Tuesday, 19 July 2016

एक कविता ... सोचता हूँ , कुछ लिखूं इन पर / विजय शंकर सिंह


उदास शाम और जंगल यादों के, 
इनमे भटकता हुआ 
सोचता हूँ, अक्सर ,
कुछ लिखूं इन पर।
बिखरे पत्तों और 
टूटी हुयी शाखों पर  ,
उन्मत्त पवन, 
उड़ा देता है , जिन्हे अक्सर !

सोता हुआ शहर और ,
नींद की उम्मीद में ,
खुद से लड़ते लोग ,
सोचता हूँ , 
कुछ लिखूं  इन पर। 

कभी, नींद के 
इस मानिनी नायिका की तरह 
इस के फलसफे पर !
तो कभी ,  मौसम 
और पावस के फुहार पर। 

बारिश के परदे में ,
आंसुओं को छुपाये हुए आँखें ,
आँखों में उभरते हुए, 
धुँधलाए अक्स पर कभी ।  

अद्भुत रूपक है यह ! 
है,  न !
बादल , बारिश , आंसूं ,आँखें 
और सावन ,
सोचता हूँ लिखूं , कुछ इन पर।

जंगल से गुज़रती टेढ़ी मेढ़ी राहें ,
दो डग , प्रेम के , 
जिन पर पड़े थे कभी ,
सूखे पत्ते , 
धूल , मिटटी , गर्द ओ गुबार ,
जिसे , निगल गए हैं 
अजदहे की तरह , 
जैसे वक़्त , 
निगल जाता है , सब कुछ !

सोचता हूँ ढूँढूँ वे  राहैं ,
जैसे खोजता है , कोई किस्सा गो ,
हवा में उड़ते अफसानों को।  

मिले कोई जो पहुंचा दे, मुझे ,
अतीत के उन सुन्दर पलों में ,
तो लिखूं , कुछ इन पर !

बसंत के वे सभी स्वप्न,
मेरी पलकों पर टिके थे जो ,
आँखों में महकते ख्वाब 
जो आज भी ख्वाब हैं ,
सोचता हूँ ,
कुछ लिखूं इन पर। 

उमड़ते , घुमड़ते , 
गरजते ,बरसते ,भिंगोते ,
विक्षुब्ध मौसम के मित्रों पर ,
और अधूरे सपनों पर।

पलकें चुन रहीं हैं, 
शब्द दर शब्द ,
बुन रहां हूँ कागज़ों पर , 
ख्वाब दर ख्वाब ,
तेरी आहट , और  
तेरी खिलखिलाहट भी ,
खंडहरों के 
ध्वनि और प्रकाश नाटकों की तरह ,
उतर रहीं हैं  
पर्त दर पर्त, मेरे भीतर। 

पहाड़ों के हिम पात की तरह ,
झर  रही है , 
रूई के फाहे सी बर्फ,
जैसे बरस रहा हो कोई 
अज्ञात आशीर्वाद।
कैसे वक़्त , 
बदल देता है , मृदु हिम को , 
कठोर पाषाण में ,
सोचता हूँ , कुछ लिखूं इस पर !

विरह के पल , 
उदास रातें , उदास दिन ,
कागज़ों पर इन्हे उतारता हुआ ,
सुकून के 
कुछ पल खोज रहा हूँ। 

चन्द  शब्दों की बाज़ीगरी हैं , 
मेरी कवितायें !
भावों से उन्हें गूंथता हुआ ,
खामोशी से 
सारे मौसम पार करता हुआ ,
निरभ्र आकाश में 
गतिमान चाँद को देखते ,
सोचता हूँ कभी ,
तेरी यादें न रहतीं , तो सोचता क्या ?
कैसे कागज़ों पर उतरती, ये शक्लें , 
और फिर ,
अक्षरों के हर खम मैं , तुम
कहीं न कहीं आकार लेने लगते हो !!

( विजय शंकर सिंह )

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