Wednesday 13 July 2016

एक कविता .... धूप का खिलना और तेरा मिलना / विजय शंकर सिंह


धूप का खिलना और तेरा मिलना,
सर्दी में जैसे कुहरे को भेद कर,
निकल आता है भास्कर , ऐसा ही है.
अवसाद के रूप में पसरी धुंध और कुहरा,
मन को तह दर तह समेट कर,
उसी बड़े से संदूक में रख देती है,
जो मेरे पुश्तैनी घर के अँधेरे ,
पर बड़े कमरे में ,
कहीं चुप चाप अजायब की तरह पड़ा है। 

धूप, किरच दर किरच खुरच कर,
खोलती है संदूक के तालों को,
और अवसाद की सीलन से भरा हुआ,
मेरा मन धीरे धीरे जीवंत हो जाता है.
उम्मीद की एक हलकी सी जुम्बिश,
थरथराता हुआ मन कमल,
धूप की मुस्कान पा कर खिलने को आतुर हो जाता है। 

सर्दी में घूप का खिलना और,
तनहाई में तेरा आना, एक ही जैसा है दोस्त !
ऐसे ही कभी
जब सर्द अवसाद का डेरा जमा हो,
अचानक नमूदार हो जाना कभी तुम !!

© विजय शंकर सिंह

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