Monday 11 July 2016

एक कविता.....तुमने मेरी हंसी देखी है ! / विजय शंकर सिंह.




तुमने मेरी हंसी देखी है,
सागर के लहरों का उन्माद देखा है,
लहरों को आनंद से उमड़ते देखा है,
प्रेम को उमगते देखा है,
लेकिन आओ,
इस  सागर में े गहरे पैठो,
लेकिन धीरे धीरे,
खामोशी और बेहद संजीदगी के साथ.

सुनो,
कुछ  सुना तुमने, ?
एक हहराता हुआ, आलोडन,
जो उबल रहा है अन्दर,
न वह दुःख है, न वह सुख,
न वह कामना है, न निष्काम कुछ ,
वह मुसलसल बहता हुआ दरिया है,

अगाध सिंधु,
अतंत जल के बीच वैश्वानर लिए ,
रत्नगर्भा, मंथन को आतुर.
सच तो यही है,
लहरें, उन्माद, हंसी एक आवरण है,
उनके लिए जो गहरे नहीं
उतर सकते.
जो कहीं भीतर
और अंदर तक, मौन और निरपेक्ष है,

वही सत्य है,
अगर,
उद्घाटित हो तो, शिव और सुन्दर भी,
शेष, एक आवरण,
भ्रम और कुज्झटिका से आवृत्त !!

( विजय शंकर सिंह )

                                                                         

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