और तुलसी के बारे में भी कही जा सकती है।  कृत्तिवास ओझा की निश्चित जनमतिथि और जीवनी के महत्वपूर्ण अंश का पता इस आत्मचरित से भी नहीं ज्ञात होता है । योगेशचंद्र राय 1433 ई में, दिनेशचंद्र 1385 ई से 1400 ई. के बीच तथा सुकुमार सेन 15 वीं शती के उत्तरार्ध में इनका जन्म मानते हैं।

इतिहास के मध्यकाल में  महाराष्ट्र से पंजाब तक और राजस्थान से असम तक कई भक्त कवि हुए। सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, रैदास, दादू, नानक, शंकरदेव, तुकाराम, मीराबाई जैसे इन सभी संतों ने भक्ति पर आधारित अपने साहित्य को रचा। अधिकतर निर्गुण परम्परा और कर्मकांड के विरोध में उठा यह आंदोलन, मुस्लिम आक्रमण के बाद बदलते हुए समाज की एक सशक्त साहित्यिक मुखरता थी। हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम इतिहास लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘ इन कवियों ने अपनी रचना और भक्ति से विदेशी आंक्रांताओं के आक्रमण से हताश जनता को बहुत बड़ा संबल दिया. उनके अनुसार इनका मूल उद्देश्य कविता करना नहीं बल्कि अपने इष्टदेव की आराधना करना था. यानी ये पहले भक्त और फिर कवि थे। ‘ कृत्तिबास ओझा की भक्ति की संकल्पना के अनुसार इष्ट और भक्त दोनों बराबर नहीं हो सकते, इनमें हमेशा अंतर रहता है। उनका मानना था कि भक्त यदि पूजा, साधना, जप-तप आदि उपायों को करे तो ही उसे अपने इष्ट का साथ मिल सकता है। उनकी रचना इसी भक्ति भाव का परिणाम है।

ऐसा माना जाता है कि कृतिवास रामायण ने ही बंगाल में दुर्गा पूजा की परंपरा को विकसित किया। वाल्मीकि रामायण की बांग्ला भाषा में पुनर्प्रस्तुति इसी सोच का परिणाम थी। कुछ आलोचकों के अनुसार रामकथा के माध्यम से कृत्तिबास समाज में न्याय और अन्याय के द्वंद्व और अंततः, अन्याय पर न्याय की विजय को दिखाना चाहते थे।  उनका मकसद था कि लोग समझें कि जीत अंतत: सत्य, न्याय और प्रेम की ही होती है। वे बताना चाहते थे कि रावण और उसके जैसे तमाम आतताइयों को एक दिन हारना ही होता है। आलोचकों का मानना है कि उनकी इस रचना का मकसद केवल भक्ति करना नहीं, बल्कि लोगों में इतिहास और मानव सभ्यता के प्रति समझ विकसित करना भी था. उनके अनुसार इस प्रसंग का आशय यही था कि केवल नैतिक बल से अन्याय को हराया नहीं जा सकता। उसकी हार तो तभी होती है जब न्यायी और सत्य के साथ खड़ा योद्धा शक्ति सम्पन्न भी हो। बंकिम चंद्र के आनन्द मठ का सुप्रसिद्ध और हमारा राष्ट्रगीत, वंदे मातरम, भी उसी मातृपूजा की आराधना है। यहां देश की ही कल्पना मातृ रूप में की गयी है। हालांकि यह कल्पना भी नयी नहीं है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी, का उदाहरण हमारे यहां पहले से ही मौजूद था।

बंगाल में नारी-पूजा की परंपरा प्राचीन समय से प्रचलित है. इसलिए वहां शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का काफी असर है। दूसरी ओर वहां वैष्णव संत भी हुए हैं, जो राम और कृष्ण की आराधना में यकीन रखते हैं। पहले इन दोनों संप्रदायों में अक्सर संघर्ष होता था। शैव वैष्णव संघर्ष का तो एक लंबा इतिहास है ही। कृत्तिबास ओझा ने अपनी रचना के माध्यम से शाक्तों और वैष्णवों में एकता कायम करने की काफी कोशिश की। बंग साहित्य के समीक्षकों  के अनुसार राम को दुर्गा की आराधना करते हुए दिखाकर वे दोनों संप्रदायों के बीच एकता और संतुलन कायम करने में सफल रहे। यही निष्कर्ष कुछ विद्वान, तुलसी की चौपाई, 'शिव द्रोही मम दास कहावा', से भी निकालते हैं कि यह शैव वैष्णव एका का तुलसी प्रयास था। इस प्रसंग से राम का नायकत्व तो स्थापित हुआ ही, शक्ति, यानी नारी की अहमियत भी बरकरार रही। कृत्तिबास रामायण में लिखी गयी यह कथा,  धीरे-धीरे पूरे बंगाल में प्रसिद्ध होती चली गई। बाउल गीतों से फैलने लगी। इसके साथ साथ दुर्गा भी वहां के जनमानस में लोकप्रिय होती गईं। यही नहीं पिछली पांच शताब्दियों में दुर्गा पूजा बंगाल का एक महत्वपूर्ण त्योहार बन चुका है. इस पर बंगाल का असर यदि देखना हो तो दुर्गा की प्रतिमाओं की बनावट को देखा जा सकता है जिन पर बंगाली मूर्तिकला का साफ असर है।

भले ही दुर्गा पूजा की परंपरा का प्रारंभ कृतिवास के काव्य से प्रेरित होकर पड़ी हो पर दुर्गा पूजा में जो मंत्र पढें जाते हैं और जो विधियां हैं वह दुर्गा सप्तशती से ली गयी है। 700 श्लोकों की यह रचना मूलतः मार्कण्डेय पुराण का एक अंश है। दुर्गा की विभिन्न रूपों में उनकी ओजस्वी स्तुतियां की गयी है। यह रचना देखने से ही युद्ध के आह्वान के लिये लिखी गयी लगती है। पहले स्वरक्षा के लिये कवच, कीलक और अर्गला के मंत्र हैं। फिर दुर्गा के उत्पत्ति की कथा है और फिर उनके द्वारा असुरों के संहार के वर्णन हैं। अंत मे क्षमा प्रार्थना है। दुर्गा यहां एकता के प्रतीक के रूप में भी देखी जा सकती हैं। सभी देवताओं के मुख से निकले तेज ने एक होकर जिस तेजपुंज का रूप लिया, वह नारी रूप बना। उसे सभी प्रमुख देवताओं ने  अपने अपने अस्त्र शस्त्र दिये, और सबके तेज को समेट उस शक्ति स्वरूपा ने असुर संहार का दायित्व निभाया। कुछ विद्वान इसे आर्य अनार्य संघर्ष से भी जोड़ते हैं, और कुछ इसे आर्यो के भारत पर हमला कर के तत्कालीन मूल संस्कृति, जो कुछ विद्वानों के अनुसार, द्रविण सभ्यता का प्राचीन अंश थी, को नष्ट करने के सिद्धांत से जोड़ कर देखते है।

कोलकाता के दुर्गा पूजा का धार्मिक महत्व उतना नहीं है जितना कि इसका सांस्कृतिक महत्व है। दुनियाभर के बंगाली समाज के लोग इस ‘पुजो’ के अवसर पर अपने घर जाते हैं और इस समारोह में भाग लेते हैं। अष्टमी या महाष्ठमी, पूजा का मुख्य दिन भी होता है। पांच दिनों की मूर्ति स्थापना के बाद, दशमी के दिन इन मूर्तियों का विसर्जन हो जाता है जिसे बंगाल में भसान कहते हैं। मूर्तियों के बनाने, सजाने, पंडाल के निर्माण में भी नए नए प्रयोग होते रहते हैं, और अब थीम पूजा या पंडाल भी बनने लगे हैं। इसका एक बड़ा कारण आर्थिक संपन्नता और उपभोक्तावाद की संस्कृति का प्रसार भी है।  बंगाल ललित कलाओं में प्रयोग करता रहता है। इनोवेटिव बांग्ला मस्तिष्क नित नये विचार और सोच को अपने सांचे में ढाल कर देखता रहता है। यही प्रयोगवाद पूजा पंडालों और देवी प्रतिमाओं की थीम पर भी उतर आता है। यही प्रयोगवाद आप को सत्यजीत रे, मृणाल सेन, हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में भी मिलता है।

बंग क्षेत्र का एक प्रमुख भूभाग, बांग्लादेश की राजधानी ढांका में दुर्गा पूजा की धूम ढाकेश्वरी मंदिर में होती है। यह मंदिर बांग्लादेश का राष्ट्रीय (जातीय ) मंदिर माना जाता है। ढाका, कलकत्ता से कहीं पुराना शहर है। इसका पुराना नाम जहांगीर नगर था। पर यह ढाका नाम से अब प्रसिद्ध है। ढाकेश्वरी’ ढाका की देवी’ है। ढाकेश्वरी मंदिर का निर्माण मूल रूप से 12 वीं शताब्दी में सेन राजवंश के राजा बल्लाल सेन द्वारा किया गया था। ढाका में सबसे बड़े मंदिरों में से एक होने के नाते, ढाकेश्वरी में पूजा उत्सव उन लोगों के लिए एक अद्भुत अनुभव है, जो उत्सव में मां षष्ठी की पूजा करना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त, ढाका के स्वामीबाग रोड पर स्थित, इस्कॉन हरे कृष्ण मंदिर में दुर्गा पूजा की शुरुआत ‘उल्टो रथ यात्रा’ के साथ शुरू होती है, जो भगवान जगन्नाथ के रथ से निकलकर ढाकेश्वरी मंदिर से महालय के परिसर तक जाती है। ज्ञातव्य है कि अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ इस्कॉन, इंटरनेशनल सोसायटी फ़ॉर कृष्णा कॉन्शसनेस  के संस्थापक, प्रभुपाद स्वयं बंगाल के थे और चैतन्य महाप्रभु की परम्परा के वैष्णव थे। इसके अतिरिक्त, ढाका के सबसे बड़े पूजा मंडपों में से एक गुलशन-बनानी सरबजनिन पूजा परिषद द्वारा आयोजित किया जाता है।

जब बंगाल की बात की जाती है तो इसे वृहत्तर बंगाल समझना चाहिये। इसमे आज का पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश, बिहार और उड़ीसा के कुछ भाग, यानी ब्रिटिश भारत की बंगाल प्रेसिडेंसी, जिसकी दीवानी, ईस्ट इंडिया कम्पनी के लार्ड क्लाइव ने मुग़ल बादशाह से ली थी। तब कलकत्ता का जन्म और विकास शैशव अवस्था में था और आज जहां कोलकाता है वहां, कालिकाता, जोड़ासाकूँ और सूतानाटी नामक तीन गांव थे और उसके चारों तरफ जंगल और दलदली ज़मीन थी। तब बंगाल के बडे शहर, मुर्शिदाबाद, ढाका और राजमहल हुआ करते  थे। जॉब चारनाक नामक अंग्रेज ने लंदन की तर्ज़ पर ब्रिटिश साम्राज्य के पूरब के सबसे खूबसूरत शहर की नींव रखी जो बाद में बांग्ला भद्रलोक और तत्कालीन जमीदारों का चहेता शहर बन गया । 1911 तक कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी बनी रही। 

दुर्गापूजा का विस्तार पूरे बंगाल में हुआ और जब ब्रिटिश राज में कलकत्ता राजधानी बना और पढा लिखा बंगीय समाज नौकरियों के कारण बंगाल से बाहर गया तब वह अपनी भाषा सभ्यता संस्कृति के साथ साथ दुर्गापूजा की यह विशिष्ट परंपरा भी लेता गया। आज दुर्गापूजा केवल बंगाल में ही नहीं बल्कि उत्तर भारत के गैर बंगाली स्थानों में भी खूब धूमधाम से मनाई जा रही है। यह अलग बात है बंगाल के लावण्य और नम वातावरण और ओजस्वी ढाक ध्वनि के परंपरागत माहौल की जगह अब फिल्मी धुनों पर डीजे के कर्कश शोर ने कब्ज़ा जमा लिया गया है। उत्सवधर्मिता, भारतीय परंपरा औऱ संस्कृति का एक अभिन्न अंग सदैव से रहा है, आज भी है, भले ही उसका स्वरूप समय के साथ बदलता रहता है। 

( विजय शंकर सिंह )