ग़ालिब - 108.
क्या जूहूद को मानूँ,, कि न हो गरचय रियाई,
पादाश ए अमल की तमअए, खाम बहुत है !!
Kyaa juhuud ko maanun, ki na ho garachay riyaayee,
Paadaash e amal kii tam'ae khaam bahut hai !!
- Ghalib
मैं धार्मिक कर्मकांड के पुण्य को भला कैसे स्वीकार करूँ। क्यों की ऐसा करने से मुझे बार बार धोखा छल और फरेब में नहीं पड़ना पड़ता। अपने काम का प्रतिफल प्राप्त करने की लालसा बड़ी तीव्र होती है।
प्रत्येक धर्म के मुख्यतया दो पक्ष होते हैं। एक उस धर्म का दार्शनिक पक्ष और दूसरा कर्मकांड। दर्शन का पक्ष सूक्ष्म और कर्मकांड का पक्ष स्थूल होता है। कर्मकांड में धर्माचरण और ईश्वर को पाने, मृत्युपर्यन्त जीवन मे सुख खोजने की तमाम तरकीबें और नुस्खे दिये गये होते हैं जबकि दर्शन सूक्ष्मतम भाव की ओर ले जाता है। ग़ालिब धर्म के कर्मकांड के बहुत पाबंद नहीं थे, वे खुद को एक मुक़दमे में जब अंग्रेज़ मैजिस्ट्रेट ने उनसे पूछा कि क्या वे मुसलमान हैं तो ग़ालिब ने परिहास में उत्तर दिया, आधा मुसलमान हूँ। अंग्रेज़ मैजिस्ट्रेट भौचक्का रह गया और फिर पूछा कि कैसे, तो ग़ालिब ने कहा कि, ' वह सुअर नहीं खाते पर शराब पीते हैं। ' इस्लाम मे दोनों ही हराम हैं तो ग़ालिब को खुद को आधा मुस्लिम कहा। यह सवाल जवाब था तो मजाकिया पर इससे ग़ालिब के धर्म के कर्मकांडीय स्वरूप के प्रति दृष्टिकोण का पता चलता है। ग़ालिब अपने कलाम में दर्शन की अनन्त उचाईयों को छूते नज़र आते हैं। कर्मकांड उन्हें छल और फरेब सरीखा भी कभी कभी लगता है।
इसी प्रकार कबीर जो पूरे जीवन भर कर्मकांड़ों के खिलाफ झंडा उठाये रहे, का यह दोहा पढ़े।
माला फेरत युग गया, पाया न मन का फेर,
कर का मनका छाँड़ि दे, मन का मनका फेर,
हज काबे ह्वै ह्वै गया, केती बार ' कबीर '
मीरां मुझ में क्या खता, मुखां न बोले पीर !!
( कबीर )
माला फेरते हुये युग बीत गया, पर मन का द्वंद्व नहीं समाप्त हुआ। इस लिये हांथ की माला छोड़ कर मन की माला फेरना चाहिए। काबे की यात्रा तो मैं कई कई बार कर चुका हूं, पर अब भी खुदा मुझसे नहीं बोलता तो इसमें मेरी क्या खता है।
© विजय शंकर सिंह
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