लगभग सभी संवैधानिक संस्थाये कहीं न कहीं और कभी न कभी विवादों के घेरे में आ ही जाती हैं । ऐसी स्थिति जब भी उठे तो, उनके पक्ष में, उनके वकील बन कर मत खड़े रहिये । उस समय उस संस्था पर शक कीजिये , सवाल उठाइये और संस्था के प्रमुख पर दबाव डालिये कि वह सारी शंकाओं का समाधान करे और इस अग्नि परीक्षा में खरे उतरे । अग्नि परीक्षा एक सनातन परख की परम्परा है । स्खलन तो किसी भी संस्था का कभी भी हो सकता है । ऐसा कैसे दृढ निश्चय के कहा जा सकता है कि अमुक संस्था दोष रहित है । या अमुक संस्था की निंदा नहीं हो सकती है । जब संविधान के प्रावधानों पर बहसें हुयी हैं और उसे समय समय पर संशोधित किया गया है तो संवैधानिक संस्थाएं मात्र संस्थाएं हैं । संविधान नहीं हैं वे । न्यायपालिका जो सबसे अधिक अधिकार संपन्न और महत्वपूर्ण संस्था है क्या उस पर सवाल नहीं उठता है ? खूब उठता है । पर थोडा दबे स्वर से । थोडा स्वर और अंदाज़ का लिहाज करते हुए क्यों कि उनके पास उन सवाल उठाने वालों के खिलाफ कार्यवाही करने का अधिकार होता है । लेकिन जब उन्ही के क़बीले का एक जज जस्टिस कर्णन खड़ा हो गये तो वे भी थोडा किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में आ गए । वे यह सोच और समझ ही नहीं पा रहे हैं कि खुद की प्रतिष्ठा बचाएं या न्यायपालिका की साख । उन्होंने कभी यह कल्पना शायद ही की होगी कि कोई उनको उन्ही के अदालत में चुनौती दे देगा । लेकिन ऐसा हुआ है । पञ्च परमेश्वर के स्थान से जब जब न्यायपालिका डिगती है तो उसकी साख को बट्टा लगता है । अब हर व्यक्ति और हर संस्था लोगों के स्कैनर पर है । कानून जानने के लिए एलएलबी करना और कानून की मोटी मोटी किताबों को पढ़ना ज़रूरी नहीं है । कानून की बारीकियां भले ही समझ में न आये पर मोटा मोटी कानून तो गूगलेश्वर ही बता देते हैं । यह भी लगभग सर्वत्र और सर्वज्ञ तो हो ही चुके हैं । अपनी पुलिस सेवा के दौरान मैंने गांव के साधारण लोगों को भी फौजदारी कानून पर बहस करते देखा है । यह अलग बात है कि हम अपनी धमक और हनक से उन्हें तवज़्ज़ह नहीं देते थे ।
ऐसा ही एक सवाल चुनाव आयोग के समक्ष भी आज उठा है । किसी संस्था के सामने सबसे बड़ा संकट यह होता है कि वह अपने पूर्वाधिकारी के द्वारा खींची गयी रेखा के समानांतर चल कर उस से बड़ी रेखा खींचे और खुद को बेहतर साबित करें । हमारा सारा मूल्यांकन ही अतीत की उसी रेखा के ही आधार पर होता है । वह रेखा होती है उपलब्धियों की । जिसे हम ट्रैक रिकार्ड कहते हैं । और यह एक निर्विवाद तथ्य है । चुनाव आयोग में भी टीएन शेषन से पूर्व का जो काल था वह उतना चर्चित और हनक भरा नहीं रहा जितना टीएन शेषन का काल था । बहुत कुछ यह उस व्यक्ति के व्यक्तित्व और योग्यता पर भी निर्भर करता है कि वह उस संस्था का कैसे नैतृत्व करता है । 21 मई 1991 को जब राजीव गांधी की दुःखद हत्या तमिलनाडु में हो गयी तो उस समय चुनाव चल रहे थे । हत्या की सूंचना मिलते ही टीएन शेषन ने चुनाव 15 दिन के लिए स्थगित कर दिया । उस समय चंद्रशेखर जी देश के प्रधानमंत्री थे । उन्हें भी यह स्थगन के बाद ही चला । कुछ चरणों के चुनाव हो चुके थे पर कुछ चरण बाक़ी थे । यह आयोग की स्वायत्तता थी । आयोग आज भी स्वायत्त है । टीएन शेषन ने जो स्वतंत्र और स्वायत्त चुनाव की कई नयी परम्परायें स्थापित की । उन्होंने अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और आदेशों से यह दिखा दिया कि स्वायत्तता क्या होती है । वह संवेग अभी भी चल रहा है । आज भी आयोग उसी लकीर पर केवल चल ही नहीं रहा है बल्कि उसे बढ़ाने के लिये भी प्रयासरत है ।लेकिन जब जब बात चुनाव के निष्पक्षता की चलेगी तो शेषन के ही स्थापित मानदंडों पर आयोग का मूल्यांकन होगा । यह मानवीय प्रवित्ति है । इसी लिए हम खुद को बेहतर दिखाने के लिए पहले की उपलब्धियों की चर्चा कम कर के बताते हैं ।
संदेह की भी एक मनोवैज्ञानिक प्रवित्ति होती है । संदेह का जितना ही आक्रामक भाव से बचाव किया जाता है उतना ही वह और घनीभूत होने लगता है । एक बार संदेह का बीज अंकुरित हो जाय तो उसका निर्मूलन कठिन होता है । उस समय उस संस्था के प्रमुख और उस व्यक्ति का दायित्व अधिक बढ़ जाता है जिसके बारे में संदेह उत्पन्न हो चुका है । उसके समक्ष यह एक चुनौती की तरह होता है कि वह सारे संदेहों का निराकरण कर क्षरित साख को पुनः स्थापित करे । पुलिस के समक्ष ऐसी संदेहवादी समस्याएं अक्सर ही आती है । कभी गिरफ्तारी पर संदेह , तो कभी मुक़दमे की विवेचना पर संदेह तो कभी किसी अन्य बात पर संदेह उठता ही रहता है । पुलिस की साख का आलम यह है कि आप ढूंढते रहिये और कहीं मिल जाए तो मुझे भी बता दीजियेगा । साख के सबसे अधिक संकट से अगर कोई विभाग जूझ रहा है तो यही है । ऐसे संदेहों पर प्रेस और मिडिया के सामने सारे सुबूत , बरामदगी, मुल्ज़िम भी प्रस्तुत किये जाते हैं ताकि लोगों को सच का पता लगे और लोगों में विश्वास बढ़े । हालांकि यह सब कानून की नज़र में उचित नहीं है लेकिन यह सिर्फ इस लिए किया जाता है कि लोगों में भ्रम न फैले । जब केपीएस गिल पंजाब के डीजीपी थे तो, उनके समय में भी दरबार साहब अमृतसर स्वर्ण मंदिर में खालिस्तानी आतंकी घुस गए थे । उन्हें वहाँ से निकालना था । ऐसे ही एक बार 1984 में भी जब भिंडरावाला के नेतृत्व में खालिस्तानी आतंकी घुस कर दरबार साहब को अपना अड्डा बना कर पूरे पंजाब में कहर फैला रहे थे तो उन्हें भी वहाँ से निकाला गया था । ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के नाम से सेना ने उन्हें खाली कराने का अभियान छेड़ा था । उसमे भिंडरावाला मारा गया था और दरबार साहब खाली भी हुआ पर दरबार साहब को बहुत ही क्षति पहुंची थी । उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी । लोगों ने सेना के शौर्य की प्रशंसा खूब की पर कुछ ने उस कदम को आत्मघाती भी बताया । परिणाम पंजाब लम्बे समय तक जलता रहा और श्रीमती गांधी की हत्या हो गयी । गिल साहब के समय जो ऑपरेशन ब्लैक थंडर हुआ था वह बहुत ही धैर्य और सोच समझ कर किया गया अभियान था । यह अकेला आतंक विरोधी ऑपरेशन था जो मीडिया को आमंत्रित कर के उनके सामने हुआ था । मिडिया ने इस ऑपरेशन की कवरेज भी खूब की । इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि पुलिस कार्यवाही की आलोचना नहीं हुयी । बल्कि जिन कठिन परिस्थितियों में जवान वहाँ आतंकवाद से जूझ रहे थे, वह जनता के सामने आयइस ऑपरेशन से पंजाब पुलिस की गिरी हुयी साख स्थापित हुयी और जनता का भरोसा बढ़ने लगा जिसके कारण दो साल के अंदर पंजाब सामान्य हो गया । मैं 1989 में भी सरकारी काम से पंजाब गया था । अभी पिछले साल फिर जाना हुआ था । 1989 में लगता था कि पंजाब तो हाँथ से गया और पिछले साल जब गया था तो लगा कि, पंजाब में आतंकवाद कभी रहा ही नहीं है । यह साख का महत्व है । और इस संकट से केवल एक योग्य और स्वतंत्र चेता मस्तिष्क और इच्छा शक्ति का नेतृत्व ही उबार सकता है ।
आज यही साख का संदेह चुनाव आयोग के समक्ष उठ रहा है । लोग तो ज़ालिम हैं । हर एक बात पर ताना देते हैं । लेकिन इन तानों का जवाब संस्था को ही देना होगा । चुनाव आयोग ने जितने भी चुनाव कराये उन पर कभी एक संस्था के रुप में सवाल नहीं उठा । ऐसा भी नहीं कि पहले आरोप नहीं लगते थे । जब मशीन नहीं थी तब भी आरोप लगते थे । कभी बक्सा लूटने की, कभी बदलने की, तो कभी वोटों की गिनती में कुछ नम्बर से जिता और हरा देने की । बूथ कब्ज़े और बक्से उठा कर फेंक देने की घटना तो मेरे सामने कई बार हुयी है । पर जब भी चुनाव आयोग को जिला मजिस्ट्रेट और आब्जर्वर से कोई प्रतिकूल टिप्पणी मिली , उस पर चुनाव आयोग ने चुनाव रद्द कर पुनर्मतदान कराया है । यह परम्परा आज भी है । पर अब जब मशीन पर अंगुलिया उठ रही हैं तो आयोग को ही इसका समाधान करना चाहिए । यह जो पाला खिंच गया है कि एक पक्ष कहता है मशीन में गड़बड़ी हो सकती है और एक पक्ष कहता है यह असंभव है , यही इस संदेह को बढ़ाएगा । यह संदेह 2017 के यूपी चुनाव से नहीं उठा है । यह उठा है 2009 के लोक सभा के चुनाव के समय । तब से कई मुक़दमे अदालतों में लंबित हैं । अब इस विवाद पर और कोलाहल हो रहा है । मुख्य निर्वाचन आयुक्त इस विवाद को गंभीरता से लें । इसे राजनीतिक दांव कह कर नहीं टाला जा सकता है । बार बार यह कहना कि मशीन में छेड़छाड़ सम्भव नहीं है एक बचकाना तर्क है । जो भी आपत्ति लगा रहे हैं उनसे लिखित आपत्तियां मांग कर उन्हें और उसके निराकरण के प्रयास को सार्वजनिक किया जाय । साख का क्षरण यदि एक बार हो गया तो उस दलदल से निकलना कठिन होता है । नसीम ज़ैदी साहब एक वरिष्ठ , अनुभवी और दक्ष अधिकारी हैं । उम्मीद है वह टीएन शेषन द्वारा खींची गयी रेखा मिटने और धुंधली नहीं होने देंगे और उनसे बेहतर प्रतिमान स्थापित करेंगे ।
( विजय शंकर सिंह )
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