भाजपा के मित्र और समर्थक अम्बानी, अडानी का बचाव करते थे, और अब भी वे इन पूंजीपतियों का बचाव कर रहे हैं। चाहे मामला अनिल अंबानी का राफेल सौदा से जुड़े ऑफसेट ठेके का हो, या गेल, ( गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड), ओएनजीसी या बीएसएनएल का भट्ठा बैठाने वाली मुकेश अंबानी की जिओ और पेट्रोलियम कम्पनियां हों, या अडानी की खनिज और कोयले की खान का मामला हो, जैसे ही कहीं आलोचना का स्वर उठता है भाजपा के समर्थक और पार्टी वाले बचाव में आ जाते हैं। ऐसा इसलिए कि क्योंकि ये दोनों पूंजीपति घराने वर्तमान सत्ता के करीब हैं। अब जो भी मित्र सत्तारूढ़ दल से जुड़े होंगे, तो उनकी यह मज़बूरी है कि वे उनका बचाव करें या उनकी आड़ में अपनी पार्टी का बचाव करें। क्योंकि आलोचना सरकार की होती है और ये पूंजीपति बस माध्यम बनते हैं।
पर जब चुनाव आयोग के बारे में कोई आक्षेप लगाया जाता है या आरोप लगाया जाता है, आलोचना की जाती है तो भाजपा के मित्रगण आयोग के बचाव में भी उतर आते हैं। क्या वे निर्वाचन आयोग जो सरकार से बिल्कुल अलग एक महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था है को भी सरकार का एक विभाग समझ बैठे हैं ? क्या गिरोहबंद पूंजीपतियों की तरह निर्वाचन आयोग भी सत्ता के करीब है ? क्या उनका बचाव यह साबित नहीं करता है कि आयोग सत्तारूढ़ दल को कहीं न कहीं लाभ पहुंचा रहा है या उसका सरकार के प्रति नरम दृष्टिकोण है ? किसी मैच या खेल प्रतियोगिता में अगर एक पक्ष रेफरी या अंपायर के किसी निर्णय पर सवाल उठाए और प्रतिद्वंद्वी पक्ष उसी रेफरी या अंपायर के पक्ष में उसी फैसले के पक्ष में खड़ा हो तो उस रेफरी या अंपायर का हर फैसला सन्देह की दृष्टि से देखा जाएगा। इस चुनाव में भी यही हुआ है ।
चुनाव आयोग चाहे जितना भी निष्पक्ष और विधिसम्मत ढंग से कार्य करता हो या उसने लोकसभा चुनाव 2019 में अपना दायित्व चाहे कितनी ही निष्पक्षता से निभाया हो, पर यह धारणा बनती जा रही है कि आयोग में सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है। न तो प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष के आचार संहिता का उल्लंघन करते भाषणों पर उन्हें दोषमुक्त करते समय और न ही एक हिंसक घटना के बाद बंगाल में चुनाव प्रचार का समय 20 घन्टा कम करने पर आयोग का निर्णय विधिसम्मत था। मुख्य निर्वाचन आयुक्त का स्पष्ट झुकाव सत्तारूढ़ दल की ओर अक्सर दिखा था।
जहां तक ईवीएम पर सन्देह का प्रश्न है, ईवीएम पर सबसे पहले संदेह, भाजपा के सबसे बड़े नेता एलके आडवाणी ने 2009 के चुनाव की हार के बाद किया था। भाजपा के प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने इस पर एक किताब भी लिखी थी और उस किताब में उन्होंने यह स्पष्ट रूप से ईवीएम टेम्परिंग की संभावनाएं बतायी गयी हैं। हालांकि उस समय भी निर्वाचन आयोग ने उन आरोपों को बेबुनियाद बताया था। यहां भी यह तर्क दिया जा सकता है कि जो हारता है वह आयोग और ईवीएम को दोष देता है। उस समय भाजपा हार गयी तो उसने इस तर्क का सहारा लिया, यह बात तब भी कही गयी थी। लेकिन मैं अभी भी इस विचार पर कायम हूँ कि ईवीएम की न तो हैकिंग हो सकती है और न ही अदला बदली। यह अलग बात है कि यह अफवाह दावानल की तरह फैल गयी है। अफवाहें साख की क्षीणता पर अधिक फैलती हैं। अगर साख मज़बूत हैं तो अफवाहें अल्पजीवी होती हैं।
इस चुनाव में जो भी जीते, या जिसकी भी सरकार बने यह बिल्कुल अलग बात है, पर निर्वाचन आयोग हर कदम पर अपनी निष्पक्षता या रेफ्रीशिप की नैतिकता के साथ समझौता करता रहा है। संदेह बहुत ही विचित्र मनोभाव होता है। और जब उसे दूर करने के बजाय उस की खिल्ली उड़ाई जाने लगे या झगड़ने लगे या कोई चुप्पी बांध ले तो वह और अधिक प्रगाढ़ होंने लगता है। निर्णय चाहे न्यायिक हो या प्रशासनिक, या इन हाउस प्रशासन से सम्बंधित हो, वह निष्पक्ष हो यह तो ज़रूरी है ही, वह निष्पक्ष दिखे भी।
किसी भी व्यक्ति संस्था के लिये साख बहुत महत्व रखती है। यह साख ही थी जो शेषन और लिंगदोह को आज भी याद किया जाता है। सरकार की हिम्मत नहीं होती थी अचार संहिता को नजरअंदाज कर जाए। साख खत्म हो रही थी, तभी तो लोग सुप्रीम कोर्ट गये, और सुप्रीम कोर्ट को संविधान की धारा 324 आयोग को याद दिलानी पड़ी। साख पर बट्टा लगा तभी प्रणव मुखर्जी को बयान देना पड़ा। यह पहली बार है जब किसी पूर्व राष्ट्रपति ने चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग को उनके दायित्व और अधिकार की याद दिलायी है। आयोग की साख पर सवाल पूर्व चुनाव आयुक्तों ने भी उठाया है । साख पर सवाल आयोग के ही एक अन्य मौजूदा आयुक्त अशोक लवासा ने उठाया है।
यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि 2019 का लोकसभा चुनाव, निर्वाचन आयोग की प्रशासनिक अक्षमता के लिये भी याद किया जाएगा और निवार्चन आयोग की साख क्षतिग्रस्त हुयी है।
© विजय शंकर सिंह
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