शब्द मेरे, अर्थ खो चुके हैं,
कितनी भी धार दूँ,
कही चुभते ही नहीं,
दिल में उतरते भी नहीं,
कितने भाव गढ़े,
जाने कहाँ कहाँ से ढूंढा ।
शब्दकोशों से लोगत तक,
खंगाल डाले सारे पन्नें,
कितना वाग्जाल फैलाया,
पर, शब्द, बने रहे.
जस के तस, ठस की तरह !
अब मैं मौन हूँ,
निशब्द, पर निर्भाव नहीं,
उतर रहा हूँ, अंतस में अपने.
काले उजले खोह में ,
खोज रहा हूँ, भटक कर,
जैसे रख कर कुछ भूल गया हूँ ।
मौन , एक विराम है ,
और है एक त्रासदी भी.
शब्दों को भुला कर,
मेरा मौन जब मुखरित होगा,
तब मेरे मित्र,
वह सारे शब्दों पर भारी होगा !!
© विजय शंकर सिंह
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