अमिताभ ठाकुर का निलंबन अप्रत्याशित नहीं था. मुलायम सिंह के विरुद्ध कायम कराया गया मुक़दमा तो तात्कालिक कारण है. पर इस निलंबन की भूमिका तो पहले से ही बन रही थी. अब निलंबन हो गया, बलात्कार का मुक़दमा भी कायम हो गया, अब आगे क्या होगा यह देखना है. सोशल मिडिया में अमिताभ को पर्याप्त समर्थन मिल रहा है. पर यह समर्थन कितना दबाव डाल पायेगा, यह भी देखना है. सरकारी दंड नियमावली में निलंबन कोई दंड नहीं माना जाता है. यह केवल एक स्थिति है. जिसमे आधी तनख्वाह मिलती है और कोई दायित्व भी नहीं रहता है. जिन आरोपों के लिए सरकार निलम्बित करती है , उन आरोपों की जांच के बाद अगर अधिकारी दोषमुक्त होता है वह पुनः बहाल हो जाता है , अन्यथा वह दण्डित होता है और तब बहाल होता है. पुलिस में निलंबन का दंश आई पी एस और पी पी एस अधिकारियों पर कम ही चुभा है, पर निरीक्षकों और उपनिरीक्षकों का निलंबन बहुत हुआ है और होता भी रहता है. अधिकतर निलम्बन बहुत ही सामान्य गलतियों के कारण और कभी कभी तो बिना गलतियों के ही निलंबन हो जाता है.
ब्रिटिश राज की अनेक विरासतों में से अखिल भारतीय सेवाएं भी एक है. आई ए एस, आई पी एस और आई एफ एस (वन सेवा ) ये तीन अखिल भारतीय सेवाएं हैं. इनको मूलतः राज्यों में बांटा जाता है. अपने अपने राज्यों से ही केंद्र सरकार इन्हें कुछ नियमों के अंतर्गत जिसे प्रतिनियुक्ति कहते हैं अपनी सेवाओं में लेती हैं. आई ए एस, ब्रिटिश काल के आई सी एस,( इंडियन सिविल सर्विस ) और आई पी एस, आई पी ( इम्पीरियल पुलिस ) का नया अवतार है. आई सी एस, की परीक्षा, और न्यूनतम योग्यता, आई पी से अलग और उच्च होती थी. पहले इसमें केवल अँगरेज़ ही बैठते थे और चुने जाते थे. सबसे पहले भारतीय सत्येन्द्र नाथ टैगोर, जो गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के बड़े भाई थे, जो आई सी एस के लिए चुने गए थे. महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी और दार्शनिक अरविंदो घोष, और नेता जी सुभाष बाबू भी आई सी एस की परीक्षा में सफल हुए थे. अरविंदो , परीक्षा में तो सफल हुए थे, पर घुड़सवारी की परीक्षा में फेल हो गए थे. जब कि सुभाष बाबू ने चयन होने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था. आई पी की तुलना में आई सी इस एक एलीट सेवा मानी जाती थी. बाद में जब देश आज़ाद हुआ तो, संविधान सभा में ब्रिटिश राज की यह विरासत बनाये रखी जाय या नहीं पर बहुत बहस हुयी। बहुत से सदस्य इन सेवाओं को औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त मानते हुए समाप्त किये जाने के पक्ष थे ,. तब सरदार पटेल ने इन सेवाओं को देश की राष्ट्रीय एकता का आधार बताते हुए इन्हें जारी रखने का तर्क दिया था। तब संविधान सभा में इसे बनाये रखने का निर्णय लिया गया. तब से यह अखिल भारतीय सेवाएं ( AIS ) के रूप में आई ए एस, आई पी एस, और आई एफ एस, के नए कलेवर के साथ गठित हुईं.
इन सेवाओं की अलग नियमावली है. भारत सरकार का गृह विभाग, आई पी एस, का, डी ओ पी टी, आई ए एस का और वन और पर्यावरण मंत्रालय , वन सेवा का कार्य देखता है. निलंबन की भी नियमावली है. उन्ही नियमावली के तहत इन सेवाओं अधिकारियों का निलंबन होता है। ब्रिटिश राज में आई सी एस और आई पी के अधिकारी निलंबित नहीं होते थे. अधिक से अधिक उनका या तो स्थानान्तरण होता था , अथवा वे वापस इंग्लॅण्ड भेज दिए जाते थे . आज़ादी के बाद, निलंबन के लिए जो नियम बने, उसमे राज्य सरकारों को इन अधिकारियों के निलंबन का अधिकार नहीं दिया गया था. 1967 में जब इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री बनीं तो राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया गया कि वह अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को तीन महीने के लिए केंद्र से अनुमोदन के बाद निलंबित कर सकती हैं पर 1977 में जब मोरार जी देसाई प्रधान मंत्री बने तो, अनुमोदन के स्थान पर सूचित करने की शर्त का उल्लेख कर दिया गया . इन सेवाओं के अधिकारियों का निलंबन कम होता था या बिलकुल ही नहीं होता था, इस लिए इस बारे में कोई सोचता भी नहीं था.
उत्तर प्रदेश में सबसे आई पी एस का पहला निलंबन 1970 के आस पास मथुरा के पुलिस अधीक्षक का हुआ था. वह किसी आपराधिक मामले में संलिप्त पाये गए थे. निलंबन की प्रथा 1993 के बाद शुरू हुयी. जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनी तो उन्होंने पहली बार निलंबन के चाबुक से यह सेवाएं प्रभावित हुयी. अत्यंत छोटे छोटे मामलों में भी इन अधिकारियों के निलंबन हुए. इसी काल में जाति आधारित अधिकारियों का ध्रुवीकरण भी हुआ और सपा बसपा की प्रतिद्वंद्विता से ओबीसी में यादव और दलित वर्ग में मायावती के सजातीय एक दूसरे के परंपरागत शत्रु मान लिए गए. इसका सबसे बड़ा खामियाज़ा, इन जातियों के उन निष्ठावान अधिकारियों को भुगतना पड़ा, जो प्रोफेशनली सक्षम थे और किसी से भी जुड़े नहीं थे. तब ऐसे ऐसे अधिकारियों का निलंबन हुआ जो सच में निष्ठावान और क़ाबिल थे. कुछ नाम भी ले दूं. अभय शंकर, एस एस पी इटावा, अरुण कुमार एस एस पी ग़ाज़ियाबाद, आदि के निलंबन महज़ ज़िद या किसी खुन्नस के कारण हुए थे जब कि यह दोनों ही अधिकारी अच्छे और कर्मठ माने जाते थे. अब अमिताभ ठाकुर का जो निलम्बन हुआ है उसके कारण चाहे जो सरकार बताये, पर उनकी सारी कमियों का मुलायम सिंह के सुधरने की सलाह के बाद ही याद आना संदेहास्पद और हास्यास्पद दोनों ही है.
इस प्रकरण के साथ साथ एक और प्रकरण घटा है जो निलंबन तो नहीं बल्कि एक युवा और नए आई पी एस अफसर का अपराधी को गिरफ्तार करने पर हुआ स्थानांतरण है. वैभव कृष्ण, ग़ाज़ीपुर के पुलिस अधीक्षक थे. उन्होंने हत्या के एक मामले में सपा के एक प्रभावशाली नेता को गिरफ्तार करा लिया. वैभव उसी दिन स्थानांतरित हो गए, जिस दिन उन्होंने इस अपराधी को गिरफ्तार किया था. यह भी एक विडम्बना है कि वैभव के काम से ग़ाज़ीपुर की जनता तो खुश थी पर स्थानीय मंत्री अप्रसन्न थे. अमरनाथ यादव जो हत्यारोपी है, की गिरफ्तारी से मंत्री अप्रसन्न थे. वह नहीं चाहते थे कि इस मामले में इसकी गिरफ्तारी हो. ग़ाज़ीपुर की जनता इस तबादले से आक्रोशित है. एक कटु सत्य यह भी है कि, कर्तव्य निष्ठ, और प्रोफेशनली सक्षम अधिकारी चाहे किसी भी सेवा के हों या किसी भी जाति के हों , पोलिटिकल क्लास को जब वे सत्ता में होते हैं तो पसंद नहीं आते हैं. वह रास्ते का अवरोध ही समझे जाते हैं. जनता उन्हें चाहती है पर जनता की सुनता कौन है, सिवाय चुनावों के !
समाजवादी पार्टी का समाजवाद क्या है, मुझे नहीं मालूम, पर वह समाजवाद , डॉ लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, और जय प्रकाश नारायण का समाजवाद तो नहीं ही है. लगे हाँथ गोरख पाण्डेय की यह प्रसिद्ध कविता भी पढ़ लें. आप को पसंद आएगी. गोरख एक प्रखर और प्रतिभावान प्रगतिशील कवि और युवा नेता थे. बिहार के रहने वाले थे. उनकी मृत्यु 1989 में हुयी थी असामयिक और अस्वाभाविक थी.
समाजवाद
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...
नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...
गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...
काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...
डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...
वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...
लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...
महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...
छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...
परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...
धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
( गोरख पाण्डेय, रचनाकाल : 1978 )
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