Sunday 10 July 2016

एक कविता.... अब तेरा फैसला क्या है ! / ,विजय शंकर सिंह


करोड़ों चेहरे और
उन के पीछे उभरते करोड़ों लोग,
ये राह की दुश्वारियाँ हैं कि
भीड़ के चट्टे,
धरती ढँक गयी है इंसानी देहों से ।
कहाँ रखूँ कदम,
तिल भी रखने की जगह नहीं। 

देखता हूँ , इस हुज़ूम को ,
तो सोचता हूँ,
जहां हूँ , वहीं सिमट कर,
खुद में ही खुद को रख लूँ । 

अगर रुका तो,
पीछे से आता भीड़ का उत्मत्त सागर,
कुचल देगा देगा ,
निगल लेगा , यह अजदहा।

बेसब्र हैं लोग , और  बेताब भी ,
और कुछ कुछ , बेसबब,
न जाने किसकी तलाश में खोये हुए,
और कुछ तमाशाई ,
बौखलाहट से बढ़ते हुए,
मुझे देख कर भी ,
अनदेखा करते हुए,
मेरे सीने पर रख कर पाँव ,
बढ़ जाएंगे।

सोचता हूँ, बढूँ आगे,
हिम्मत संजो कर,
भीड़ की पसीने भरी दुर्गन्ध से
खुद को बचाते हुए
लंबी सांस ले कर ।

बढ़ता हूँ तो
लोग मेरे कदमो तले आ रहे हैं,
किसी का सीना, किसी की बाहें, तो
किसी की पहचनाती हुयी ,
किसी की पथराई हुयी,
तो किसी की हैरतजदा,
तो किसी की ,
खौफ में डूबी हुयी, आँखें,
रु ब रु हैं मुझसे ।

निगाहें हैं तो, आसमान पर, सब,
शून्य में ताकती हुयी,
पर मैं उनसे ,
आँखें नहीं मिला पा रहूँ ।
अज़ीब सा डर है, या जुगुप्सा,
नहीं जान पाता,

अज़ीब कशमकश है , दोस्त !
बढ़ता हूँ तो औरों को रौंदता हूँ,
थम जाऊं तो, खुद ही रौंदा जाऊँगा !

तुम्हे तो इन्साफ पसंद है न ?
बड़े मुंसिफ मिजाज़ हो तुम ,
सुना है,
तुम ज़ुल्म के खिलाफ अक्सर खड़े रहते हो
तुम्ही कहो, और कुछ सुनूं मैं ,
कि अब तेरा फैसला क्या है ?

( विजय शंकर सिंह )

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