Thursday 16 July 2015

व्यवस्था में रह कर व्यवस्था का विरोध, क्या यह संभव है ? - विजय शंकर सिंह


बहुत पहले एक उपन्यास पढ़ा था। किसी ख्यातनाम लेखक का नहीं । उपन्यास था न्यायमूर्ति, और लेखक थे श्री गोपाल आचार्य । उपन्यास 1975 में पढ़ा था । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की संपन्न लाइब्रेरी केंद्रीय ग्रंथागार से वह पुस्तक ली गयी थी. इस विशाल पुस्तकालय के सामने लॉन में जब गुनगुनी धूप होती थी, या थोड़ी दूर स्थित विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में संगमरमर की बनी धवल चौकियों पर, बैठ कर उपन्यास पढ़ने का अलग ही आनंद था. उस उपन्यास की कथा इस प्रकार है. एक व्यक्ति किसी झूठे मुक़दमे में फंस जाता है.गरीब और निरीह व्यक्ति के खिलाफ सारे सुबूत थे । जज की कुर्सी पर जो सज्जन बैठे थे, वह जानते थे कि यह व्यक्ति निर्दोष है. सुबूत उसके पक्ष में नहीं है.उस बेचारे के पास कोई ढंग का वकील भी नहीं था. सरकार ने उसे जो वकील दिया था वह रूचि भी नहीं लेता था. जज साहब की पूरी हमदर्दी उसके साथ थी. पर जो न्यायिक प्रक्रिया थी उसके कारण जब गवाह उस निरीह व्यक्ति के विरुद्ध न किए ज़ुर्म को साबित करते चले गए,तो जज को लगा कि न्याय की इस पीठिका पर आसीन हो कर भी वह न्याय नहीं कर पाएंगे. मुक़दमा चलता रहा. पर गवाहों से जिरह करने के लिए जो वकील उस गरीब को मिला था , वह कभी आता था और कभी आता भी था तो जिरह में कुछ ढंग की चीज़ पूछता भी नहीं था. परिणाम स्वरुप वह निरीह व्यक्ति अपने मुक़दमे से निराश हो गया.
अचानक एक दिन लंबी तारीख के बाद जब वह व्यक्ति कचहरी आया तो जज साहब का तबादला हो चुका था. वहा पीठ पर कोई अन्य सज्जन विराजमान थे. पहले वाले जज से तो इस बेचारे को उम्मीद भी थी थोड़ी बहुत. पर इस नए जज से तो वह अभी कोई आशा भी नहीं कर सकता था. मुक़दमे की कार्यवाही शुरू हुयी. जज ने उस आदमी से अपना वकील लाने और जिरह करने के लिए पूछा. उसका वकील नदारद था. तभी से पीछे से आवाज़ आयी, मैं इस का वकील हूँ , और जिरह मैं करूँगा. अदालत चकित. अहलमद सहित अदालत के कर्मचारी चकित. मुवक़्क़ील चकित और विरोधी वकील भी चकित. जिस वकील ने कहा था कि जिरह मैं करूँगा, वह वही वकील थे जो पिछली तारीख पर इसी अदालत के जज थे. उन्होंने जजशिप से इस्तीफ़ा दे दिया था और न्याय और सत्य के लिए इस गरीब मुवक़्क़ील की वकालत करने का फैसला किया.

उपन्यास एक सवाल छोड़ गया है क्या व्ययस्था में रह कर व्यवस्था का विरोध संभव है ? यही सवाल आज एक नए रूप में सामने आया है. अमिताभ ठाकुर द्वारा सेवा में रहते हुए सरकारी नीतियों की आलोचना करना और जन हित याचिकाएं दायर करना. कुल 23 जनहित याचिकाएं अमिताभ और नूतन द्वारा दायर की गयी है. संभवतः न्यायालय ने ऐसा निर्देश भी दिया है बिना सरकार की अनुमति के याचिकाएं दायर नहीं की जाय. वह एक एक्टिविस्ट हैं. एक्टिविज्म एक नया शब्द है जो समाज कार्य में लीन और व्यवस्था परिवर्तन की अलख जगाये लोग, अपने अभियान को कहते है. सरकार और व्ययस्था की जड़ हो चुकी बुराइयों के विरुद्ध अलख जगाना और विभाग में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का साहस करना एक सराहनीय कार्य है. पर यह कार्य पुलिस जैसे अनुशासित विभाग में रह कर किया जाना चाहिए या नहीं, और अगर किया जाना चाहिए तो उसका स्वरुप क्या हो ? और विभाग तथा विशेषकर अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा.? आदि आदि बहुत सी शंकाएं इस प्रकरण के बाद उठने लगीं है. जिस पर विचार करना आवश्यक है. ऐसा नहीं है नेताओं से टकराने का यह पहला प्रकरण हो, और प्रताड़ित होने का भी यह पहला उदाहरण हो. आई ए एस संवर्ग में भी विजय शंकर पांडे जैसे कुछ लोग राजनीतिक प्रताड़ना के शिकार रहे है. आई पी एस में भी जसवीर सिंह जैसे कुछ अधिकारी हैं जो प्रताड़ित हुए हैं और लगातार तबादला भी झेलते रहे हैं. पी पी एस अधिकारी शैलेन्द्र ने तो ऊब कर नौकरी से त्यागपत्र ही दे दिया था. वह त्यागपत्र भी इस लिए कि उन्होंने मुख्तार अंसारी के खिलाफ कार्यवाही करने की सोची तो उसका तबादला कर दिया गया. सरकार को एक कर्तव्य निष्ठ अफसर नहीं चाहिए, उसे मुख्तार अंसारी जैसे माफिया का साथ चाहिए. ऐसा नहीं है कि ऐसे उदाहरण केवल बड़े संवर्ग में ही हों. पर निरीक्षकों और उप निरीक्षक जो थाना प्रभारी के रूप में अक्सर राजनैतिक दबाव से सबसे पहले रू ब रू होते हैं, और पहला ही हरावल दस्ते की तरह इन्हें झेलते हैं  वह तो अक्सर प्रताड़ित होते रहते हैं  , पर न तो कोई खबर बनती है, और न ही सोशल मीडिया ही इन्हें उठाता है. यह वह दर्द है जो कहीं कहा भी नहीं जा सकता, क्यों अनुशासन इस विभाग की जान है और कभी कभी विडम्बना भी.

अब पहले जैसी स्थिति पुलिस विभाग में नहीं है। कॉन्स्टेबल्स से लेकर आई पी एस तक अपने अधिकार के लिए सजग लोगों की एक खामोश पर लम्बी चौड़ी जमात है। सोशल मिडिया ने अपनी बात , कहने का ऐसा मंच उपलब्ध करा दिया है , जिस पर पुलिस के लोग थोड़ा थोड़ा ही सही अपनी बात शेयर कर रहे हैं। इसी विभाग में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जब कि अतीत में पुलिस अधीक्षक और थानाध्यक्ष में बोल चाल नहीं रही पर थानाध्यक्ष तब भी अपनी काबिलियत के भरोसे बने रहे। और न उनका रिमार्क खराब हुआ और न ही पुलिस अधीक्षक ने इसे व्यक्तिगत रूप से लिया।  ऐसे आई पी एस और आई ए एस अफसर भी हुए हैं जिन्होंने मुख्य मंत्री को भी गलत सिफारिश पर उन्हें समझा बुझा दिया और पद पर भी बने रहे। डिजिटल युग का यह प्रतीकात्मक दर्शन भी शायद है कि हम सब अपने अपने खोल में गुम हैं और स्वार्थ की चादर ओढ़े , जी रहे हैं। अमिताभ ठाकुर जैसी बात आगे नहीं होगी यह कहा नहीं जा सकता है , क्यों कि स्थिति बिगड़ेगी तो प्रतिक्रिया भी होगी।

सिर्फ अनुशासन और नियमावली के धाराओं और उपधाराओं से यह रोका  नहीं जा सकता है। मैं खुद जब अपने सेवा काल के शुरुआती दौर 1979 / 80 और अंतिम दौर 2012 /13 की तुलना करता हूँ तो न केवल अनुशासन का क्षरण ही पाता हूँ , बल्कि  पाता हूँ जो एक बृहत्तर पुलिस परिवार का भाव था वह धीरे धीरे लुप्त हो रहा है। आपसी विश्वास और भरोसे के संकट से ग्रस्त यह मानसिकता विभाग के लिए दुखद और दुर्भाग्य पूर्ण है। विभाग अनुशासित तो रहे ही पर यह  भी आवश्यक है कि हर आक्रोश और असंतोष को सूना जाय और अगर वह जायज है तो उसका निदान किया जाय। किसी भी प्रकार के प्रतिशोध के स्थिति विभाग का ही अहित करेगी। इन सब के लिए बड़े अधिकारियों को आगे ही नहीं बल्कि पूर्वाग्रह मुक्त नेतृत्व ग्रहण करना होगा। राजनीतिक समाज कभी नहीं चाहेगा कि यह वृहत्तर परिवार बना रहे। विभाग की एकता और अनुशासन से वह जानता है कि  उसका हिट नहीं सधेगा। पुलिस अन्य विभागों के सामान ट्रेड यूनियन जैसी कोई संस्था नहीं है और न होनी चाहिए अतः ऐसी हालत में विभाग के वरिष्ठों को संरक्षक के के रूप में ही सक्रिय होना होगा।

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