कल कोलकाता में जो कुछ हुआ वह बेहद दुःखद और निंदनीय है। चुनाव प्रचार में रोड शो की यह जो नयी परम्परा पड़ गयी है वह कभी कभी मुझे राजाओं के शोभा यात्रा की तरह लगती है। वैसा ही ऐश्वर्य, वैसी ही पुष्पवर्षा, वैसे ही विजय दंभ से भरे नेता। उन्माद से भरे समर्थक। और वैसे ही उन्माद से उभरते घोष। जनता के बीचों बीच से गुजरते हुए जुलूस पर ट्रक पर आसीन नेता, कहीं कहीं जनता से दूर एक औपचारिक राज या धर्म यात्रा की तरह लगता है। बात किसी एक राजनीतिक दल की नहीं है, बल्कि सभी दलों की है। यह एक नयी परम्परा है। यह जनता को जोड़ती नहीं है, उसे ऐश्वर्य और चकाचौंध स्तंभित कर देती है।
ऐसी ही भाजपा के एक रोड शो के दौरान कोलकाता में बवाल हुआ और उन्मादित भीड़ ने ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी। अंबेडकर तो पहले से ही तोड़े जा रहे थे, गांधी पर भी यदा कदा हमला होता ही रहता है, पर गांधी की विश्व स्वीकार्य क्षवि के कारण गांधी के सतत विरोधी, मन मसोस कर रह जाते हैं। गोडसे के कृत्य को ही तर्क सम्मत ठहरा कर खुश हो लेते हैं। अब हमला ईश्वरचंद्र विद्यासागर पर है। कॉलेज स्ट्रीट पर बहुत समय मैंने बिताया है। 1976, 77, 78 में जब कोलकाता में रहता था तो रोज ही जाता था। सामाजिक न्याय के प्रखर प्रतीक ज्योतिबा फुले भी मज़बूरी में ही कुछ लोगों द्वारा पसंद किये जाते हैं। राजा राममोहन राय, केशब चन्द्र सेन तक उन्हें बहुत मालूम भी नहीं होगा। उतनी दूर तक पढ़ने की उन्हें आदत भी नहीं। विवेकानंद के बारे में केवल उन्हें यह मालुम है कि उन्होंने सनातन धर्म और वेदांत की पताका अमेरिका में फहराई थी। पर यह उन्हें बिल्कुल आभास नहीं है कि विवेकानंद जिस हिंदू धर्म की बात करते हैं वह 1925 के बाद गढ़े गये हिंदुत्व की विचारधारा से बिल्कुल अलग है।
गुरुदेव टैगोर तो पहले ही से खुद को राष्ट्रवादी न कहने और स्वयं को मानवतावादी मानने के कारण, निशाने पर है। एक संघी विद्वान हैं दीनानाथ बत्रा। बुजुर्ग हैं और इतिहास पर कुछ किताबें भी लिखी हैं। उनको यह तकलीफ है कि टैगोर की कुछ कहानियों में उर्दू के शब्द क्यों हैं ? उन्होंने उन उर्दू शब्दों का बांग्ला विकल्प लिखने की सलाह एनसीआरटी को दी है ! वे उर्दू को एक धर्म विशेष की और विदेशी भाषा मानते हैं। जबकि उर्दू पूर्णतः भारतीय भाषा है। यह अलग बात है कि पाकिस्तान ने उसे अपनी राजभाषा घोषित कर रखा है। वैसे ही जैसे बांग्लादेश ने बांग्ला को अपनी राजभाषा माना है। जब कि दोनों ही भाषाएं भारतीय हैं। बांग्लादेश का जन्म भी बांग्ला भाषा और बांग्ला अस्मिता से उपजे जन आंदोलन से हुआ है। यह बताता है कि बंग क्षेत्र में अपनी भाषा और संस्कृति से कितना भावनात्मक लगाव है। अब बत्रा साहब चाहते हैं कि उर्दू शब्द को रवींद्र साहित्य से हटा दिया जाय, और उसके स्थान पर समानार्थी बांग्ला शब्द रख दिया जाय। गुरुदेव तो अब रहे नहीं। अब बत्रा साहब की इच्छा पूरी भी करे तो कौन करे ! गनीमत है अभी उनकी नज़र रवींद्र संगीत की राग रागिनियों पर नहीं पड़ी है ! अब गुरुदेव बेचारे क्या करें ! विद्यासागर मूर्ति भजन की घटना का क्या असर होता है, यह दो एक दिन में पता चल जाएगा। पर वहां जो कुछ भी हुआ है, वह बेहद बुरा हुआ है।
प. बंगाल के कोलकाता रोड शो के दौरान हुए हंगामा और विद्यासागर कॉलेज में तोड़फोड़ के मामले में छात्र-छात्राओं ने आमरस स्ट्रीट थाने में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ एफआइआर दर्ज कराई है। एफआइआर में अमित शाह के नेतृत्व में कॉलेज में हमला करने का आरोप लगाया गया है। इसके अलावा कोलकाता विश्वविद्यालय के समक्ष हुए हंगामे को लेकर जोड़ासांको थाने में भी एक प्राथमिकी दर्ज कराई गई है। कल हुए हंगामे के मामले में अब तक 58 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। अमृतसर स्ट्रीट थाने की पुलिस ने 35 लोगों को और जोड़ासांको की पुलिस ने 23 लोगों को गिरफ्तार किया है। दूसरी ओर ईश्वर चंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़े जाने को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बंगाली अस्मिता से जोड़ दिया है। सभी तृणमूल नेताओं ने ईश्वर चंद्र की प्रतिमा फेसबुक से लेकर अन्य जितने भी सोशल मीडिया पर हैं वहां लगाया है। इसके अलावा आज बेलियाघाटा से श्याम बाजार तक इस घटना के खिलाफ तृणमूल ने धिक्कार जुलूस निकालने का फैसला लिया है इस जुलूस में खुद ममता बनर्जी भी शामिल होंगी।
फासिस्ट ताकतें सबसे पहले शिक्षा संस्थानों को अपना निशाना बनाती हैं। जेएनयू, बीएचयू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद, एएमयू के बाद अब यह हमला है कलकत्ता विश्वविद्यालय पर। बंगाल अपने प्रतीकों के प्रति बहुत सजग और सतर्क रहता है। आज भी वहां के सांस्कृतिक मानस में रवींद्रनाथ टैगोर और राजनीतिक क्षेत्र में सुभाष बाबू का जबरदस्त प्रभाव है। बंगाल पुनर्जागरण के महान विभूतियों को तो जाने ही दीजिये। धर्म और जाति का जो भेदभाव हम यूपी बिहार वालों में है बंगाल उस व्याधि से लगभग मुक्त है। जनसंघ के संस्थापक और हिंदू महासभा के बड़े नेता, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी अपनी विचारधारा की जड़ वहां नहीं जमा सके। आंदोलन और विरोध की कहानी पढ़नी हो तो बंगभंग आंदोलन के बारे में एन ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन के लेखक, नीरद सी चौधरी का लिखा पढ़ लीजिये।
अमित शाह के कोलकाता रोड शो की जो तस्वीरे सोशल मीडिया पर दिख रही हैं उनमें राम सीता हनुमान के स्वांग भी पैदल चलते नज़र आ रहे हैं। पीछे रथारूढ़ अमित शाह। रावण रथी, विरथ रघुवीरा का प्रसंग याद आ गया। यह एक राजनीतिक दल के चुनाव के प्रचार का रोड शो है या रामलीला का धार्मिक जुलूस ? यह स्वांग राम और हनुमान की मर्यादा बढ़ाता है या इससे उनकी मर्यादा का हनन होता है ? भाजपा ने जितनी अधिक राम की दुर्गति मनसा वाचा और कर्मणा की है उतनी दुर्गति राम की किसी ने भी नहीं की। कभी उनका आशियाना गिरा कर, कभी आहनी दीवारों से घिरे तंबू में रख कर तो कभी पिछले तीस साल से मंदिर वहीं बनाएंगे का राष्ट्रीय झांसा उद्घोष कर के।
अवध और काशी क्षेत्र में रामलीलाओं की एक समृद्ध परम्परा है। कहते हैं, बनारस में रामलीला की शुरुआत गोस्वामी तुलसी दास जी ने की थी। काशी की रामलीलाओं में रामनगर की रामलीला तो अलग और विशिष्ट क्षवि और स्थान तो रखती ही है, इसके अतिरिक्त हर मुहल्ले की रामलीला होती है। इन सबके नियमित कार्यक्रम, दशहरा के कुछ दिन पहले से ही अखबारों में छपने लगते हैं। बचपन से ही नाटी इमली का भरत मिलाप, चेतगंज और दारानगर की नक़्क़टैया के मेले देखने का बहुत अवसर मुझे मिला है। इन सभी मेलों और रामलीला में राम सीता हनुमान आदि पात्रों का लोग उम्र के बंधन को छोड़ कर प्रणाम और चरण स्पर्श करते हैं और आशीर्वाद लेते हैं। रामनगर की रामलीला और नाटी इमली के भरत मिलाप में तो काशी नरेश खुद ही इनकी पूजा अर्चना करते हैं और इनसे आशीष ग्रहण करते हैं। यह इस लिये कि इन पात्रों को केवल एक अभिनेता की ही तरह नहीं देखा और समझा जाता है, बल्कि उन देवताओं का रूप ही समझा जाता है जिनका वे अभिनय करते हैं। यह आस्था और विश्वास है और तर्कों से परे भी है।
पर कोलकाता के रोड शो में यह रामलीला क्यों उतारी गयी ? उस रोड शो में न तो राम महत्वपूर्ण थे न उनके प्रतीक, न स्वांग, न जय श्रीराम का उद्घोष बल्कि यह सारा ढकोसला केवल रोड शो को धार्मिक और साम्प्रदायिक स्वरूप देने का था। भाजपा को यह समझना होगा कि रामकथा और रामलीला के ये महान पात्र और मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने उसके लिये वोट खींचने के उपकरण के रुप मे अवतार नहीं लिया थे। पर आज भाजपा ने अपने रोड शो में इनको पैदल चला कर इनका न केवल मज़ाक़ बनाया बल्कि उन्माद फैलाने की भी कोशिश की है। कल्पना कीजिये, इन प्रतीकों में से किसी को कोई मार देता या घायल कर देता तो उसका कितना साम्प्रदायिक तमाशा बनता । चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार में धर्म के प्रतीकों को लेकर प्रधानमंत्री और भाजपा द्वारा लगातार किये जा रहे इस्तेमाल पर कोई अंकुश नहीं लगाया और उनकी आचार संहिता उल्लंघन के मामलों को जानबूझकर नजरअंदाज किया। और अब भी आयोग का ऐसा करने का न तो इरादा है और न ही साहस। क्या एक चुनावी रोड शो में रामकथा के इन प्रतीकों को देख कर, आस्थावानों की आस्था का हनन नहीं होता है ? राम और रामकथा के पात्र भाजपा के चुनाव प्रचार के उपकरण बन गए हैं।
अमित शाह के रोड शो में राम और हनुमान के स्वांग की ज़रूरत क्यों पड़ती है ? धर्मिक नारे जय श्री राम की ज़रूरत क्यों पड़ती है ? देश मे जितने भी प्रान्त हैं, भाषाएं हैं, समाज हैं उन सबकी अलग अलग संस्कृति और सभ्यता है। सनातन धर्म खुद ही नाना प्रकार के मतवादों में बंटा हुआ है। पर मूल इसका एक ही है। बंगाल में जन मानस राम से उतना जुड़ा नहीं है जितना शक्ति से जुड़ा है। वहां दुर्गापूजा की परंपरा है रामलीलाओं की नहीं। वहां दीपावली से अधिक काली पूजा के रूप में यह पर्व जाना जाता है। फिर यह चुनाव न तो धर्म के मुद्दे पर हो रहा है और न ही संस्कृति के मुद्दे पर। चुनाव तो सरकार बनाने के लिये पांच साल के काम और अगले वादों पर हो रहा है। फिर इसे धर्म के आवरण में क्यों प्रस्तुत किया जा रहा है ? क्या इसलिए कि चुनाव आयोग अपना आदमी है ?
© विजय शंकर सिंह
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