Saturday, 1 April 2017

मूर्खता का आनंद लोक / विजय शंकर सिंह

मूर्खता का अपना एक अनोखा आनंद लोक होता है । वह बाहर के मौसम से अनजान और सबसे बेखबर अफीम की पिनक से संतृप्त और उनींदी आँखों में डूबा हुआ, खुद को दासानुदास की श्रेणी पर रख कर, एक मिथ्या अभिमान की चाशनी में पगा जीवन जीता रहता है । पहली अप्रैल को मूर्ख दिवस क्यों दुनिया भर के लोग मनाते हैं इसके बारे में गूगलेश्वर अनेक कथा उपकथा सुना जाएंगे । पर मूर्खता है क्या यह यो खुद को ही समझना होगा । हम सब कभी न कभी मूर्ख बनते हैं और छले जाते हैं । पर हम मूर्ख बनते और छले जाते क्यों है, कभी जब इसके भीतर घुसिये तो पता लगेगा कि इसका एक कारण विश्वास है । विश्वास का शोषण ही मूर्खता का एक पर्याय हो सकता है । विश्वास का शोषण, दोहन और इसका दुरूपयोग ही अंततः जा कर मूर्खता और छलना में बदल जाता है । पर बिना विश्वास के जिया भी तो नहीं जा सकता । बचपन से पढ़ते आये हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । इतनी मेधा, इतनी उर्वर और असीमित कल्पना शक्ति के बावजूद हम भी एक प्राणी हैं । अमूमन प्राणी के दार्शनिक अर्थ पर न जाते हुए इसके लौकिक और सामान्य अर्थ पर ही खुद को रख रहा हूँ । लेकिन समाज तो अन्य प्राणियों का भो होता है । झुण्ड में तो बहुत से जानवर रहते हैं । सबसे बलवान जानवर जिसके साथ हम सामंजस्य जोड़ कर गर्व का अनुभव करते हैं , यानी शेर वह भी एकल नहीं रहता है । सबसे समझदार समझा जाने वाला हांथी तो जंगलों में झुण्ड के झुण्ड ही रहते हैं । सबसे छोटे और जन्तु विज्ञान की दृष्टि से सबसे निम्न चींटी और मधुमक्खियों का तो एक विकसित और नियंत्रित समाज ही होता है । फिर अगर हम मनुज , जो बड़े भाग्य से मानुष तन प्राप्त करते हैं या किये हैं , अगर सामाजिक प्राणी है तो कौन सी बड़ी बात है ।

हमारी सामाजिकता एक परम्परा से विकसित होती रही है । आदिम युग से जैसे जैसे आवश्यकताएं बढ़ती रहीं हम तदनुसार विकास करते रहे । हर तत्कालीन युग में आधुनिक रहे क्यों कि आधुनिकता तो सापेक्ष है । बिलकुल वैसे ही जैसे पिछली सदी की तुलना में हम इस सदी में आधुनिक हैं , और अगली सदी में आने वाली पीढी हमे प्राचीन और दकियानूसी ठहरायेगी । यह सिलसिला तरक़्क़ी का सदैव गतिमान है । यह अग्रगामी है, और जब जब इतिहास की गति मोड़ने की कोशिश की जायेगी तो वह समाज को हानि ही पहुंचाएगी ।

मनुष्य की सामाजिकता , प्राणियों की सामाजिकता से भिन्न है । जानवर अपने समाज में रहता है , खाता , पीता, प्रजनन करता और श्रम करता हुआ अपनी उपयोगिता भी सिद्ध करता है । वह हमारे जीवन का आधार भी कभी रहा है । हम मानव जाति के विकास की कल्पना ही उन पालतू पशुओं के श्रम के योगदान के बिना नहीं कर सकते हैं । पर इन सबके बाद भी उन पशुओं में अपने श्रम और श्रम से उत्पन्न उत्पाद की सुविधा लेने का न तो सामर्थ्य है और न ही इसकी समझ । मानव को अपने श्रम का महत्व ज्ञात है । वह उस श्रम से उत्पन्न उत्पाद का सुख भोग सकता है और भोगता भी है और उसका परिष्कार भी समय समय पर करता है । यहां हम एक उच्चतर प्राणी ठहरते हैं ।

जानवर हांके जा सकते हैं । उन्हें रेहड़ में समेट कर बेचा और खरीदा जा सकता है । पर मनुष्यो के साथ आज यह संसार के किसी भी समाज में सम्भव नहीं है । लेकिन दुनिया भर में क्रीतदास शब्द सच में अस्तित्व था । मैं हुज़ूर आप का जरखरीद गुलाम हूँ । जर माने धन । धन से खरीदा गया गुलाम । अरेबियन नाइट्स की मज़ेदार कहानियां और मध्य पूर्व के मुल्क़ों की पुरानी लोक कथाएं पढ़िए आप को हर कथा में ऐसे गुलामों का ज़िक्र मिलेगा । उनको मुक्त करने के सराहना भरे शब्द मिलेंगे । खुद मूसा को भी मिश्र के फारोह ने मुक्त
कर उनके क़बीले बनी इस्रायल को इजरायल की ज़मीन दी थी । उसी भूमि पर स्थित कोहे तूर पर उन्हें ईश्वर की आवाज़ सुनायी थी और दस परमादेश मिले थे और सेमेटिक धर्मों में सबसे पुराना धर्म यहूदी धर्म का प्रारम्भ हुआ था । वह दासत्व से मुक्ति का आनंद था । लेकिन वैसे दासत्व के उदाहरण भारतीय सभ्यता , संस्कृति और वांग्मय में नहीं मिलते हैं । यहां भक्ति का भाव मिलता है, समर्पण का भाव मिलता है पर दासत्व का भाव नहीं मिलता है । दासत्व के भाव का अभाव भी एक प्रकार की अधिकार चेतना है । अपने अधिकार के प्रति सजगता है ।अधिकार के प्रति सजग न रह कर हर परिस्थिति को दैव इच्छा मान लेना भी एक प्रकार की मूर्खता है । चाहे यह पहली अप्रैल हो या न हो ।

विश्वास मूर्ख बनने की प्रथम सीढ़ी है तो क्या हम सब अविश्वास करने लगें या विश्वासहीन समाज में आ जाएँ ? यह तो और भी त्रासद होगा । विश्वास और भरोसे के साथ हम सवाल उठायें । सवाल पूछें । यह सवाल उठाना न केवल हमारी मेधा और मस्तिष्क को धार देगा बल्कि हमें छले जाने से बचाएगा भी । ऋग्वैदिक की एक कथा के अनुसार,  जब गुरु , शिष्य को हवन करने का निर्देश देते हुए अग्नि में हवन देने को कहता है कि शिष्य पूछ बैठता है , किस देवता को हवन दूँ । यह गुरु पर अविश्वास था या शिष्य सुलभ जिज्ञासा यह विवाद का विषय हो सकता है , पर गुरु ने प्रसन्नता से सारे देवों का नाम बता डाला और हवन कार्य आगे बढ़ा । ऐसी ही एक कथा नचिकेतोपाख्यान है । महान शंकराचार्य के शास्त्रार्थ से ले कर स्वामी दयानंद के शास्त्रार्थ तक यह बहस चलती रही है । सवाल उठते रहे हैं और जवाब भी दिये जाते रहे हैं । यह सवाल पूछने और बहस करने का अधिकार था । यह जीवंतता थी । यह वह अधिकार है जो हमें पशु से अलग करता है । प्रश्नवाचक चिह्न यानी ? किसने और कब अस्तित्व में आया यह तो पंक्चुएशन का इतिहास खंगालने वाले विद्वतजन ही बता पाएंगे । पर मैं सोचता हूँ यह टेढ़ा क्यों है । अंकुश की आकृति का यह चिह्न अपने आकार से ही कुछ को असहज बना देता है । पर उन सब का असहज बने रहना आवश्यक है जो हमे ढोर की तरह बाँध कर हांकना चाहते हैं । हांक कर उसी शाश्वत मूर्खता के बाड़े में बन्द कर देना चाहते हैं , जिसे वे दैव इच्छा कहते है । वह दैव इच्छा ही मूर्खता का आनंदलोक है । उस ' आनंद लोक ' से बाहर आइये ।

( विजय शंकर सिंह )

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