उदास शाम और जंगल यादों के,
इनमे भटकता हुआ
इनमे भटकता हुआ
सोचता हूँ, अक्सर ,
कुछ लिखूं इन पर।
बिखरे पत्तों और
टूटी हुयी शाखों पर ,
उन्मत्त पवन,
उन्मत्त पवन,
उड़ा देता है , जिन्हे अक्सर !
सोता हुआ शहर और ,
नींद की उम्मीद में ,
खुद से लड़ते लोग ,
सोचता हूँ ,
नींद की उम्मीद में ,
खुद से लड़ते लोग ,
सोचता हूँ ,
कुछ लिखूं इन पर।
कभी, नींद के
इस मानिनी नायिका की तरह
इस के फलसफे पर !
तो कभी , मौसम
और पावस के फुहार पर।
बारिश के परदे में ,
आंसुओं को छुपाये हुए आँखें ,
आँखों में उभरते हुए,
धुँधलाए अक्स पर कभी ।
अद्भुत रूपक है यह !
है, न !
बादल , बारिश , आंसूं ,आँखें
बादल , बारिश , आंसूं ,आँखें
और सावन ,
सोचता हूँ लिखूं , कुछ इन पर।
सोचता हूँ लिखूं , कुछ इन पर।
जंगल से गुज़रती टेढ़ी मेढ़ी राहें ,
दो डग , प्रेम के ,
दो डग , प्रेम के ,
जिन पर पड़े थे कभी ,
सूखे पत्ते ,
सूखे पत्ते ,
धूल , मिटटी , गर्द ओ गुबार ,
जिसे , निगल गए हैं
जिसे , निगल गए हैं
अजदहे की तरह ,
जैसे वक़्त ,
निगल जाता है , सब कुछ !
सोचता हूँ ढूँढूँ वे राहैं ,
जैसे खोजता है , कोई किस्सा गो ,
हवा में उड़ते अफसानों को।
जैसे खोजता है , कोई किस्सा गो ,
हवा में उड़ते अफसानों को।
मिले कोई जो पहुंचा दे, मुझे ,
अतीत के उन सुन्दर पलों में ,
तो लिखूं , कुछ इन पर !
अतीत के उन सुन्दर पलों में ,
तो लिखूं , कुछ इन पर !
बसंत के वे सभी स्वप्न,
मेरी पलकों पर टिके थे जो ,
आँखों में महकते ख्वाब
मेरी पलकों पर टिके थे जो ,
आँखों में महकते ख्वाब
जो आज भी ख्वाब हैं ,
सोचता हूँ ,
सोचता हूँ ,
कुछ लिखूं इन पर।
उमड़ते , घुमड़ते ,
गरजते ,बरसते ,भिंगोते ,
विक्षुब्ध मौसम के मित्रों पर ,
और अधूरे सपनों पर।
विक्षुब्ध मौसम के मित्रों पर ,
और अधूरे सपनों पर।
पलकें चुन रहीं हैं,
शब्द दर शब्द ,
बुन रहां हूँ कागज़ों पर ,
बुन रहां हूँ कागज़ों पर ,
ख्वाब दर ख्वाब ,
तेरी आहट , और
तेरी आहट , और
तेरी खिलखिलाहट भी ,
खंडहरों के
खंडहरों के
ध्वनि और प्रकाश नाटकों की तरह ,
उतर रहीं हैं
उतर रहीं हैं
पर्त दर पर्त, मेरे भीतर।
पहाड़ों के हिम पात की तरह ,
झर रही है ,
रूई के फाहे सी बर्फ,
जैसे बरस रहा हो कोई
जैसे बरस रहा हो कोई
अज्ञात आशीर्वाद।
कैसे वक़्त ,
बदल देता है , मृदु हिम को ,
कठोर पाषाण में ,
सोचता हूँ , कुछ लिखूं इस पर !
सोचता हूँ , कुछ लिखूं इस पर !
विरह के पल ,
उदास रातें , उदास दिन ,
कागज़ों पर इन्हे उतारता हुआ ,
सुकून के
कागज़ों पर इन्हे उतारता हुआ ,
सुकून के
कुछ पल खोज रहा हूँ।
चन्द शब्दों की बाज़ीगरी हैं ,
मेरी कवितायें !
भावों से उन्हें गूंथता हुआ ,
खामोशी से
भावों से उन्हें गूंथता हुआ ,
खामोशी से
सारे मौसम पार करता हुआ ,
निरभ्र आकाश में
गतिमान चाँद को देखते ,
सोचता हूँ कभी ,
तेरी यादें न रहतीं , तो सोचता क्या ?
तेरी यादें न रहतीं , तो सोचता क्या ?
कैसे कागज़ों पर उतरती, ये शक्लें ,
और फिर ,
अक्षरों के हर खम मैं , तुम
कहीं न कहीं आकार लेने लगते हो !!
कहीं न कहीं आकार लेने लगते हो !!
( विजय शंकर सिंह )
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