Saturday, 23 July 2016

गाय और गाली के शोर में गुम जीवन के असल मुद्दे / विजय शंकर सिंह

अब सब धन धान्य से पूर्ण है । मेह अनुशासित है । जहाँ जितनी ज़रुरत है वहाँ उतना ही बरस रहा है । न कहीं अधिक और न कहीं कम । किसान सुखी है । सब जगह शान्ति है । पेट भरा है सबका । सोचिये अगर ऐसा हो गया तो राजा करेगा क्या ? राजा , का जन्म ही व्ययस्था बनाने और सब कुछ व्यवस्थित चले इस लिए हुआ है ।
आज कहीं भी कोई भी राजनीतिक दल, भय भूख और जीवन से जुडी समस्याओं के प्रति सजग है ?
कोई भी राजनीतिक दल जीवन को छूने वाली बातों से आहत है ?
सभी दल आज विकास का एक अमूर्त एजेंडा सबके सामने ज़रूर रखते है । उसकी एक व्याख्या यह भी है कि चुनिंदा उद्योगपतियों को , पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम सब अर्पित कर दीजिये और वे देश का विकास करेंगे । वे कारखाने लगाएंगे । लोगों को रोज़गार मिलेगा । पर सरकार ने शायद ही कभी इसका अध्ययन किया होगा कि कितने संसाधन किस उद्योगपति को कब सौंपे गए और उनका परिणाम कितना सकारात्मक रहा । अगर किया भी होगा तो मुझे नहीं मालुम, किसी मित्र को ज्ञात हो तो उनका स्वागत है । आज भी जितने व्यक्ति देश में आतंकी घटनाओं में मारे गए हैं उनसे कहीं अधिक किसान आत्म हत्या कर चुके हैं । और इस पर भी बेशर्मी की हद यह है कि, एक सरकार कह रही है कि आत्म हत्या का कारण भूत है । किसान खोर भूत कभी राजनितिक दलों के नेताओं पर कृपा क्यों नहीं करता । क्या वे इन भूतों के लिए, अघ्न्या हैं ।

ताज़ा उदाहरण गाली विमर्श का ही ले लीजिये । गाली के पहले मायावती द्वारा टिकट बेचने या नीलाम करने की जो बात कही गयी थी , उस से कोई भी आहत नहीं हुआ । यह बात किसी को नहीं लगी । संसद में इस पर कोई नहीं खड़ा हुआ । अगर उस अपशब्द के बजाय,  भ्रष्टाचार और टिकट की नीलामी की बात ही कही गयी होती तो एक पत्ता भी नहीं खड़कता । मायावती तब संसद में खड़े हो कर यह कहने का साहस ही नहीं जुटा पातीं कि कैसे उनपर टिकट की नीलामी का आरोप लगाया गया । वे अगर इस विन्दु पर प्रदर्शन का आयोजन करतीं या किसी जांच की मांग करती तो यह राजनीति में शुचिता की एक अच्छी और सुखद पहल होती । पर वे इस तथ्य को गोल कर गयी । दया शंकर भी राजनैतिक सूझ का परिचय न देते हुए , बेहद निंदनीय और अभद्र बात कह गए । जिस से एक राजनीतिक एजेंडा ही बदल गया । आप रोज़, किसी भी नेता को, भ्रष्ट और घोटालों में लिप्त होने की पोस्ट डालिये या आंदोलन कीजिये , किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा पर जैसे ही चरित्र जिसे अमूमन स्त्री पुरुष संबंधों से ही तय होना माना जाता है, पर चिकोटी काटिये, सब बिलबिला कर खड़े हो जाते हैं । चरित्र पतन या उत्थान का यह व्याकरण मेरी समझ में नहीं आया । झूठ बोलना, मिथ्या वादे करना , भ्रष्ट साधनों से धन अर्जित करना, आदि को चरित्र से जोड़ कर देखने की आदत ही हम में विकसित नहीं हुयी । जब कि किसी भी व्यक्ति के चरित्र के इस पक्ष से, समाज सबसे अधिक प्रभावित होता है । यौन सबंधो से जुड़ा चरित्र का विवेचन निजी और परिवार को अधिक प्रभावित करता है । पर झूठ, फरेब, भ्रष्टाचार, आदि समाज पर सीधे असर डालता है ।

आज जितनी चर्चा गाली और अभद्र भाषा पर हो रही है, उसके साथ साथ राजनीति में भ्रष्टाचार पर होती तो शायद राजनीति में धन कमाने के ही उद्देश्य से जो पीढ़ी आ रही है उसका कुछ न कुछ मोहभंग तो होता । किसी भी राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले में किसी बड़े नेता के खिलाफ कार्यवाही कम ही हुयी है । जब कि जनता हर उस नेता के भ्रष्टाचार को भली भाँति जानती है जो हर पल भ्रष्टाचार के विरोध की ही बात करता है और सत्ता में आने पर भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही की बात करता है । पर कार्यवाही कभी नहीं होती है और अगर होती भी है तो या तो अदालत के दखल देने पर या, किसी न किसी राजनीतिक विद्वेष या प्रतिशोध वश । इसी प्रकार हर बार यह कोशिश होती है कि मुद्दे बदलें और बहस उन मुद्दों को छू भी न पाएं जिनके लिए सरकारें चुनी जाती हैं । सरकारें चुनी जाती हैं , शांतिपूर्ण , जिम्मेदार और संवेदनशील प्रशासन के लिए, सरकारें चुनी जाती है कि,  लोगों का जीवन स्तर उठे और लोग एक बेहतर जीवन जीयें, सरकारें चुनी जातीं हैं कि, देश में क़ानून का राज सुगढ़ता से स्थापित हो , और सरकारें चुनी जाती हैं कि, लोग एक सभ्य , उन्नत और भ्रष्टाचार रहित समाज में जीयें । पर सरकार और सरकारी पार्टी इन मुद्दों से हमेशा भटकने और लोगों को भटकाने का प्रयास करती है और जान बूझ कर ऐसे मुद्दे उठाती है , जिनका समाधान या तो संभव ही नहीं है या उस से धार्मिक और जातिगत ध्रुवीकरण हो । यह ध्रुवीकरण अपने अपने वोट बैंक को सिर्फ तुष्ट करने का ही एक साधन है।

गौरक्षा का सबसे बड़ा आंदोलन 1966 में देश में हुआ था । लाल बहादुर शास्त्री के ताशकंद में दुःखद निधन के बाद, इंदिरा गांधी देश की प्रधान मंत्री बनी थी । गौरक्षा के आंदोलन में , गौवध पर पूरे देश में प्रतिबन्ध के लिए यह आंदोलन हुआ था । इस आंदोलन का नेतृत्व स्वामी करपात्री जी, जो धर्म शास्त्र के उद्भट विद्वान और अत्यंत पूज्य संत थे, और पुरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ ने किया था ।  गाय , हिन्दू समाज और धर्म में सदैव से ही एक विशिष्ट और पूजनीय स्थान रखती रही है । हज़ारों की संख्या में साधू संत और लोगों ने संसद का घेराव करने के लिए , संसद की और मार्च किया । गम्भीर शान्ति व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हुयी, और पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा । तब दिल्ली पुलिस में कमिश्नर की व्यवस्था नहीं थी । आई जी पुलिस का पद होता था । बल प्रयोग का असर बहुत ही बुरा हुआ । कई बुज़ुर्ग संत घायल हो गए । इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुयी और पूरे दिल्ली में अफरातफरी फ़ैल गयी । दो दिन कर्फ्यू लगा रहा । पर इंदिरा गांधी ने इनकी मांगे नहीं मानी । डॉ लोहिया जीवित थे तब । उन्होंने इस आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए कहा,
"भुखमरी, सामाजिक नाबराबरी और जीवन से जुड़े मुद्दों के विरुद्ध कभी ऐसा व्यापक आंदोलन क्यों नहीं उठता । रोटी का मुद्दा गाय के मुद्दे से दब क्यों जाता है । "
डॉ लोहिया का सवाल आज भी ज़िंदा है और अपने उत्तर की बाट जोह रहा है ।

यही संकेत रामजन्म भूमि आंदोलन और 1977 में इमरजेंसी के विरोध में हुए चुनाव में भी दिखता है । भावनाएं ज्यादा असर दिखाती हैं और लोग इन भावुक मुद्दों के लिए,  मरने मारने को आतुर हो जातें हैं । राजनीतिक दल जनता के इस मनोविज्ञान को अच्छी तरह से जानते हैं और वे उसी कमज़ोर नस को पकड़ लेते हैं । भाजपा हो या बसपा, या कांग्रेस या सपा या किसी भी दल ने राजनीतिक दलों में आर्थिक श्रोत, उनके नेताओं और कार्यकर्ताओं के भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में कभी कोई सवाल नहीं उठाये । जेपी आंदोलन से ले कर अन्ना आंदोलन तक, भ्रष्टाचार पर जो जन समर्थन मिला वह भी तत्कालीन सरकार को अपदस्थ करने के लिए ही इस्तेमाल हुआ । यह भी आधुनिक ढंग के उत्पाद इस्तेमाल करो और भूल जाओ या यूज़ एंड थ्रो के अनुसार ही था । सभी दलों को लगता है कि अगर भ्रष्टाचार पर अगर सब सबकी कहेंगे और पोल खोलेंगे तो, सभी बेनक़ाब होंगे । अतः सभी एक शातिर चुप्पी ओढ़े रहते हैं । टिकट की नीलामी या धन उगाही अकेले बसपा में ही नहीं है बल्कि सभी दलों में कम ओ बेश है । बसपा एकल नेतृत्व का दल है अतः वहाँ मायावती जिन्हें अख़बार अक्सर सुप्रीमो कहते हैं , की मर्ज़ी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है अतः वहाँ भ्रष्टाचार अधिक दिखता है और सब की निगाहें सुप्रीमो की तरफ ही रहती है । भाजपा और कांग्रेस में सुप्रीमो जैसे किसी तंत्र का अभाव है इस लिए टिकट की नीलामी आदि की खबरें कम आती है और हो सकता हो कम होती भी हों । हालिया उदाहरण राजनीतिक दलों की आर्थिक फंडिंग को आर टी आई के दायरे में लाने और सभी योगदानों का श्रोत बताने का है । कोई भी दल, जो खुद को भ्रष्टाचार का विरोधी बताते और साबित करते थकते नहीं है, इस मुद्दे पर चुप है और सब साथ साथ है । क्यों ?

आज तीन दिन से भाषा विवाद छाया हुआ है । जैसे कि इस तरह की भाषा शैली का प्रयोग पहली बार हुआ हो, और दो मुक़दमों के कायम हो जाने, इतने टीवी शो होने के बाद, और मुक़दमों में कार्यवाही हो जाने के बाद, यह सोच लिया गया हो कि अब आगे ऐसी भाषा का प्रयोग बिलकुल नहीं होगा, और लोग सुभाषित ही बोलने लगेंगे तथा,  सभी वाक् अनुशासन में रहेंगे । यह एक भूल है । हर दल जीवन से जुड़े असल मुद्दे का सामना करना, उसे सुलझाना और उस पर चर्चा करना नहीं चाहता है । वह इस से कतराता है । क्यों कि वह जानता है कि इन समस्याओं के समाधान में न तो उसकी रुचि है और रूचि भी हो तो उसकी दक्षता नहीं है । इसी लिए वह उन्ही मुद्दों को बार बार पर मंच पर ले आता है जो भावनात्मक रूप से जनता को उत्तेजित करते हैं । लेकिन यह एक खतरनाक खेल है और लोग इस खेल को अब समझने भी लगे हैं ।

( विजय शंकर सिंह )

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