Tuesday, 4 April 2017

राम, अयोध्या और श्री राम संग्रहालय की अवधारणा / विजय शंकर सिंह

राम और कृष्ण भारतीय चेतना की आत्मा है । इनके अस्तित्व, इनसे जुडी कथाओं और असंख्य  क्षेपकों के बीच ये जुड़े हैं । राम की ऐतिहासिकता पर कभी भी बहस नहीं होती है । उनसे जुडी घटनाएं सदियों से उत्तर भारत के लोकनाट्य परम्परा का अंग बनी हुयी है । शायद ही कोई गांव ऐसा होगा जहां राम कथा से जुडी घटनाओं का मंचन लोक नाट्य जिसे हम रामलीला कहते हैं के माध्यम से नहीं होता हो । जिस समाज के दुःख और सुख के क्षणों में राम का ही उदगार अनायास निकल जाता हो वहाँ ऐतिहासिक प्रमाणों की बात करना बेमानी है । पर मनुष्य का अनुसंधत्सु भाव तो असीम है । वह सब कुछ जानना चाहता है । परा या अपरा सब में वह विचरना चाहता है । सवाल बराबर उठते हैं कि वह अयोध्या कौन थी जहां राम जन्मे थे, वहाँ ठुमकते राम की पैजनियाँ के स्वर जीवित हैं या नाद ब्रह्म में लीन हो चुके हैं । वह आश्रम कौन सा था जहाँ विश्वमित्र उन्हें ले गए थे । मिथिला से अयोध्या का मार्ग, अयोध्या से राम वन गमन का मार्ग, सीता के निर्वासित अवधि के प्रवास स्थल, और फिर राम का समस्त भाइयों के साथ सरयू में प्रवेश का स्थान ,आदि आदि स्थानों का अभिज्ञान हो इसके लिए लोग सतत प्रयासरत भी रहते हैं । इतिहास लेखन की सामग्री में एक श्रोत तत्कालीन साहित्य भी होता है । पर वह साहित्य जस का तस इतिहास नहीं है । उसमे बहुत सी कथाएं अन्तरकथाएं और क्षेपक मिली जुली होती हैं और ऐतिहासिक तथ्य आप को उनमे से छांटने पड़ते हैं। लेकिन जब आस्था हावी हो तो निष्पक्ष इतिहास का छांटना बहुत मुश्किल होता हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार और भारत सरकार दोनों ही अयोध्या में राम संग्रहालय की योजना बना रहे हैं । इसके लिए भूमि की भी व्यवस्था हो गयी है । पर उस संग्रहालय में रखा क्या जाएगा इसका कोई ब्ल्यू प्रिंट तैयार हो तो हो पर वह अभी तक सार्वजनिक नहीं हुआ हैं। संग्रहालय की कोई कमी भारत में नहीं है । खुद उत्तर प्रदेश में ही मथुरा संग्रहालय, सारनाथ संग्रहालय, भारत कला भवन जैसे समृद्धि संग्रहालय स्थित हैं । मैंने तीनों संग्रहालय देखें है । तीनों संग्रहालयों में राम और कृष्ण से जुडी वस्तुएं नहीं है । लेकिन केवल पुरातत्व के ही आधार पर इन दो महान अवतारों को अस्तित्वहीन नहीं माना जा सकता है । पुरातत्व के ही विद्वान यह बता पाएंगे कि राम और कृष्ण से जुड़े स्थानों के उत्खनन की कोई योजना है या नहीं । मेरी राय में राम और कृष्ण से जुड़े स्थानों का पुरताविक उत्खनन होना चाहिए । कुछ मित्र यह आपत्ति उठा सकते हैं कि, अयोध्या में। जहां विवाद है उस स्थान का तो उत्खनन हुआ है । उनका कहना सच है । वहाँ उत्खनन हुआ है और एक मंदिर होने के प्रमाण मिले हैं । वह मंदिर विक्रमादित्य के समय का बना बताया जाता हैं। यह सारे पुरातात्विक प्रमाण अदालत में प्रस्तुत किये गए हैं । जब इन पर समझौता या अदालती निर्णय होगा तब होगा । अभी तो दोनों ही पक्ष अपने अपने स्टैंड पर अड़े हैं ।

राम संग्रहालय में राम कथा से सम्बंधित चित्र गैलरी , म्यूरल , राम के जीवन से जुड़े स्थानों के छाया चित्र और तत्कालीन परिवेश से युक्त मिट्टी की मूर्तियां उन परिवेशों को जीवंत करते हुए बनायी जा सकती हैं । देश के समस्त भागों और दक्षिण पूर्व एशिया में राम कथा और राम लीला की जो परम्परायें हैं उनकी भी झांकी प्रस्तुत की जा सकती है । पुरातात्विक उत्खनन से संग्रह योग्य राम कालीन कोई वास्तु मिलेगी या नहीं यह तो मैं नहीं बता पाउँगा पर लोक कथाओं, लोक गीतों और लोक में फैले विशाल साहित्य और कथाओं का एक संग्रह इस संग्रहालय को समृद्ध बना सकता है । संग्रहालय ऐसा हो जिस से राम और राम कथा को सभी अंगों का अध्ययन यहां किया जा सके । इसे अंतराष्ट्रीय स्तर का बना कर आधुनिक रूप दिया जा सकता है । राम को धर्म के जटिल और कर्मकांडीय स्वरूप से बाहर निकाल कर भारतीय संस्कृति के विराट मानस के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है । लेकिन आश्चर्य और दुःख तब होता है जब एक विराट व्यक्त्तिव और प्रेरक मर्यादा पुरुषोत्तम को महज सत्ता प्राप्ति के लिये एक अनावश्यक विवाद में घसीट लिया जाता है ।

महान समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया ने राम के इसी विराट स्वरूप को अपनाने का आह्वान किया था । लोहिया नास्तिक थे । ईश्वर की सत्ता में उन्हें यकीन नहीं था । राम का चरित भी तो मनुज का ही था । राम एक मर्यादापुरुष के रूप में उन्हें बहुत आकर्षित करते हैं पर वे सीता की अग्नि परीक्षा, सीता के निर्वासन और शम्बूक के प्रकरण पर राम की आलोचना भी करते हैं । डॉ लोहिया को राम , कृष्ण और शिव के चरित्र ने बहुत प्रभावित किया । राम भी सबके अपने अपने हैं । वाल्मीकि के राम, कंबन के राम, कृत्तिवास के राम, आध्यात्म रामायण के राम, तुलसी के राम , कबीर के राम, रैदास  और दादू के राम और गांधी के राम से ले कर विश्व हिन्दू परिषद के राम तक राम की एक सबल और समृद्ध परम्परा रही है । उसी राम के बारे में डॉ लोहिया ने भी चिंतन किया और राम को एक अलग दृष्टिकोण से देखा ।

जब राम और अयोध्या किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में भी नहीं थे तब डॉ लोहिया ने राम  और रामायण की बात की थी । लोहिया 1952 और 57 के लोकसभा का चुनाव हार चुके थे । देश के तत्कालीन राजनीति का सबसे ऊर्जावान और मेधावी नेता अपनी व्यापक प्रभाव के बावजूद भी लोकसभा में 1952, 57 और 62 को लोकसभा में नहीं पहुँच सका था । वे लोकसभा में पहुंचे थे 1963 के उपचुनाव और 1967 के आम चुनाव से । लोहिया एक राजनीतिक व्यक्तित्व ही नहीं वरन् एक चिंतक और दार्शनिक भी थे । राम उनके लिए अवतार से अलग हट कर एक सांस्कृतिक और मानवीय परम्परा के वाहक थे । 1961 में , जब न राम मंदिर विवाद में था और न राम का अस्तित्व तब उन्होंने रामायण मेला की परिकल्पना की थी । रामायण मेला की उनकी अवधारणा के पीछे देश के सांस्कृतिक एका का भाव था । 1973 में तत्कालीन मुख्य मंत्री कमलापति त्रिपाठी ने चित्रकूट में पहले रामायण मेले के उत्सव का शुभारंभ किया । तब तक लोहिया को दिवंगत हुए 6 साल हो गए थे । तब से हर साल रामायण मेला आयोजित रहा । तब राम सबके थे । उनका अपहरण किसी राजनीतिक दल ने सत्ता प्राप्ति की लालसा से नहीं किया था । इस मेले में राम कथा पर आधारित कथा, नाटक आदि आयोजित होते थे । चित्रकूट , जिसके बारे में यह उक्ति बहुत प्रसिद्ध है कि, जेहि पर विपदा परत है वोहि आवत एहि देस , राम के बनवास के दिनों का साक्षी है । राम ने अपने जीवन के कठिन समय का अधिकतर भाग यहीं व्यतीत किया था । जब उन्होंने यहां का प्रवास समाप्त कर के दक्षिणापथ की ओर प्रस्थान किया तभी और समस्याएं उनके सामने आयीं ।

1982 में अयोध्या में रामायण मेले का पहली बार आयोजन उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य मंत्री श्रीपति मिश्र के द्वारा उद्घाटन से प्रारम्भ हुआ था । अयोध्या में तुलसी संस्थान भी है । इसका उद्देश्य है राम कथा तथा राम साहित्य और इतिहास पर विशद शोध करना है । राम कथा भी अनेक हैं और इन सब में कथा वैभिन्य भी है । अन्य राम कथाओं में जहां सीता जनक की पुत्री और राम की पत्नी हैं वही कंबन के तमिल रामायण में वह रावण की पुत्री हैं जिसे रावण ने घर से बहिष्कृत कर दिया था और वह हल चलाते हुए जनक को मिली थी । कुछ अल्प अध्येताओं की भावना इसी बात से आहत हो सकती है कि सीता , रावण की पुत्री थी । हिंदी के प्रख्यात विद्वान ईसाई पादरी फादर डॉ कामिल बुल्के ने राम कथा पर एक अत्यंत विद्वता पूर्वक शोध ग्रन्थ लिखा है । उसमे उन्होंने भारतीय साहित्य परम्परा में राम कथा पर उपलब्ध सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर राम कथा का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है ।

पाकिस्तान की अवधारणा के जन्मदाता और प्रख्यात शायर अल्लामा इकबाल ने राम को इमाम ए हिन्द कहा है और एक बेहद खूबसूरत नज़्म उन पर लिखी हैं। पर 1986 से ऐसी ओछी और दृष्टिदोषी राजनीति चली कि सर्व -  आराध्य राम 1992 साल के जाते जाते एक राजनीतिक मुद्दे के रूप में बदल गए । आस्था का यह अफसोसनाक पतन है  लोहिया ने राम का खूब नाम लिया पर उस से राम और अयोध्या विवादित नहीं हुयेा । राम को उन्होंने सत्ता प्राप्ति के सोपान के रूप में नहीं देखा । राम, तब वोट बैंक के लिये किसी चुम्बक की तरह नहीं देखे गए । वह एक उदात्त सांस्कृतिक चरित्र की तरह भारतीय जन मानस में रम रहे हैं ।

( © विजय शंकर सिंह )

 

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