Tuesday, 18 April 2017

हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना - भगत की गत / विजय शंकर सिंह

( धार्मिक स्थलों और धार्मिक अयोजनों में लाउड स्पीकर का मामला थोडा लाउड होने लगा तो मुझे पारसाई जी की यह व्यंग्य रचना याद आयी । सारे धर्म स्थान , ईश्वर के सर्वप्रिय सिद्धांत कि वह सर्वत्र है, कण कण में विद्यमान है, सब कुछ उसी की मर्ज़ी से होता है और एक पत्ता भी नहीं उसकी मर्ज़ी के बिना खड़कता है, का विरोधाभासी है । ज्यों ज्यों प्रबुद्धता आती जाती है, प्रकाश का स्तर बढ़ता है , त्यों त्यों तिमिर का नाश होने लगता है । फिर जो अनहद नाद और अनंत तक आभासित लोक दिखता है वही सत्य है शेष मिथ्या है । परसाई जी का यह व्यंग्य धर्म के कर्मकांडीय स्वरूप के अर्थशास्त्र पर एक चुभता हुआ व्यंग्य है । कृपया इसे पढ़ें । )

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भगत की गत 
( हरिशंकर परसाई )

उस दिन जब भगतजी की मौत हुई थी, तब हमने कहा था- भगतजी स्वर्गवासी हो गए।

पर अभी मुझे मालूम हुआ कि भगतजी, स्वर्गवासी नहीं, नरकवासी हुए हैं। मैं कहूं तो किसी को इस पर भरोसा नहीं होगा, पर यह सही है कि उन्हें नरक में डाल दिया गया है और उन पर ऐसे जघन्य पापों के आरोप लगाये गये हैं कि निकट भविष्य में उनके नरक से छूटने की कोई आशा नहीं है। अब हम उनकी आत्मा की शान्ति की प्रार्थना करें तो भी कुछ नहीं होगा। बड़ी से बड़ी शोक-सभा भी उन्हें नरक से नहीं निकाल सकती।

सारा मुहल्ला अभी तक याद करता है कि भगतजी मंदिर में आधीरात तक भजन करते थे। हर दो-तीन दिनों में वे किसी समर्थ श्रद्धालु से मंदिर में लाउड-स्पीकर लगवा देते और उस पर अपनी मंडली समेत भजन करते। पर्व पर तो चौबीसों घंटे लाउड-स्पीकर पर अखण्ड कीर्तन होता। एक-दो बार मुहल्ले वालों ने इस अखण्ड कोलाहल का विरोध किया तो भगतजी ने भक्तों की भीड़ जमा कर ली और दंगा कराने पर उतारू हो गए। वे भगवान के लाउड-स्पीकर पर प्राण देने और प्राण लेने पर तुल गये थे।

ऐसे ईश्वर-भक्त, जिन्होंने अरबों बार भगवान का नाम लिया, नरक में भेजे गए और अजामिल, जिसने एक बार भूल से भगवान का नाम ले लिया था, अभी भी स्वर्ग के मजे लूट रहा है। अंधेर कहां नहीं है!

भगतजी बड़े विश्वास से उस लोक में पहुंचे। बड़ी देर तक यहां-वहां घूमकर देखते रहे। फिर एक फाटक पर पहुंचकर चौकीदार से पूछा- स्वर्ग का प्रवेश-द्वार यही है न?

चौकीदार ने कहा- हां यही है।

वे आगे बढ़ने लगे, तो चौकीदार ने रोका- प्रवेश-पत्र यानी टिकिट दिखाइए पहले।

भगतजी को क्रोध आ गया। बोले- मुझे भी टिकिट लगेगा यहां? मैंने कभी टिकिट नहीं लिया। सिनेमा मैं बिना टिकिट देखता था और रेल में भी बिना टिकिट बैठता था। कोई मुझसे टिकिट नहीं मांगता। अब यहां स्वर्ग में टिकिट मांगते हो? मुझे जानते हो। मैं भगतजी हूं।

चौकीदार ने शान्ति से कहा- होंगे। पर मैं बिना टिकिट के नहीं जाने दूंगा। आप पहले उस दफ्तर में जाइए। वहां आपके पाप-पुण्य का हिसाब होगा और तब आपको टिकिट मिलेगा।

भगतजी उसे ठेलकर आगे बढ़ने लगे। तभी चौकीदार एकदम पहाड़ सरीखा हो गया और उसने उन्हें उठाकर दफ्तर की सीढ़ी पर खड़ा कर दिया।

भगतजी दफ्तर में पहुंचे। वहां कोई बड़ा देवता फाइलें लिए बैठा था। भगतजी ने हाथ जोड़कर कहा- अहा मैं पहचान गया भगवान कार्तिकेय विराजे हैं।

फाइल से सिर उठाकर उसने कहा- मैं कार्तिकेय नहीं हूं। झूठी चापलूसी मत करो। जीवन-भर वहां तो कुकर्म करते रहे हो और यहां आकर ‘हें-हें’ करते हो। नाम बताओ।

भगतजी ने नाम बताया, धाम बताया।

उस अधिकारी ने कहा- तुम्हारा मामला बड़ा पेचीदा है। हम अभीतक तय नहीं कर पाये कि तुम्हे स्वर्ग दें या नरक। तुम्हारा फैसला खुद भगवान करेंगे।

भगतजी ने कहा- मेरा मामला तो बिल्कुल सीधा है। मैं सोलह आने धार्मिक आदमी हूं। नियम से रोज भगवान का भजन करता रहा हूं। कभी झूठ नहीं बोला और कभी चोरी नहीं की। मंदिर में इनी स्त्रियां आती थीं, पर मैं सबको माता समझता था। मैंने कभी कोई पाप नहीं किया। मुझे तो आंख मूंदकर आप स्वर्ग भेज सकते हैं।

अधिकारी ने कहा- भगतजी आपका मामला उतना सीधा नहीं है, जितना आप समझ रहे हैं। परमात्मा खुद उसमें दिलचस्पी ले रहे हैं। आपको मैं उनके सामने हाजिर किये देता हूं।

एक चपरासी भगतजी को भगवान के दरबार में ले चला। भगतजी ने रास्ते में ही स्तुति शुरू कर दी। जब वे भगवान के सामने पहुंचे तो बड़े जोर-जोर से भजन गाने लगे-

‘हम भगतन के भगत हमारे,

सुन अर्जुन परतिज्ञा मेरी, यह व्रत टरै न टारे।’

भजन पूरा करके गदगद वाणी में बोले- अहा, जन्म-जन्मान्तर की मनोकामना आज पूरी हुई है। प्रभु, अपूर्व रूप है आपका। जितनी फोटो आपकी संसार में चल रही हैं, उनमें से किसी से नहीं मिलता।

भगवान स्तुति से ‘बोर’ हो रहे थे। रुखाई से बोले- अच्छा अच्छा ठीक है। अब क्या चाहते हो, सो बोलो।

भगतजी ने निवेदन किया- भगवन, आपसे क्या छिपा है! आप तो सबकी मनोकामना जानते हैं। कहा है- राम, झरोखा बैठ के सबका मुजरा लेय, जाकी जैसी चाकरी ताको तैसा देय! प्रभु, मुझे स्वर्ग में कोई अच्छी सी जगह दिला दीजिए।

प्रभु ने कहा- तुमने ऐसा क्या किया है, जो तुम्हें स्वर्ग मिले?

भगतजी को इस प्रश्न से चोट लगी। जिसके लिए इतना किया, वही पूछता है कि तुमने ऐसा क्या किया! भगवान पर क्रोध करने से क्या फायदा- यह सोचकर भगतजी गुस्सा पी गये। दीनभव से बोले- मैं रोज आपका भजन करता रहा।

भगवान ने पूछा- लेकिन लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे?

भगतजी सहज भव से बोले- उधर सभी लाउड-स्पीकर लगाते हैं। सिनेमावाले, मिठाईवाले, काजल बेचने वाले- सभी उसका उपयोग करते हैं, तो मैंने भी कर लिया।

भगवान ने कहा- वे तो अपनी चीज का विज्ञापन करते हैं। तुम क्या मेरा विज्ञापन करते थे? मैं क्या कोई बिकाऊ माल हूं।

भगतजी सन्न रह गये। सोचा, भगवान होकर कैसी बातें करते हैं।

भगवान ने पूछा- मुझे तुम अन्तर्यामी मानते हो न?

भगतजी बोले- जी हां!

भगवान ने कहा- फिर अन्तर्यामी को सुनाने के लिए लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे? क्या मैं बहरा हूं? यहां सब देवता मेरी हंसी उड़ाते हैं। मेरी पत्नी मजाक करती है कि यह भगत तुम्हें बहरा समझता है।

भगतजी जवाब नहीं दे सके।

भगवान को और गुस्सा आया। वे कहने लगे- तुमने कई साल तक सारे मुहल्ले के लोगों को तंग किया। तुम्हारे कोलाहल के मारे वे न काम कर सकते थे, न चैन से बैठ सकते थे और न सो सकते थे। उनमें से आधे तो मुझसे घृणा करने लगे हैं। सोचते हैं, अगर भगवान न होता तो यह भगत इतना हल्ला न मचाता। तुमने मुझे कितना बदनाम किया है!

भगत ने साहस बटोरकर कहा- भगवना आपका नाम लोंगों के कानों में जाता था, यह तो उनके लिए अच्छा ही था। उन्हें अनायास पुण्य मिल जाता था।

भगवान को भगत की मूर्खता पर तरस आया। बोले- पता नहीं यह परंपरा कैसे चली कि भक्त का मूर्ख होना जरूरी है। और किसने तुमसे कहा कि मैं चापलूसी पसंद करता हूं? तुम क्या यह समझते हो कि तुम मेरी स्तुति करोगे तो मैं किसी बेवकूफ अफसर की तरह खुश हो जाऊंगा? मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं भगतजी कि तुम जैसे मूर्ख मुझे चला लें। मैं चापलूसी से खुश नहीं होता कर्म देखता हूं।

भगतजी ने कहा- भगवन, मैंने कभी कोई कुकर्म नहीं किया।

भगवान हंसे। कहने लगे- भगत, तुमने आदमियों की हत्या की है। उधर की अदालत से बच गये, पर यहां नहीं बच सकते।

भगतजी का धीरज अब छूट गया। वे अपने भगवान की नीयत के बारे में शंकालु हो उठे। सोचने लगे, यह भगवान होकर झूठ बोलता है। जरा तैश में कहा- आपको झूठ बोलना शोभा नहीं देता। मैंने किसी आदमी की जान नहीं ली। अभी तक मैं सहता गया, पर इस झूठे आरोप को मैं सहन नहीं कर सकता। आप सिद्ध करिए कि मैंने हत्या की।

भगवान ने कहा- मैं फिर कहता हूं कि तुम हत्यारे हो, अभी प्रमाण देता हूं।

भगवान ने एक अधेड़ उम्र के आदमी को बुलाया। भगत से पूछा- इसे पहचानते हो?

हां, यह मेरे मुहल्ले का रमानाथ मास्टर है। पिछले साल बीमारी से मरा था।– भगतजी ने विश्वास से कहा।

भगवान बोले- बीमारी से नहीं, तुम्हारे भजन से मरा है। तुम्हारे लाउड-स्पीकर से मरा है। रमानाथ, तुम्हारी मृत्यु क्यों हुई?

रमानाथ ने कहा- प्रभु मैं बीमार था। डॉक्टर ने कहा कि तुम्हें पूरी तरह नींद और आराम मिलना चाहिए। पर भगतजी के लाउडस्पीकर पर अखण्ड कीर्तन के मारे मैं सो न सका, न आराम कर सका। दूसने दिन मेरी हालत बिगड़ गयी और चौथे दिन मैं मर गया।

भगत सुनकर घबरा उठे।

तभी एक बीस-इक्कीस साल का लड़का बुलाया गया। उससे पूछा- सुरेंद्र,तुम कैसे मरे?

मैंने आत्महत्या कर ली थी- उसने जवाब दिया।

आत्महत्या क्यों कर ली थी?- भगवान ने पूछा।

सुरेंद्रनाथ ने कहा- मैं परीक्षा में फेल हो गया था।

परीक्षा में फेल क्यों हो गये थे?

भगतजी के लाउड-स्पीकर के कारण मैं पढ़ नहीं सका। मेरा घर मंदिर के पास ही है न!

भगतजी को याद आया कि इस लड़के ने उनसे प्रार्थना की थी कि कम से कम परीक्षा के दिनों में लाउड-स्पीकर मत लगाइए।

भगवान ने कठोरता से कहा- तुम्हाने पापों को देखते हुए मैं तुम्हें नरक में डाल देने का आदेश देता हूं।

भगतजी ने भागने की कोशिश की, पर नरक के डरावने दूतों ने उन्हें पकड़ लिया।

अपने भगतजी, जिन्हें हम धर्मात्मा समझते थे, नरक भोग रहे हैं।

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हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1924 को होशंगाबाद में हुआ था और निधन 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में हुआ था । उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा होशंगाबाद में ली थी और फिर नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया । वे द्वीतीय विश्व युद्धं के दौरान वायु सेना में पाइलट ऑफिसर भी रहे हैं । अपनी सेवा के दौरान भी उनकी रूचि लेखन कार्य में थी । बाद में उन्होंने साहित्य लेखन को ही अपना कैरियर बना लिया । साहित्य में उन्होंने व्यंग्य लेखन को अपना क्षेत्र लिखा । परसाई जी हिंदी के शीर्षस्थ व्यंग्य लेखकों की श्रेणी में अपना स्थान रखते हैं ।

( विजय शंकर सिंह )

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