Monday 13 July 2015

आसाराम के गवाहों पर हमला और उनकी हत्या - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह



मैंने अपनी नौकरी के दौरान बहुत से आपराधिक मुक़दमे न्यायालयों में चलते देखे हैं. बहुत दुर्दांत अपराधियों के विरुद्ध भी और आधुनिक माफिया गिरोहों के बीच भी. पर जिस रहस्यमय तरीके से व्यापमं घोटाले की विवेचना और आसाराम द्ववारा बलात्कार काण्ड के मुक़दमे की सुनवाई के दौरान गवाहों की रहस्यमय रूप में मृत्यु और उनकी हत्या हो रही है, यह मेरे लिए भी हैरान कर देने वाली बात है. गवाहों की सुरक्षा के लिए क़ानून भी है, और स्थानीय पुलिस भी उनके सुरक्षा की व्यवस्था करती है, पर बड़े से बड़े मामलों में भी ऐसे हत्यारे षडयंत्र की प्रवित्ति नज़र नहीं आती है. मेरी मित्र सूची में फेसबुक पर बहुत से काबिल और अनुभवी पुलिस अफसर भी है और एडवोकेट तथा जज साहब भी है. हो सकता है उनका अनुभव मुझसे अलग रहा हो, पर मेरा अनुभव तो यही है.

बात गवाहों पर हमलों की ही नहीं अपितु, पुलिस के विवेचकों पर भी रहस्यमय हमलों की भी है और यहां तक की इस खबर को कवर करने गए पत्रकारों की भी यही नियति है. अमूमन चम्बल घाटी के दस्यु गिरोह जो अब अतीत बन चुके हैं, या 1977 से 1987 तक एटा, मैनपुरी, इटावा, फरुखाबाद, कानपुर, आदि जिलों में तब के सक्रिय गिरोह, छबिराम, अनार सिंह, महावीर , पोथी , विक्रम मल्लाह, लाला राम श्री राम , फूलन आदि के गिरोह, हों या बाँदा के ददुआ, ठोकिया, संतोषा आदि के गिरोह या फिर दस साल पहले के निर्भय गूजर आदि के गिरोहों के विरुद्ध  मुक़दमों की सुनवाई के दौरान भी ऐसी बात नहीं सुनी गयी. हालांकि  जिन गिरोहों के नाम मैंने ऊपर लिए हैं इनमें से अधिकतर के खिलाफ मुक़दमा चलने की नौबत ही नहीं आयी बल्कि सभी से पुलिस की समय समय पर मुठभेड़ हुयी और सभी अपराधी मारे भी गए. फिर भी कुछ मुक़दमे चले तो भी गवाहों को सामूहिक तौर पर निपटाने का षड्यंत्र सामने नहीं आया.

पूर्वांचल के शातिर माफिया गिरोहों जैसे हरिशंकर तिवारी , वीरेंद्र शाही, मुख्तार अंसारी और बृजेश सिंह के बीच आपसी वर्चस्व की होड़ और लड़ाई ने ज़रूर एक दूसरे के गुर्गों को निपटाया है पर वह भी उनके कट्टर समर्थकों की प्रतिद्वंद्विता के कारणहरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही के बीच जो गुंडई की प्रतिद्वंद्विता पहले चली थी वह रेलवे सहित विभिन्न सरकारी विभागों में ठेकेदारी को ले कर और बढ़ी और बाद में इसने जातिगत रूप ले लिया, और यह विवाद ठाकुर बनाम ब्राह्मण हो गया. जातिवाद का जहर इतना गहरे उतर गया कि कोई भी सरकारी विभाग यहां तक कि पुलिस भी इस जातिगत आधार पर बंटे बिना नहीं रह सकीबाद में दोनों माफिया विधायक भी बने. वीरेंद्र शाही की तो हत्या ही हो गयी, पर हरिशंकर तिवारी अपनी सुविधा और गणित के अनुसार दल बदलते रहे और खुद को ड्राई क्लीन करते हुए माननीय मंत्री भी बन गए, और अब तो उसकी अपराध की उम्र ही नहीं  रही. पर अब भी परदे के पीछे मार्ग दर्शन करते ही रहते हैंचोर चोरी से जाय हेरा फेरी से नही.

व्यापमं प्रकरण में 48 लोग मर चुके हैं. इस में सभी हैं. गवाह , मुल्ज़िम, पीड़ित, विवेचक और पत्रकार भी. जिन्होंने इस घोटाले को उजागर किया है और जिन्हें व्हिसिल ब्लोअर अंग्रेज़ी में हम कहते हैं, वे अब भी डटे हैं. हालांकि, उन पर खतरा भी है और सरकार ने कुछ सुरक्षा की भी है. अब सी बी आई को जांच करना है, देखिये क्या होता है.

उधर आसाराम के गवाहों की भी हत्या हो रही है. हालांकि उनकी जमानत अभी नहीं हुयी है और संभवतः होगी भी नहीं पर उसके केस के गवाहों की हत्या से मुझे तो ऐसा ही लगता है कि इसने शिष्य नहीं गुंडों और अपराधियों का गिरोह ही पाला है और ट्रेंड किया है. सरकारी ज़मीन पर कब्ज़े से ले कर महिला दुष्कर्म सहित मनी लॉन्डरिंग के अनेक मामलो में आसाराम और इसका बेटा आरोपी है. हैरानी की बात है, इसके अधार्मिक कृत्य सामने आने के बाद भी इसके भक्त इसके मुरीद बने हुए हैं. धर्म सच में अफीम है, जो अपने आराध्य का दुष्कर्म नहीं देखने देती है.

व्यापमं घोटाला और आसाराम दोनों ही सफेदपोश अपराधी है. सत्ता शीर्ष के साथ नौकरशाही और पुलिस तंत्र में भी इनकी तगड़ी पहुँच है. व्यापमं में घोटाले करने वाले निश्चित रूप से बीहड़ के डकैत नहीं है. बल्कि इसमें सबसे प्रबुद्ध , पढ़े लिखे, और सफेदपोश लोग लिप्त है. यह राजनीति, नौकरशाही, और शिक्षा की तिजारत करने वालों का घृणित , शातिर और आपराधिक गठबंधन है. अब सी बी आई ने 40 सदस्यीय टीम का गठन भी कर दिया है. सीबीआई खुद अपने यहां मुक़दमे दर्ज़ कर शुरुआत से विवेचना करेगी. आशा है सत्य और तथ्य सामने आएंगे और व्यापमं का राज जो बचपन में पढी गयी जासूसी किताबों की तरह हो चला हो चला है, का तिलस्म टूटेगा.

आसाराम के मामले में 9 गवाहों की हत्या हो गयी है, या वह गंभीर रूप से घायल किये जा चुके हैं. साफ़ शब्दों में कहें तो वह निपटाये जा चुके जा हैं. लेकिन एक भी मामले में कोई भी उल्लेखनीय कार्यवाही नहीं की गयी. आसाराम को  2013 में एक 16 वर्षीया नाबालिग बालिका के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में जेल भेजा गया था, और अब तक उसकी जमानत नहीं हुयी है. उसका मुक़दमा जेरे सुनवाई अदालत है. घायल या हत्या किये गए गवाहों में नवीनतम कड़ी 35 वर्षीय शाहजहाँपुर निवासी, कृपाल सिंह है जो पीड़िता के पिता के यहां काम करते थे , और आसाराम के यहां सेवादार थेदो अज्ञात व्यक्तियों ने उस पर गोली चलाई, जिस से वह गंभीर रूप से घायल हो गएऔर आज उन का निधन हो गया. इसके पहले भी आसाराम का कुक अखिल गुप्त और दिनेश भागचंदानी पर भी हमले हुए हैं जिसमें अखिल गुप्ता की मौत हो गयी है. पर इन मामलों में लचर पुलिसिंग, राजनीतिक संरक्षण और दखलंदाजी के चलते उपरोक्त गवाहों के विरुद्ध हुए हमलों में कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं की जा सकी है. ऐसा नहीं है कि गवाहों की हत्या पहली बार हो रही है, पर जितने सुनियोजित तरीके से गवाहों को निपटाया जा रहा है उसी से आसाराम का अपराध प्रामाणित हो रहा है. ऐसा लगता है कि वह संत नहीं बल्कि संत का आवरण ओढ़े एक कुख्यात माफिया है, जो अपने कुकर्मों की पर्देदारी कर रहा है.

न्याय प्रणाली जो अपने यहां प्रचलित है वह गवाहों की गवाही पर बहुत कुछ निर्भर करती है. अदालतें भी सच जानते हुए भी जब तक वह सच प्रमाणित हो जाय तब तक सजा नहीं दे सकतीं हैं. यह आपराधिक न्याय व्यवस्था की एक विडम्बना भी है. इस मामले में भी भले ही आसाराम और उसका बेटा, जेल में है , पर उसके अंध भक्त उसके इशारे पर गवाहों का खात्मा करने में लगे हैं. गवाहों के पक्षद्रोही हो जाने या मर जाने के कारण अभियोजन का पक्ष स्वतः कमज़ोर हो जाएगा. किसी भी बड़े और कुख्यात माफिया के विरुद्ध हो रही मुक़दमें की सुनवाई के दौरान अपनाई जाने वाली यह आपराधिक रणनीतिसबसे बड़ी समस्या है.

( विजय शंकर सिंह )


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