इफ्तार पार्टियां जी अब पार्टी ही कहने का चलन हो गया है , में मैं नेता , अभिनेता और अन्य लोगों को जब टोपी पहने और कंधे पर तिकोनी रूप में तह किये काली छीटों वाला गमछा धारण किये देखता हूँ तो मुझे पाखण्ड मूर्तिमान होता हुआ नज़र आता है . यह इफ्तार पार्टी का ड्रेस कोड है या अल्लाह को यही वेशभूषा पसंद आती है या कुरआन और हदीस में यह कहीं लिखा है यह तो मक्षिका स्थाने मक्षिका पढ़ने वाले दादुर मनोवृत्ति के अनुयायी या मजहब का पेशा करने वाले लोग ही बता पाएंगे , पर यह मेरी नज़र में एक ढोंग ही है .
कोई भी पहनावा किसी धर्म विशेष से जुड़ा नहीं होता है , भले ही वह उस धर्म के रहनुमाओं द्वारा अंगीकार कर लिया गया हो . इस्लाम , अरब में जन्मा और अरब का सर से पांव तक ढंकने वाला लबादा जो वहाँ की धूल भरी आंधी से बचाता था , उनका पहनावा बना रहा । हम धर्म और संस्कृति के बीच अंतर नहीं कर पाते हैं वैसे ही संस्कृति और सभ्यता के बीच का भी फर्क भुला बैठते है। धर्म धर्म में भी अंतर है । सनातन धर्म को अगर आप सेमेटिक धर्मों के आधार पर देखिएगा तो भर्मित ही होइएगा । सेमेटिक धर्मों का मूल ही धर्म विस्तार और प्रसार पर आधारित है जब कि सनातन धर्म में धर्म के प्रसार की कोई बात ही नहीं की है । यह पहनावा इस्लाम पूर्व अरब में। जब मूर्तिपूजा प्रचलित थी और यहूदी धर्म का प्रसार अधिक था तो तब भी था । भारत में भी अगर आप परंपरागत भारतीय वेशभूषा पर अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि उत्तर दक्षिण पूर्व और पश्चिम राज्यों के पहनावे में बहुत अंतर है । जैसे राजस्थान में पगडी बाँधने का रिवाज़ है । ऐसा वहाँ की गर्मी और तेज़ अंधड़ के कारण है । पूर्व के बंगाल आसाम और बिहार में धोती कुरता या साड़ी का चलन है । पंजाब में सलवार कमीज का चलन क्यों कि वहाँ का मौसम अपेक्षाकृत अधिक ठंडा होता है । दक्षिण भारत में। लुंगी जिसे वेष्टि कहते हैं और हाफ सूती कमीज का चलन है । उमस भरी नम जलवायु इसका कारण है । पूर्व और दक्षिण में नमी और उमस के कारण सर पर पगडी बाँधने का रिवाज़ नहीं है । अब चूँकि शर्ट पैंट जो आंग्ल परिधान होने के बावज़ूद भी, सर्व स्वीकार्य हो गया है वही प्रचलित है और सुविधाजनक भी है ।
जब अरब से इस्लाम भारत में आया तो, इसके दो स्वरुप थे । एक समुद्र मार्ग से जो केरल के मालाबार के तटों पर अरबी सौदागरों के रूप में आया और वह रूप उसका आक्रामक नहीं था । उत्तर भारत में इस्लाम का परिचय ही देश को तलवार और युद्ध के रूप में हुआ । 726 ईस्वी में। सिंध पर मुहम्मद बिन कासिम के हमले को आप जितना भी साम्राज्य विस्तार की क़वायद से जोड़ें पर वह नए धर्म का विस्तार ही था । उसके महमूद ग़ज़नवी के सोमनाथ पर आक्रमणों और लूट, और पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद जब बाकायदे भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत हुयी तो राज्य विस्तार से अधिक धर्म के विस्तार की ही बात चली। इस्लाम चूँकि अरब से ही आया था तो वह अरब की वेशभूषा और पहनावा ले आया । लेकिन यह पहनावा भारत की आब ओ हवा के अनुकूल नहीं था । लेकिन चूँकि शासन मुस्लिमों का था तो दरबार की यही वेशभूषा बन गयी । वैसे ही जैसे अंग्रेजों के आने के बाद सूट बूट और नेकटाई सभ्रांत और अंग्रेज़ीदां लोगों का पोशाक बन गया । लेकिन देश के मौसमीय वातावरण के अनुसार न तो अरबी पोशाकें उपयुक्त थीं और न ही अंग्रेज़ी सूट बूट । पर यथा राजा तथा प्रजा ।
अब जब इफ्तार पार्टी होती है तो, उसमे दो तरह के लोग शामिल होते हैं । एक तो वे जो रोज़ा रहते हैं और उस व्रत का समापन करते हैं । उनकी आस्था है इस पवित्र महीने के इस व्रत के साथ वे नमाज़ पढ़ कर पूरे विधिविधान के साथ व्रत का दैनिक समापन करते हैं । दूसरे वे लोग होते हैं जो इस अवसर को जन संपर्क के माध्यम के रूप में चुनते हैं और वे गैर मुस्लिम होते हैं । नमाज़ कभी भी नंगे सिर नहीं पढी जाती है । इसका कारण मुझे ज्ञात नहीं है किसी मित्र को पता हो तो ज़रूर बताएं । मुस्लिम रोज़ेदार सर ढंकने के लिए विभिन्न टोपियों का प्रयोग करते हैं । लेकिन गैर मुस्लिम जो टोपी पहन कर , यहां तक तो गनीमत है , अरबी ढंग से काली छींट का गमछा तिकोने रूप में कंधे पर डाले इस इफ्तार पार्टी में शिरकत करते हैं तो मुझे थोडा अज़ीब , अटपटा और पाखंडी ही लगता है । कानपुर में मेरे बहुत से मुस्लिम मित्र हैं और उनके तहाँ इफ्तार में मैं भी जाता रहता हूँ । पर जो पहने हूँ और पहनता हूँ वही पहने जाता हूँ । जब सेवा में था तो, वर्दी में ही जाता था। मेरे जाने का एक अन्य कारण लज़ीज़ पकवान भी था । मेरे लिए यह धार्मिक आयोजन कम एक पार्टी ही अधिक है । हो सकता है कुछ लोग इस पर दुखी और हर्ट महसूस करें पर जो मैं महसूस करता हूँ वही आप के समक्ष रख रहा हूँ ।
इफ्तार एक धार्मिक आयोजन है । सहरी और इफ्तार दोनों ही रमज़ान के रोज़े के दो प्रमुख अंग है । पर सरकारी और राजनैतिक अफ्तार पार्टी के आयोजन का उद्देश्य जन संपर्क अधिक होता है ।
( विजय शंकर सिंह )
No comments:
Post a Comment