19 मई को लोकसभा चुनाव 2019 का अंतिम चरण पूरा हो गया और परंपरा के अनुसार, सभी न्यूज़ चैनलों ने अपने अपने अनुमाम के अनुसार एक्जिट पोल के नतीजे जारी कर दिये। एक्जिट पोल अनुमान होते हैं और उनका प्रमाणों से कोई सम्बंध नहीं होता है। लेकिन इस बार के चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि यह चुनाव, सरकार जिस लिये चुनी जाती है उन मुद्दों से कोसों दूर रही और सत्तारूढ़ दल का चुनाव प्रचार अपनी सरकार की उपलब्धियों पर नहीं, बल्कि इतिहास, धर्म, और भंजक राष्ट्रवाद के मुद्दों पर केंद्रित रहा। अगर सत्तारूढ़ दल अपनी उपलब्धियों से मुंह चुराता हुआ, धर्म की खोल में शरण लेता हुआ दिखता है तो यह सरकार की विफलता है और सरकार की इस विफलता को ही ढंकने तोपने के लिये वे सारे मुद्दे उठाए गए जो जनता की मूलभूत समस्याएं, रोजी रोटी शिक्षा और स्वास्थ्य से दूर थे। यहां तक कि सरकार ने अपने उन कदमों की भी चर्चा करने से परहेज किया जिनको मास्टरस्ट्रोक बताया गया था। लंबे चुनाव प्रचार के दौरान यह कभी लगा ही नहीं कि यह चुनाव गवर्नेंस, 2014 के चुनावी वादों, या भविष्य की किन्ही योजनाओं पर हो रहा है।
सरकार की कुछ मास्टरस्ट्रोक कही जाने वाली योजनाओं की ओर नज़र डालते हैं, जिन्हें चुनाव का मुद्दा भाजपा को बनाना चाहिये था। लेकिन उन्हें मुद्दा बनाना तो दूर, उनकी चर्चा तक नहीं की गयी। यह इसलिए कि इन कथित मास्टरस्ट्रोक वाली योजनाओं के क्रियान्वयन में सरकार बुरी तरह विफल रही। इनकी समीक्षा आज के विमर्श में करते हैं।
महत्वाकांक्षी योजना नोटबंदी की बात कीजिए तो शायद ही दुनिया की किसी योजना के अमल में इतनी अधिक प्रशासनिक चूकें और कन्फ्यूजन रहा होगा, जितना इस योजना में रहा है। नोटबंदी को एक ऐसी योजना के रूप में प्रचारित किया गया था जिससे यह आभास दिया गया था कि आतंकवाद, नक़ली नोट, और काला धन तीनों समस्याओं का समाधान हो जाएगा। पर यही नोटबंदी बाद में कैशलेस और लेसकैश इकोनॉमी में उलझ कर रह गयी। नोटबंदी के दौरान प्रशासनिक अक्षमता का यह आलम रहा कि प्रधानमंत्री को अंत ने सार्वजनिक रूप से गुजरात की एक जनसभा मे गिड़गिड़ाते हुये जनता से 50 दिन का समय मांगना पड़ा। 100 दिन में डेढ़ सौ शासनादेश कभी किसी ने किसी भी सरकार को जारी करते नहीं सुना होगा। पर नोटबंदी में यह कमाल भी हुआ। यह वह योजना थी जो प्रधानमंत्री ने खुद ही सार्वजनिक रूप से घोषित किया था। और अब यह भी तथ्य सामने आ रहे हैं कि रिजर्व बैंक से भी इसे लागू करने के लिये कोई राय मशविरा नहीं किया गया था।
जीएसटी कर प्रणाली का ही उदाहरण ले लीजिए। एक देश एक कर। कितना मनमोहक नारा है। यह प्रणाली भी ठीक है। लेकिन इसके जटिल प्रक्रियागत क्रियान्वयन का परिणाम यह रहा कि छोटे और मझोले व्यापार पर विपरीत असर पड़ा। इसका सीधा असर अनौपचारिक सेक्टर की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। परिणामस्वरूप बाजार में मंदी आयी और लोग बेरोजगार हुये। कर संग्रह भी घटा। जीएसटी में करों के पांच स्लैब, जटिल और बहुआयामी रिटर्न भरने की प्रथा ने व्यापारियों को इसके खिलाफ खड़ा कर दिया। अभी तक सरकार यह तय नहीं कर पायी है कि आखिर इससे उत्पन्न जटिलताओं से निपटा कैसे जाय ? करापवंचन एक बड़ी समस्या है। उम्मीद थी कि जीएसटी की कर व्यवस्था पारदर्शी होगी और इससे करों की चोरी रुकेगी, पर अभी तक इस समस्या का भी समाधान नहीं हो पाया है। इस कर प्रणाली को और सरल तथा त्रुटिरहित बनाना होगा ताकि कर चोरी भी कम से कम हो, और कर संग्रह के भी लक्ष्य प्राप्त हो सकें।
आतंकवाद एक ज्वलंत मुद्दा है और भारत इस समस्या से अस्सी के दशक से पीड़ित है। पहले पंजाब उससे पीड़ित था अब कश्मीर पीड़ित हो गया है। कश्मीर में भाजपा पीडीपी के साथ शासन में थी। दोनों विपरीत विचारधारा की यह एक साझा सरकार थी। कश्मीर की राजनीति में पीडीपी की सहानुभूति हुर्रियत नेताओं जो अलगाववादियों का संगठन है, के साथ पहले से है और मुफ़्ती मुहम्मद सईद जो महबूबा मुफ्ती के पिता थे ने अपने अनेक बयानों में अलगाववादियों के प्रति नरम दृष्टिकोण की बातें की हैं। पीडीपी भाजपा का यह साझा गठबंधन भाजपा के दर्शन, नीति और सोच के बिल्कुल उलट था। फिर भी यह साझा सरकार बनी और सरकार तीन साल चली। पर इसी सरकार ने कश्मीर घाटी के दस हज़ार पत्थरबाज़ों के खिलाफ दर्ज मुक़दमे वापस लेने का निर्णय किया। क्यों ? पहले तो बीजेपी ने इस मुकदमा वापसी के निर्णय को महबूबा मुफ्ती का निर्णय बताया, पर बाद में महबूबा मुफ्ती ने स्पष्ट कर दिया कि इस फैसले में केंद्रीय गृह मंत्रालय की भी सहमति थी। इन मुकदमों की वापसी से न केवल सुरक्षा बलों का मनोबल गिरा, बल्कि पत्थरबाज़ों का हौसला भी बढ़ा। आज अगर ये मुक़दमे अदालतों में चलते होते तो पत्थरबाज़ों पर कानून का मानसिक दबाव तो रहता । अदालती फैसला जो भी होता पर जब तक मुकदमा चलता इन पत्थरबाजों और इन्हें उकसाने वाले सफेदपोश नेताओं पर एक मानसिक दबाव तो रहता। मुकदमा वापसी एक बड़ी चूक थी, जो भाजपा सरकार ने की थी। अगर पीडीपी मुक़दमा खत्म करने की ज़िद पर अड़ी थी तो इसी मुद्दे पर सरकार से भाजपा को हट जाना चाहिये था। आखिर कुछ महीने बाद सरकार से भाजपा ने अपना समर्थन वापस लिया भी।
अब एक नज़र बैंकों के बढ़ते एनपीए पर डालिये। बैंकों का एनपीए बेतहाशा बढ़ रहा है। और जब सरकार से इसका कारण पूछा जाता है तो वह कहती है कि यूपीए सरकार ने अनाप शनाप लोन बांटे जो एनपीए हो गए। यह बात मान भी ली जाय तो अनाप शनाप लोन बांटने वाले बैंकों और उसके अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने से इस सरकार को किसने रोका था ? सभी बैंकों से बड़े ऋणों की सूची बना कर अनाप शनाप सिफारिशों के आधार पर लोन बांटने वाले बैंकों के अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही की गयी होती तो कम से कम भविष्य में ऐसे अनाप शनाप लोन बांटने से बैंकों के अधिकारी बचते। लेकिन यूपीए काल के ऋण देने वाले बैंकों के अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करना तो दूर की बात, यह परंपरा बीजेपी के काल मे भी चालू रही। परिणामस्वरूप बैंकों की हालत और खराब हो गयी।
बैंकों के अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही न करने का मुख्य कारण यही था यूपीए काल मे जिन पूंजीपतियों को बैंकों ने अनाप शनाप कर्ज़ बांटा, वे ही पूंजीपति बीजेपी राज में इस सरकार में साथ हो गए। यह क्रोनी कैपिटलिज़्म यानी गिरोहबंद पूंजीवाद है। पूंजीपतियों का गिरोह, नेता और नौकरशाह के साथ मिल कर एक कॉकस बना लेता है और फिर सभी योजनाएं, पूंजीपतियों के हित के अनुसार ही न केवल बनती हैं बल्कि यह कॉकस उन्ही हितों के आधार पर उनका क्रियान्वयन करता है।
पूरे पांच साल के भाजपा कार्यकाल में पश्चिम बंगाल की कानून व्यवस्था सबसे ज्वलंत मुद्दा रहा। भारतीय जनता पार्टी के एक आम समर्थक से लेकर पार्टी अध्यक्ष तक का यह कहना है कि बंगाल में अराजकता है। रोज कोई न कोई खबर छापी जाती है कि वहां दुर्गापूजा रुक गयी। हिंदुओं पर अत्याचार हो रहा है। मालदा के दंगों से लेकर अवैध रूप से बांग्लादेशी लोगों और रोहिंगयों तक के बंगाल में पसर जाने आदि आदि की खबरें खूब प्रसारित की गयीं। किसी ने ममता बनर्जी की नेहरू के पुरखों के आधार पर उनकी वंशावली मुस्लिम से ढूंढ ली। किसी ने यह घोषणा कर दी कि बंगाल तो हांथ से गया और या तो पाकिस्तान बन जायेगा या बांग्लादेश में समा जाएगा। पर इस अराजकता से निपटने के लिये केंद सरकार ने पिछले पांच सालों में क्या किया ? केंद्र सरकार के पास किसी भी राज्य सरकार से अधिक शक्ति और संसाधन होते हैं। फिर क्यों नहीं राज्य में बढ़ रही अराजकता के संबंध में सूचनाएं एकत्र कराकर राज्यपाल की रिपोर्ट लेकर ममता बनर्जी की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया ? संविधान की धारा 356 का प्राविधान, इसीलिए तो है। केंद्र सरकार को अगर यह विश्वास और समाधान हो जाय कि राज्य की प्रशासनिक और संवैधानिक मशीनरी अराजकता की ओर जा रही है तो वह ऐसा निर्णय ले सकती है। उसने ऐसा निर्णय क्यों नहीं लिया ? या तो यह सारे आरोप सच नहीं हैं या सरकार काम करना नहीं जानती, अकर्मण्य और अक्षम है।
2014 में आने वाली भाजपा सरकार का अपना वैचारिक एजेंडा जो भी रहा हो, पर जनता ने इस सरकार को यूपीए 2 के भ्रष्टाचारी राज के विरुद्ध और सबका साथ सबका विकास के लिये जनादेश दिया था। निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी का जनाधार था और लोगों ने दीवानों की तरह यह सरकार चुनी थी। पर सरकार के बनने के बाद जो घटनाएं घटीं उससे उस जनता का मोह भंग ही हुआ जिन्होंने एक बेहतर प्रशासन के लिये इस सरकार को चुना था। घर वापसी, गौरक्षा, बीफ के मुद्दे पर जितना तमाशा और हंगामा इस सरकार के कार्यकाल में हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ। मॉब लिंचिंग, भीड़ हिंसा धर्म और जाति के आधार पर हिंसा आदि की घटनाओं और इन घटनाओं पर भाजपा सरकार की शातिर चुप्पी ने जनता के मन मे सरकार के विरुद्ध विपरीत भाव पैदा किये। यह सारे मुद्दे भले ही भाजपा और संघ के कोर वोटर को रास आये हों पर इससे उन सबको निराशा हुयी जिन्होंने बेहतर प्रशासन के लिये इस सरकार को चुना था।
2014 की सफलता का सबसे बड़ा कारण था लोगों के मन मे यूपीए 2 के शासनकाल में हुए भ्रष्टाचार के आरोपों से उपजा आक्रोश था। पर इस मुद्दे पर भी सरकार विफल रही। लोकपाल की नियुक्ति तब हुयी जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की बात की। भाजपा नेताओं और मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर सरकार ने कोई उल्लेखनीय कार्यवाही नहीं की बल्कि यह कहा गया कि एनडीए में इस्तीफे नहीं होते। इसी सरकार के कार्यकाल में राफेल सौदा हुआ। इसको लेकर सरकार के ऊपर अनिल अंबानी के रिलायंस कम्पनी को ऑफसेट ठेका दिलाने का आरोप लगा। सरकार ने हरचंद कोशिश की कि यह मामला दबे पर सुप्रीम कोर्ट में दायर पीआईएल की सुनवायी और अदालती कार्यवाही के दौरान सरकार द्वारा अदालत में रखे गए पक्षों में विरोधाभास से सरकार की ही किरकिरी हुयी। यूपीए 2 काल के भ्रष्टाचार पर कोई उल्लेखनीय कार्यवाही न होने से भी यह भावना बलवती हुयी कि भ्रष्टाचार के मामले में एनडीए सरकार भी यूपीए से अलग नहीं है।
आप मानिये या न मानिये भाजपा के नेताओ में शासन करने की कला यानी प्रशासनिक क्षमता का अभाव है । शासन और प्रचार में मौलिक अंतर यह है कि शासन या प्रशासन दोनों ही नियम और कानूनों के अनुसार ही होते हैं, जब प्रचार के लिये ऐसी कोई बाधा नहीं है। भाजपा को एक अच्छा और स्वतंत्र बहुमत मिला था। नरेन्द्र मोदी अपने प्रभाव के कारण पार्टी और सरकार दोनों में ही मज़बूत थे। भाजपा का अपना जनाधार भी है। पर पिछले पांच सालों में सरकार ने उन वादों के लिये ऐसा कुछ नहीं किया जिसका यहां उल्लेख किया जा सके। संकल्पपत्र 2014 के वह वादे चाहे वे 100 स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, अपराधी जनप्रतिनिधियों के मुकदमों की त्वरित सुनवायी के हों या भाजपा के कोर वादे राममंदिर निर्माण, संविधान की धारा 370 और समान नागरिक संहिता के लागू करने के हों, किसी पर कोई उल्लेखनीय प्रयास भी नहीं किया गया।
इसके विपरीत लोगों की नौकरियां गयीं, समाज धर्म और जाति के आधार पर बंटा, आर्थिक मंदी दस्तक देने लगी, चुनावी बांड की गोपनीयता से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदो में काला धन खपा, अपराधी और आतंकी तत्वों का चुनावी राजनीति में प्रवेश बढ़ा, राजनैतिक मतभेद व्यक्तिगत मनभेद पर उतर आया, प्रतिशोध की राजनीति शुरू हो गयी, महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थान आरबीआई, सीएजी, निर्वाचन आयोग के कार्यप्रणाली में उल्लेखनीय गिरावट आयी। भाजपा ने अपनी प्रशासनिक अक्षमता का ही परिचय दिया। अच्छे और योग्य नौकरशाह हतोत्साहित किये गए। जी जहाँपनाह जैसी संस्कृति के नौकरशाहों को जानबूझकर कर बढ़ावा दिया गया। साथ ही भाजपा में जिन कुछ लोगों मे प्रशासनिक क्षमता है, वे जानबूझकर दरकिनार भी इस अवधि में कर दिये गए ।
अगर भाजपा इस चुनाव में जीत कर सरकार बना भी लेती है तो भी जनता की मूल समस्याएं खत्म नहीं होगी। 2014 के वायदे नेपथ्य में नहीं जाएंगे बल्कि 2014 से 2019 के बीच उठाये गए आर्थिक कदम जिनसे आर्थिक मंदी के हालात बन रहे हैं, वे और मुखरित होंगे। अब सरकार के पास यह बहाना भी नहीं रहेगा कि यह पिछली सरकार की देन है, क्योंकि पिछली सरकार तो यही थी। अगर परिणाम एक्जिट पोल से उलट आते हैं और सरकार बदलती है तो उस सरकार को आर्थिक मुद्दे पर ठोस कदम उठाना होगा। देश की सुरक्षा, राष्ट्रवाद, अस्मिता आदि बड़े लुभावने शब्द हैं, पर इन सबका देश, जनता और समाज की आर्थिक स्थिति का बड़ा प्रभाव पड़ता है। विपन्नता के महासागर में समृद्धि के द्वीप समेटे समाज और देश के सामने सुरक्षा, राष्ट्रवाद और अस्मिता के मुद्दे बहुत मायने नहीं रखते हैं। देश और जनता की आर्थिक समृद्धि सबसे बड़ा मुद्दा और किसी भी सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है।
© विजय शंकर सिंह
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