Tuesday, 5 July 2016

एक नज़्म, अक़्स ए साक़ी भी मयस्सर नहीं / विजय शंकर सिंह


आँखों के मयक़दे में
सैकड़ों ख्वाब लिए,
उम्मीदों के जाम, पैमाने में भरे,
चुप चाप बैठा,
दर पे टकटकी लगाए,
सदियों से राह देखता,
दीदार साकी का,
खामोशी से बैठा हूँ .

ख्वाब हैं, जाम हैं, पैमाने है,
हंसी है, ठिठोली है,
बहकता हुआ गम भी है
भरा है मयखाना,
लोग भी भरे भरे,
हर तरफ हमदर्द हैं,
पर, एक सन्नाटा भी
अफ़सोस,
साकी है सुकून

कहीं दिखे साक़ी,
तो, कहना उस से,
मुन्तजिर है , कोई सदियों से,
आँखों में हज़ार ख्वाब लिए,
दर पर मयकदे के,
हर आने जाने वालों से,
दरियाफ्त साकी में मुब्तिला है !
पर इस दुनिया फानी में,
अक्स साकी भी मयस्सर नहीं !!

( विजय शंकर सिंह )

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