Friday, 3 July 2015

The Nose of Cleopatra and History Laughs / क्लियोपेट्रा की नाक और इतिहास का अट्टहास / विजय शंकर सिंह



क्लियोपेट्रा का नाम विश्व इतिहास में रूचि रखने वालों के लिये अनजान नहीं है. इतिहास मैं यह रानी अपनी नाक के लिये भी बहुत प्रसिद्ध थी . कहा जाता है अगर उसकी नाक थोड़ी छोटी होती तो, विश्व के इतिहास की धारा ही कुछ अलग होती. इतिहास में ऐसे अगर, मगर के सवाल बहुत उठते रहे हैं. और इतिहासकार सदियों से इस अगर और मगर का भाष्य करते आये हैं और आगे भी करते रहेंगे.

ब्लेस पास्कल, एक फ्रांसीसी गणितज्ञ था. 1669 में उसके लेखों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था पेन्सीस, जिसका अर्थ हुआ विचार, थॉट्स . मूलतः यह पुस्तक ईसाई धर्म के बचाव में लिखी गयी थी. पर इसमे धर्म से अलग हट कर मानवीय विचारों पर भी कुछ दृष्टि डाली गयी थी. क्लियोपेट्रा की नाक के बारे में यह महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध उक्ति पास्कल की ही है. उसने ही यह पहली बार कहा था कि अगर क्लियोपेट्रा की नाक थोडी छोटी होती तो, तो विश्व की तस्वीर ही बदल गयी होती. पर उसकी नाक छोटी हुयी और दुनिया उसके नाक के अनुसार बदली.

आप उत्कण्ठित हो रहे होंगे कि सुदूर रोम की रानी के नाक से दुनिया क्यों प्रभावित होने लगी. मेरी भी यही उत्कण्ठा है. पास्कल कहता है, अगर उसकी नाक छोटी होती तो, उसके चरित्र और व्यक्तित्व में वह दबंगपन और सौंदर्य नहीं होता जिस ने रोम के कुलीनों को प्रभावित और सम्मोहित कर रखा था . तो जूलियस सीज़र और मार्क अंटोनी, उस से प्रभावित होते और ही वहाँ गृह युद्ध होता. हो सकता था, आज पूरी दुनिया में जो बोलबाला अंग्रेज़ी का है, वही बोलबाला तब लैटिन का होता. यह , ' यह होता तो क्या होता ' वाला बौद्धिक कसरत है. इतिहास अपनी ही गति से चलता रहता है.

क्लियोपेट्रा के नाक का प्रश्न मूलतः इतिहास का अवसरवाद है. अतीत का अध्ययन जब हम करते हैं और जब इतिहास की उन गलतियों पर निगाह जाती है, जिनके कारण इतिहास ने विचित्र करवटें बदलीं हैं तो स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि काश ऐसा हुआ होता तो कितना अच्छा होता ! यह काश, नियति में परिवर्तित हो जाता है और हम इसे नियति का खेल ही मान लेते हैं. कभी कभी ,नियति हमें प्रश्नाकुल होने और उत्तरों की तलाश से दूर कर तनाव मुक्त भी कर देती है. फिर एक फलसफाना डायलॉग निकलता है, नियति और वक़्त भी कभी किसी को छोड़ते हैं। यहां तक कि अवतारों और पैगम्बरों को भी नहीं.

क्लियोपेट्रा के नाक के सिद्धांत का प्रणेता पास्कल इसे इतिहास के अवसरवाद के रूप में देखता है. वह तर्क देता है कि अगर उसकी नाक ऐसी होती तो, मार्क अंटोनी क्लियोपेट्रा के प्रति उतना आकर्षित नहीं होता और ही वह इतना सम्मोहित ही होता. ऐक्टिअम के युद्ध में जो मार्क अंटोनी ने लड़ा था , में उसका युद्ध कौशल और बेहतर तरीके से संसार के सामने आता. तब रोम का इतिहास ही दूसरा होता.

इतिहास तथ्यों का संकलन और क्रोनोलॉजिकल डेटा बेस ही नहीं होता है. तथ्यों का अध्ययन और उसकी वैचारिक पीठिका भी खोजना इतिहासकार का दायित्व होता है। तथ्य तो लगभग वही रहते है. पर जब उन तथ्यों की समीक्षा या भाष्य किया जाता है तो विविध मत मतांतर उत्पन्न हो जाते हैं. मार्क्स इतिहास की व्याख्या मैं प्राइम मूवर , आर्थिक पृष्ठभूमि को मानते है. अर्थ ने ही राज्य का निर्माण, और उसके विस्तार की आकांक्षा को जन्म दिया और इतिहास की हर गति और मोड़ के पीछे आर्थिक कारण ही जिम्मेदार रहे है. हो सकता है इतिहास की गति के इस सिद्धांत से आप सहमत हों. आप अपना नया मत गढ़ सकते हैं. मार्क्स इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद हिस्टोरिकल मटेरिअलिस्म कहते हैं. इसी सिद्धांत के आधार पर आदिम समाज जो पूर्णतः समान व्ययस्था पर आधारित था, से क़बीले, छोटे राज्य , फिर बड़े राज्य, फिर साम्राज्य स्थापना की लालसा  लिए साम्राज्यवाद, फिर युद्ध और युद्ध को धार देता हुआ धर्मोन्माद, फिर औद्योगिक क्रान्ति से उत्पन्न बाज़ार और उपनिवेशवाद , फिर इसी से उत्पन्न हुआ, आधुनिक उदारवाद , जिसे पूंजीवाद ने खुद ही उत्पन्न किया, और अब एक नए तरह का स्वार्थ पूर्ण गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म और यह यात्रा अभी जारी है.

आइये, अब विश्व इतिहास की उन कुछ प्रमुख घटनाओं पर दृष्टिपात कीजिए जिनके कारण इतिहास का टर्निंग पॉइंट रहा है. अगर ऐसा होता तो क्या हुआ होता. यह उत्तर हमेशा व्यथित करता रहेगा कुछ लोगों को.  मैं यहां तीन उदाहरण प्रस्तुत करूँगा। 

जेरूसलम इज़राइल में है और और यह तीनों सेमेटिक धर्मों , यहूदी, ईसाई और इस्लाम के लिए पवित्र नगर है. दुनिया में दो ही नगर ऐसे हैं जहां तीन तीन धर्मों के पवित्र स्मारक हैं. एक जेरूसलम, और दूसरा वाराणसी. वाराणसी में सनातन धर्म का तो केंद्र है ही , वहीं जैनियों के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जन्म हुआ था और भगवान बुद्ध ने यहीं सारनाथ से धर्म चक्र प्रवर्तन किया था।  जब कि जेरूसलम , यहूदी धर्म के प्रवर्तक हजरत मूसा को मिला था यहीं  उनका क़बीला बनी इज़राईल ने डेरा डाला था, और यहां यहूदियों की पवित्र दीवाल है. हजरत ईसा मसीह से जुड़े होने के कारण यह स्थान ईसाइयों के लिए भी पवित्र है. यहीं पर अल अक़सा मस्ज़िद है. इस मस्ज़िद का स्थान मक्का और मदीना की प्रमुख मस्ज़िदों के बाद तीसरे नम्बर पर आता है. 701 .पू में असीरियों ने जेरूसलम पर हमला किया था, और वह जेरूसलम पर अपना अधिकार जमाने वाले ही थे. जेरूसलम के जुदाह , के लोग असीरिया की सेना के मुकाबले कुछ भी नहीं थे. अगर उस समय असीरिया की सेना ने जेरूसलम को जीत लिया होता तो, संभवतः यहूदी धर्म समाप्त हो गया होता. पर तभी जुदाह के राजा हेज़कियाह ने जेरूसलम के चारों और पड़ने वाले जल श्रोतों को दूषित कर दिया. असीरिया के सैनिकों ने जब उस जल का उपयोग किया तो , वे बुरी तरह बीमार पड़े और मर गए. असीरियाइ सेना को भारी हानि पहुँची. उस अभियान का नेतृत्व कर रहे असीरियाई राजा सेंनाछेरीब ने अभियान स्थगित कर दिया. इस प्रकार जेरूसलम और यहूदी धर्म दोनों ही बच गए


ओटोमन साम्राज्य मध्य एशिया का एक महान साम्राज्य था. 1529 में इसने विएना पर हमला कर दिया थाविएना पर ओटोमन का कब्ज़ा हो ही गया होता , पर तभी एक घटना घट गयीउसी समय ज़बरदस्त बरसात हुयी और बारिश अप्रत्याशित रूप से कई दिन तक बरसती रहीवियेना के चारों तरफ कीचड और दलदल की एक स्वाभाविक खाईं बन गयीइसी कीचड़ और दलदल मे ओटोमन सेना की तोपें फंस गयीं और बेकार हो गयींतोपें , तुर्कियों का सबसे ज़बरदस्त हथियार हुआ करता थाजब ओटोमन सैनिक पुनः संगठित हो के बिना तोपों के ही विएना पहुंचे तब तक यूरोपीय सेना पुनः संगठित हो चुकी थीऔर ओटोमन सेनाओं को वहाँ से पराजित हो कर वापस लौटना पड़ा थाअगर ओटोमन साम्राज्य का यह अभियान सफल हो जाता तोईसाई आबादी पश्चिमी यूरोप में ही सिमट कर रह गयी होती. 


माओ त्से दुंग की 1948 की लाल क्रान्ति के पूर्व चीन में च्यांग काई शेक का शासन था. 1946 में जब चीन में  कम्युनिस्ट क्रान्ति हो रही थी तो माओ की लाल सेना के साथ च्यांग की नेशनिस्ट सेना लड़ रही थी. च्यांग उस समय भारी पड़ रहे थे. मंचूरिया उस समय कम्मुनिस्टों का गढ़ था. च्यांग चाहता था कि वहाँ से माओ को हरा कर भगा दिया जाय. अमेरिका च्यांग के साथ था. उस समय जो कम्युनिस्टों की लाल सेना थी वह नेशनलिस्टों की सेना के मुकाबले कमज़ोर थी. अमेरिका इस युद्ध में च्यांग के साथ तो था , पर वह भीतर भीतर कम्युनिस्टों से समझौते की बात भी कर रहा था. क्यों कि 1942 के बाद द्वीतीय विश्व युद्ध में अमेरिका को रूस का साथ मिल गया था. ऐसा हिटलर द्वारा रूस पर हमले के बाद हुआ. अमेरिका इस समझौता वार्ता में रूस की मदद ले रहा था. माओ को रूस का समर्थन था ही. अमेरिका इस उम्मीद में था कि कम्युनिस्टों और च्यांग के बीच समझौता हो ही जाएगा. इस लिए उसने मंचूरिया का अभियान तत्काल रुकवा दिया. च्यांग इस अभियान को रोकने के पक्ष में नहीं था. पर अमेरिकी धमकी के आगे उसे रुकना पड़ा. इस युद्ध विराम का कोई लाभ नहीं हुआ. समझौता तो हुआ नहीं , बल्कि कम्युनिस्टों को संगठित होने का मौका मिल गया और उन्होंने फिर दुबारा संगठित होकर नेशनलिस्टों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, इसका परिणाम 1949 में माओ की सफलता रही और च्यांग काई शेक को ताइवान जो तब फारमोसा कहलाता था, भाग कर शरण लेनी पडी. लंबे समय तक अमेरिका, च्यांग के ही द्वीप को चीन मानता रहा. 1972 में जब निक्सन राष्ट्रपति बने तो मुख्य भूमि वाले चीन को उसका कूटनीतिक स्थान मिला. अगर यह यह युद्ध विराम अमेरिका ने नहीं करवाया होता तो, कम्युनिस्टों का अभियान सफल नहीं हो पाता.

ऐसा नहीं कि केवल यही तीन घटनाएं ही विश्व इतिहास के घुमाव विन्दु है. भारतीय इतिहास में महाकाव्य काल से ले कर आधुनिक काल और समकालीन इतिहास मे भी ऐसी घटनाओं की भरमार है. इतिहास की यह बाज़ीगरी यह बताती है कि समय का प्रवाह और उसकी गति ही सबसे महत्व पूर्ण है. एक इतिहास कार रोबर्ट कॉवले इतिहास के इस चक्र को इन शब्दों में कहते हैं... 
"It looks more as if God does play dice and history to a great extent is a random roll of dice."



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