गांधी जी का देश की स्थिति से प्रथम साक्षात्कार चंपारण के एक अज्ञात किसान राज कुमार शुक्ल ने कराया था । असहयोग और सत्याग्रह के दो अद्भुत जन आंदोलन के तरीक़ों का दक्षिण अफ्रीका में प्रयोग कर के उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य को अपनी ताक़त का एहसास करा दिया था । जब दक्षिण अफ्रीका से वे जनरल स्मट्स से रुखसत होने के पहले मिलने गए तो, उन्होंने स्मट्स से उन बातों के लिए खेद व्यक्त किया जो ब्रिटिश राज ने गांधी के आंदोलन से उपजी स्थितियों को झेला था । गांधी को विदा करते हुए शायद ही स्मट्स ने सोचा होगा कि , गांधी का आकार और व्यक्तित्व इतना बढ़ जाएगा कि 1917 से 1948 तक का काल भारत के इतिहास में गांधी युग के नाम से जाना जाएगा । सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, असहयोग आदि शब्द दुनिया के राजनीतिक विरोध की किताब में अपना स्थान बना रहे थे और भारतीय जनता की यह दीवानगी थी कि वे भले ही गांधी के सिद्धांतो पर न चले पर गांधी को वे नकार नहीं पा रहे थे ।
अंग्रेज़ मूलतः एक नियम कानून से चलने वाली शासन व्यवस्था के अभ्यस्त थे । वे हर चीज़ और समस्या का समाधान किसी न किसी नियम अधिनियम पारित कर के ही करते थे । भीड़ ने निपटने के भी उनके नियम कानून थे । लेकिन उन्होंने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि, साबरमती आश्रम से 12 आदमियों का एक छोटा सा दस्ता चर्चिल के शब्दों में इस नंगे फ़क़ीर के साथ निकलता है और एक लंबी यात्रा के बाद सागर तट स्थित दांडी पहुँच कर सागर के जल से नमक जैसी साधारण पर उपयोगी चीज़ बना कर उसे मुट्ठी में भर कर उछाल देता है और जिस साम्राज्य के क्षेत्र में सूरज नहीं डूबता था , उसे चुनौती भी दे देता है । वे समझ ही नहीं सके कि कैसे इस अहिंसक आंदोलन से निपटा जाय । वही गांधी आज से 100 साल पहले चंपारण के निलहे किसानों की व्यथा कथा देखने सुनने राज कुमार शुक्ल के आमंत्रण पर वहाँ गए थे । नील का केमिकल खोज लिया गया तो, नील की खेती लाभदायक नहीं रही । तब किसानों की सारी व्यथा जो नील की खेती से जुडी थी अपने आप ही लगभग खत्म हो गयी । नील दर्पण जैसे मार्मिक बांग्ला नाटक आज पता नहीं पुस्तक के रूप में उपलब्ध हैं या आउट ऑफ़ प्रिंट हैं पर किसानों के कष्ट के वे दस्तावेज़ हैं जो उत्तर भारत के किसानों की दुर्व्यवस्था को संजोये हुए हैं ।
आज 100 साल बाद । किसानों का वही स्वरूप । बस स्थान परिवर्तन हुआ है । लंबे नाटकों में जैसे अंक बदलता है । आधुनिक तकनीक की तरह रिवॉल्विंग मंच की तरह, मंच पर वैसे ही भूखे नंगे किसान । पर स्थान , बिहार नहीं , तमिलनाडु, । भाषा हिंदी और भोजपुरी नहीं , तमिल या तमिल की कोई बोली । रंग रूप वस्त्र सब एक जैसे । व्यथा , दुःख दर्द, विपन्नता सब एक जैसी । बस वे निलहे ज़मीदारों के शिकार थे तो ये मौसम और सरकार की अन्यमनस्कता से पीड़ित हैं । निलहे मज़दूरों की व्यथा से दिल्ली की अंग्रेज़ी हुकूमत भी तब तक नहीं चेती जब तक कि वहाँ एक आंदोलन नहीं खड़ा हो गया और इन तमिल किसानों के आर्तनाद से वर्तमान सरकार आंदोलन के बाद भी भी नहीं पसीज सकी । आज 28 दिन से वहाँ के किसान सवाई राजा जय सिंह के बनवाये जंतर मंतर पर अपनी बात दिल्लीश्वरो को सुनाने के लिए इस गर्मी में गले में नर मुंड लटकाये अपनी भाषा में अपनी बात कह रहे हैं पर उसे कोई नहीं सुन रहा है ।
लोकतंत्र का एक अज़ीब पक्ष यह भी है कि वह ठस और संवेदनशून्य भी हो जाता है जब उसमे अवतारवाद के वायरस आ जाते हैं तो । 28 दिन के इस आंदोलन को उतनी कवरेज मीडिया से नहीं मिली जितनी बड़े सत्ताधीशों के वस्त्रों और भोजन को मिली, जितना एक पशु को मिली जो किसानों के ही दम पर ज़िंदा है, जितना उस मशीन को मिली जो निष्पाप कही जा रही है । पर दिल्ली के तीसरी पेजीय समाज को उन हतभाग्य किसानों का दर्द नहीं दिख रहा है । कल उनका सब्र टूटा और निर्वस्त्र हो कर, हमारी सरकार को अपनी व्यथा दिखाने और सुनाने निकल पड़े । पता नहीं खुदगर्जी में डूबी हुयी उन मादक और अधिकार सुख से पगी नशीली आँखों ने उनका कष्ट देखा या वे बिना देखे ही झपकती रहीं । अंग्रेज़ो की बनायी इमारतों ने भी शायद ऐसा मंज़र अपने राज में नहीं देखा होगा । क्या किसी भी मंत्री का यह दायित्व नहीं बनता कि वह गाड़ी घुमाता हुआ जंतर मंतर चला जाता और उन्हें आश्वस्त करता कि उनकी बात सुनी जायेगी ? संसद मौन है । मिडिया विरूदावली के स्तोत्र गढ़ रही है । इस संवेदन शून्यता में वे दल भी कम नहीं हैं जो गरीबों , किसानों, मज़दूरों और मज़लूमों की बात करते नहीं अघाते हैं । अगर यही बड़े उद्योगपतियों का मामला होता तो वित्त मंत्री यही रोना ले के बैठ जाते कि वह कर चुकाने की हैसियत में नहीं हैं और घाटे में हैं ।
आक्रोश के हिंसा में बदलते देर नहीं लगती है। हिंसा दूसरे को मारना ही नहीं है खुद को भी मारना है । आत्मघात को भले ही आप कमज़ोरी कहें पर यह साहस का भी काम है । सरकार को सोचना होगा कि इंसान पशु से श्रेष्ठ है । भूख अखाद्य भी खा जाती है । उसका कोई नियम नहीं होता है । उसकी कोई वर्जना नहीं है । सर्वभक्ष्यता आपद्धर्म भी है । आज 100 साल हो चुके हैं । किसानों की बदली स्थिति के बाद भी लगता है कि, चंपारण से तमिल नाडु तक कुछ भी नहीं बदला है । तार से चलने वाले स्टील के डायल वाले फोन से ले कर ऐपल की दुनिया तक , तमाम एप्प ने हमे समृद्ध तो बना दिया है पर संवेदना से हीन भी करता जा रहा है । जंतर मंतर एक वेधशाला है । जयपुर नरेश एक गणित ज्योतिषज्ञ भी थे । फलित के वे जानकर थे या नहीं यह मैं नहीं बता पाउँगा । पर ग्रह नक्षत्रो और सितारों की गति नापने के लिए बनाये गए जंतर मंतर पर सितारे इन विपन्न अन्नदाताओं की भी सुध लेंगे या नहीं , यही देखना है । एक संवेदन शून्य लोकतंत्र संवेदना से भरे किसी भी अन्य तंत्र की तुलना में बोझ ही होता है ।
( विजय शंकर सिंह )
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