Thursday, 30 July 2015

याक़ूब मेमन को फांसी - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह.



याक़ूब मेमन को आज सुबह फांसी दे दी गयी. यह न तो प्रतिशोध था, और न ही इस कदम से भविष्य में होने वाली किसी आतंकी घटना को ही रोका जा सकेगा. पर इस फांसी ने सबके विविध रंग और दृष्टिकोण भी दिखा दिया है. क़ानून की दृष्टि में यह एक अपराध का दंड था. अपराध जघन्य था तो दंड भी उसी के अनुरूप ही होगा. पर देश में ऐसा माहौल बना दिया गया कि यह सजा विवाद के घेरे में आ गयी. जब किसी विषय पर घोर कौआरोर मचा हो तो उस मसले के फैसले पर निर्णय लेने वाला कोई भी व्यक्ति कितना भी प्रबुद्ध और न्याय प्रिय क्यों न हो थोडा बहुत दबाव में आ ही आ जाता है. आखिर सुप्रीम कोर्ट के जज और राष्ट्रपति मनुष्य ही तो हैं. सभी स्थितप्रज्ञ नहीं होते हैं. अब उसकी फांसी पर भी विवाद हो रहा है. फांसी की सजा दिया जाना उचित है या नहीं यह बहस का विषय है. पर जब तक क़ानून की किताबों में फांसी की सजा का प्राविधान है तब तक अदालतें यह दंड देती रहेंगी. ऐसी ही बहस अफज़ल गुरु के समय भी उठी थी. कुछ लोगों का तर्क है कि वह निर्दोष है या उसका उतना दोष नहीं है कि उसे फांसी पर लटका दिया जाय. मेरा मानना है कि जब उसके मुक़दमें की सुनवाई अदालत में विभिन्न स्तरों पर चल रही थी तो उसके निर्दोषिता या कम अपराध के बारे में क्यों नहीं लोग अदालतों में तर्क रखते हैं. हो सकता है रखा भी गया हो. पर अदालत ने सब सोच समझ कर ही यह सजा दी होगी. सेशन कोर्ट के बाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी ऐसे मुक़दमों को बड़ी बारीकी से सुनती है. अदालतों ने फांसी की सजा को रेयर ऑफ़ द रेयरेस्ट केस के आधार पर ही देने की मानसिकता की बात की है. शायद ही कोई मुक़दमा ऐसा हो जिसके फैसले में कोई न कोई कमी नहीं निकाली जा सके. अगर यही प्रवित्ति हो गयी तो हर मुक़दमे का फैसला विवादित ही हो जाएगा. यह प्रवित्ति न्यायिक अराजकता को ही जन्म देगी.

12 मई 1993 को बम्बई में सीरियल ब्लास्ट की घटना हुयी थी . एक के बाद एक हुए 13 स्थानों पर बम के धमाकों ने देश के इस आर्थिक राजधानी को हिला दिया था. 257 लोग मरे और 713 नागरिक घायल हुए थे. अकेले बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में हुए विस्फोट में 50 लोग मारे गए थे.  देशव्यापी प्रतिक्रिया हुयी. कुछ ने इसे बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस के प्रकरण से जोड़ कर देखा. कुछ ने पाक प्रायोजित आतंकी घटना माना. पर यह भी सच है यह देश में इस्लामी आतंकवाद की शुरुआत थी. इस शब्द पर चौंकिये और दुखी या प्रसन्न मत होइए. इसी देश में इसके पहले सिख आतंकवाद और बाद में भगवा या हिन्दू आतंकवाद भी हुआ है. उस मुक़दमें की तफ्तीश हुयी. 1994 में याक़ूब दिल्ली में गिरफ्तार हुआ लेकिन कुछ का कहना है कि उसे काठमांडू पुलिस ने गिरफ्तार किया था,  और तब पुलिस को सौंपा था. उसके ऊपर  बॉम्बे ब्लास्ट का षड्यंत्र रचने, हवाला के ज़रिये धन जुटाने, धमाका करने वालों को प्रशिक्षण देने, और 85 ग्रेनेड धमाका करने के लिए उपलब्ध कराने के आरोप थे. उसके घर से 12 ग्रेनेड बरामद भी हुए थे. सी बी आई ने कुछ और अभियुक्तों को भी गिरफ्तार किया और आरोप पत्र न्यायालय में दिया. एक अभियुक्त दाऊद इब्राहिम देश से फरार है और वह कराची पाकिस्तान में अपने ख्वाबगाह में आराम फरमा रहा है. वहाँ उसकी सुख सुविधा और सुरक्षा की जिम्मेदारी आई एस आई की है. हालांकि पाकिस्तान सरकार बराबर यह इनकार करती रहती है कि वह पाकिस्तान में नहीं है. बल्कि यह सरासर झूठ है और वह पाकिस्तान के शहर कराची में ही है। कुछ सालों पहले एक टी वी न्यूज़ चैनल ने उसके ठिकाने की पूरी फोटो दिखाई थी. और उस पर पूरी रिपोर्ट भी प्रस्तुत की थी.

याक़ूब मेमन के मुक़दमे की सुनवाई सत्र न्यायालय में चली और सत्र न्यायालय ने याक़ूब मेमन को दोषी पाते हुए 2007 में फांसी की सजा दी. इसकी अपील हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में हुयी, वहाँ से भी फांसी की सजा बहाल रही. फिर एक पुनर्विचार याचिका दायर की गयी. सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी. याक़ूब मेनन ने इसके बाद राष्ट्रपति महोदय के समक्ष दया याचिका दायर की. राष्ट्रपति द्वारा यह दया याचिका भी अस्वीकृत कर दी गयी. इसके बाद सत्र न्यायालय ने डेथ वारंट जारी कर दिया और फांसी की तिथि  30 जुलाई नियत कर दी. फांसी की तिथि घोषित होने और डेथ वारंट जारी हो जाने के बाद याक़ूब मेनन ने सुधारात्मक याचिका पुनः सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर की . अदालत ने यह याचिका भी खारिज कर दी. इसके बाद राष्ट्रपति के समक्ष दुबारा दया याचिका याकूब मेमन द्वारा दायर की गयी. दिनांक 29 / 30 जुलाई की रात को वह याचिका भी निरस्त हो गयी. इसके बाद एक और याचिका सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर की गयी. रात में ही जिसकी विशेष सुनवाई हुयी, और वह याचिका भी निरस्त कर दी गयी. अंततः जो डेथ वारंट सत्र न्यायालय द्वारा निर्गत किया गया था उसका क्रियान्वयन कर दिया गया. 30 जुलाई को याक़ूब मेमन को फांसी दे दी गयी.
इस फांसी की सजा ने कई सवाल खड़े किये है.
1. अपराध पर विवेचना और दोषी को दंड देना,  राज्य का  अनिवार्य कृत्य है. अगर न्यायिक प्रक्रिया अपने तय नियमों और प्राविधानों के अनुसार पूरी की गयी हो और अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने दोष सिद्ध पाते हुए किसी भी अभियुक्त को दी गयी सजा बहाल रखी हो, तो क्या उस सजा पर सोशल मिडिया या अन्य प्रेस में चर्चा होनी चाहिए. और चर्चा भी मुक़दमें की मेरिट पर होनी चाहिए ?
2. क्या किसी भी अभियुक्त को दंड देने के बाद , उस अभिगुक्त के कृत्य से उत्पन्न परिस्थितियों और उस आपराधिक कृत्य से पीड़ितों की वेदना और हानि को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए ?
3. क्या दोष सिद्ध होने के बाद भी अभियुक्त के प्रति नरम रवैया अपना कर क्या राज्य को अपनी क्षवि एक सॉफ्ट स्टेट की बनाये रखना चाहिए ?
4. क्या सजा का विरोध या समर्थन धर्म के आधार पर किया जाना चाहिए ?
5. क्या फांसी की सजा, समाप्त कर दी जानी चाहिए ?हो सकता है आप के मन में और भी सवाल कुलबुला रहे हों.

मेरा मानना है कि अपराध की विवेचना और अदालत में सुनवाई और उसकी अपील आदि की एक विस्तृत प्रक्रिया है. सभी मुकदमों का निस्तारण इन्ही प्रक्रिया के अनुसार होता है. सुनवाई के हर अवसर पर अभियुक्त पक्ष को पर्याप्त अवसर मिलता है अपनी बात कहने का. इस मामले में 1994 में गिरफ्तारी होने के बाद भी अदालत से सजा सुनाने के वर्ष 2007 तक का पर्याप्त समय याक़ूब मेमन को अपनी निर्दोषिता साबित करने के लिए मिला था. पर अदालत के समक्ष जो साक्ष्य थे वह उसे दोषी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थे . इस घटना में 257 लोग मारे गए थे. अतः इसे अदालत ने इसे रेयर ऑफ़ द रेयरेस्ट मामले में रख कर फांसी की सजा दी. यह सजा अंत तक बहाल रही. इस सजा को लेकर जो आरोप प्रत्यारोपों का दौर चला और अब भी चल रहा है, का एक बेहद गम्भीर परिणाम निकल सकता है. आज बात फांसी की हो रही है, कल हर सजा पर फैसले के बाद  अंगुली उठेगी, और हर व्यक्ति जिसे क़ानून और कानूनी प्रक्रियाओं की जानकारी नहीं होगी वह भी हर सजा को अदालत की मन मर्ज़ी ही बताएगा. इस का एक विपरीत प्रभाव यह पड़ेगा कि अदालतें मुक़दमों की सुनवाई और फैसलो के दौरान साक्ष्यों पर कम और सजा के सामाजिक और प्रचारात्मक प्रभाव पर अधिक ध्यान देने लगेंगी. इस से न्याय करते समय बाहरी दबाव अपना प्रभाव डालेंगे और मुक़दमों के फैसले भी प्रभावित होने लग जाएंगे. फिर यह न्याय नहीं रह जाएगा वह एक प्रकार का मात्स्यन्याय ही होगा. सोशल मिडिया के दिन ब दिन लोकप्रिय और गैर जिम्मेदार होने के कारण यह प्रवित्ति और भी बढ़ेगी.

ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी फांसी को ले कर ऐसा ध्रुवीकरण हुआ है. याद कीजिये, बेअंत सिंह के हत्या के दोषी राजुआना को भी फांसी की सजा दी गयी थी. पर उस सजा के खिलाफ अकाली दल जो भाजपा का सहयोगी दल है ने सवाल ही नहीं उठाये थे बल्कि पंजाब बंद का आह्वान भी किया था. वह सजा भी फांसी से आजीवन कारावास में बदल दी गयी थी. क्या इस विरोध को किसी ने देश द्रोह से जोड़ा था ? आतंकी घटना तो यह भी थी. पर उसे तब देश द्रोह और देश भक्ति से नहीं जोड़ा गया था.  ल देश द्रोह और देश भक्ति का जो पाला अब खींचा जा रहा है उस से देश में वही पतिस्थितियाँ बन रही हैं जो 1940 में मुस्लिम लीग ने बनानी शुरू की थी. यह पाले बाज़ी राजनीतिक लाभ भले दे दे, पर अंततः यह देश का अहित ही करेगी. यह परिस्थिति देश के विघटनकारी ताक़तों को मज़बूत करेगी. हिन्दू होना और हिन्दू हित की ही बात करना जिस दिन देशभक्तिं की परिभाषा बन जाएगी, उसी दिन से देश के विघटित होने का खतरा बढ़ जाएगा. अगर फांसी का विरोध करना है तो फांसी की सजा का सैद्धांतिक विरोध कीजिये. पर इसकी फांसी सही और उसकी फांसी गलत, और वह भी धर्म के आधार पर इस का विभाजन तो आत्मघाती ही होगा. बहुत से प्रबुद्ध लोगों और क़ानून के जानकार हस्तियों ने भी इस सजा की निंदा की है. केवल सजा की निंदा करना और फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल देने की गुहार लगाने से ही उनकी देश भक्ति संदिग्ध नहीं हो जाती है. लेकिन सोशल मिडिया पर सक्रिय देश भक्त मित्र ऐसा दुष्प्रचार कर के देश की एकता को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं. दुनिया का कोई भी देश बिना आतंरिक एकता को मज़बूत किये अपने दुश्मन से लड़ नहीं सकता है. सोशल मिडिया का यह अपशब्दों भरा , कुतर्की अंध राष्ट्रवाद अंततः देश का अहित ही करेगा.

आज फांसी के समय जो तमाशा नागपुर जेल के सामने हुआ, और याक़ूब के जनाजे में जो भीड़ उमड़ी उस से अगर गंभीरता से पढ़ें तो सन्देश साफ़ दिखेगा. यह साफ़ साफ़ धर्म के आधार पर विभाजन है. एक सवाल बड़ी शिद्दत से पूछा जा रहा है कि बेअंत सिंह के हत्यारे के समय  जो सिख जन भावना उमड़ी थी उसका आदर तो किया गया पर इस समय क्यों नहीं इस पर विचार किया गया ? यह सन्देश साफ़ साफ़ संदेह उत्पन्न करता है. एक तर्क यह भी दिया जाता है कि बॉम्बे ब्लास्ट एक बहुत बड़ी आतंकवादी घटना थी और इसमें 257 लोग मरे थे. निश्चित रूप से जब भी हम ऐसे अपराधों की बात करते हैं तो फोकस सिर्फ अभियुक्त ही होता है , घटना के शिकार नेपथ्य में खो जाते हैं. इस मामले में भी ऐसा हुआ है. मानवाधिकार संगठन भी अभियुक्त की ही बात करते हैं और पीड़ित की कोई चर्चा नहीं करते हैं. मैं इस तर्क से सहमत हूँ. पर क्या श्री कृष्णा कमीशन, बाबरी विध्वंस के बाद हुए दंगे, गोधरा के बाद हुए गुजरात के दंगे, मेरठ के दंगे, मलियाना काण्ड, और 84 के सिख विरोधी दंगो के अभियुक्तों के बारे में क्यों नहीं बात उठायी गयी. आप कह सकते हैं कि याक़ूब को छोड़ने का यह आधार नहीं हो सकता है. मैं मानता हूँ कि एक अपराध दुसरे अपराध की इजाज़त नहीं देता है और न ही उसका औचित्य सिद्ध करता है. पर यह सारे घटनाक्रम और घटनाएं न्यायिक व्यवस्था के लिए एक अविश्वास के वातावरण का ही सृजन कर रही हैं. आज ही माया कोडनानी को गुजरात दंगो की सज़ायाफ्ता है, को जमानत मिली है. बाबू बजरंगी को पहले ही जमानत पर छोड़ा जा चुका है. असीमानंद के मामले में सरकारी वकील को पहले ही यह हिदायत कर दी गयी है कि वह पैरवी थोडा धीरे करें. इस से जो भ्रम फ़ैल रहा है उस से न्यायिक व्यवस्था के ही कठघरे में आ जाने का खतरा बढ़ गया है.

सत्ता या क़ानून जो भी हो, उसका सबसे बड़ा आधार उसकी साख होती है. जिस दिन साख पर संकट आ जाएगा उस दिन किसी क़ानून और अदालत का अर्थ नहीं रह जाएगा. न्यायिक प्रक्रिया को बदल कर अगर फांसी की सजा ही ख़त्म करने का इरादा है तो वह काम संसद एक संशोधन के साथ कर सकती है. इसके लिए जो राजनीतिक दल इसमें भी अपना राजनैतिक स्वार्थ देख रहे हैं वह संसद में एक बिल लाएं और फांसी की सजा का खात्मा कराएं. दुनिया के बहुत से देशों में यह सजा समाप्त है. लेकिन किसी भी सज़ा का विरोध अगर धर्म और जाति के चश्में से किया जाएगा तो सवाल भी उठेगा और न्याय खुद ही कठघरे में खड़ा नज़र आएगा।

\( विजय शंकर सिंह )

Monday, 20 July 2015

मुसीबत और चुनाव में राम हीं याद आते हैं ! / विजय शंकर सिंह


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अक्सर अपने लेखों में मैं यह बात ज़रूर कहता हूँ कि राम मंदिर आंदोलन का गुप्त एजेंडा भाजपा के लिए सत्ता की राह आसान बनाना रहा है. जब वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट अचानक बिना किसी विचार विमर्श के लागू कर दी तो देश का वातावरण अत्यंत विषाक्त हो गया था. अगड़ों और पिछड़ों के बीच खुला संघर्ष शुरू हो गया था. क़ानून व्यवस्था की स्थिति खराब हो गयी थी. हालांकि वह निर्णय भी जनता दल के आपसी प्रतिद्वंद्विता का परिणाम था. भाजपा ने उसके उत्तर में राम जन्म भूमि के मुद्दे को जो 1985 में ताला खुलने के बाद ही धीरे धीरे सुलग रहा था, हवा देनी शुरू कर दिया था. विश्व हिन्दू परिषद का राम शिला पूजन अभियान चल ही रहा था. इसी बीच रथयात्रा हुयी और कार सेवा के नाम पर 1990 में विवादित ढाँचे को पहली बार नुकसान पहुंचा . उसके बाद जब भी उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए है उसके पहले पड़ने वाले कुम्भ मेले में एक संत समागम होता था और उसी में यह मुद्दा उठता रहा है. और मंदिर निर्माण की तिथियाँ भी घोषित होती रहीं हैं. यह सब तब भी होता रहा है जब कि सब जानते थे कि यह लगभग असंभव है. पर चुनाव बाद फिर राम को वनवास दे दिया जाता रहा है. राम का यह चुनावी दुरूपयोग अगर आप को स्वीकार है तो आप की मर्ज़ी, पर मुझे नहीं.

यही कहानी फिर दुहराई जा रही है. अभी नासिक कुम्भ में और 2016 के हरिद्वार कुम्भ और इलाहाबाद के माघ मेले में गौर से देखिएगा , रामनामी ओढ़े रामभक्तों को, वह क्या क्या कहते हैं. इस से न तो मंदिर बनता है और न ही अयोध्या का विकास होता है , पर वोटों का ध्रुवीकरण ज़रूर होता है और इस ध्रुवीकरण में विकास के सारे खोखले दावे , और वादे कहीं खो जाते हैं. पूरा चुनाव हिन्दू बनाम मुस्लिम पर लड़ा जाता है और इसका लाभ भाजपा मिलता रहा है. लेकिन इस सर्कस से सामाजिक सद्भाव का जो क्षय होता है उसका परिणाम वर्षों तक असर करता है.



क्या फिरकापरस्ती और राष्ट्रवाद साथ साथ चल सकते हैं ? क्या धर्म जिसका जन्म ही मानवीय गुणों के विकास के लिए हुआ था, मानवता का वह परम शत्रु नहीं हो रहा है ? अक्सर ये सवाल मेरे मन में उठते हैं. हो सकता हो यह सवाल आप के मन को भी कभी न कभी व्यथित करता होगा. आज अखबार में छपा है राम मंदिर निर्माण तैयारी शुरू हो गयी. राम भारतीय अस्मिता के प्रतीक है. और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं. अयोध्या उनकी जन्म भूमि है. सुदूर बनवास और कठिन समय में जब उन्होंने स्वर्ण नगरी लंका देखा था , तो बरबस उनके मुंह से निकल पड़ा,

" अपि स्वर्णमयी लंका, न में लक्ष्मण रोचते ,
   जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी "
( मुझे स्वर्ण से परिपूर्ण यह लंका लुभा नहीं पा रही है, जन्म देने वाली जन्म भूमि मुझे स्वर्ग से भी अधिक लगती है )

किसी को रंच मात्र भी संदेह इस विषय में नहीं है कि अयोध्या राम की जन्म भूमि है और राम परम पूजनीय है. विवाद एक इमारत को ले कर है. कहा जाता है वहां एक मंदिर था. जिसे 1528 में जो बाबर का काल था, मीर बाक़ी ने उसे तोड़ कर मस्ज़िद बना दिया. भारत के मुस्लिम काल में इल्तुमिश से ले कर औरंगज़ेब तक, बीच में कुछ काल को छोड़ कर मंदिरों को लगातार तोडा गया था और उन भग्नावशेषों पर मस्जिदें बनी हैं. यह ऐतिहासिक तथ्य है. इसे स्वीकार कीजिये.  अयोध्या भी उनमे से एक है. इस पूरे प्रकरण के सम्बन्ध में मा सुप्रीम कोर्ट में एक मुक़दमा लंबित है. और जब तक उस मुक़दमे में कोई निर्णय नहीं आ जाता तब मंदिर बनाने की बात करना केवल एक रणनीति है. यह रणनीति जब जब चुनाव नज़दीक आता है हमेशा भाजपा द्वारा अपनाई जाती रही है.
भाजपा के अध्यक्ष कहते हैं, मंदिर के निर्माण के लिए तीन चौथाई बहुमत चाहिये.
कभी कहते हैं, केंद्र और राज्य दोनों में ही एक ही दल की सरकार हो तो यह संभव है.
कभी कहते हैं. न्यायालय का फैसला आने के बाद ही कुछ संभव है.
कभी कभी यह भी जुमला उछाल दिया जाता है कि दोनों पक्षों में सहमति की कोशिश हो रही है. कुछ तय हो गया है और कुछ बाक़ी है.
कभी हिन्दू महासभा कहती है कि विश्व हिन्दू परिषद् 1300 करोड़ का चन्दा मंदिर के नाम पर डकार गयी है, उसका हिसाब दे.
कभी मंदिर के पुजारी कहते हैं कि अयोध्या के बाहरी लोग यहां दखल देना बंद कर दें, मामला हल हो जाएगा.
हाई कोर्ट ने फैसला दिया है कि उक्त भूमि के तीन हिस्से हैं. एक वक़्फ़ बोर्ड को , एक मंदिर को, और एक निर्मोही अखाड़े को. इसी की अपील लंबित है.


नाना पुराण निगमागम और मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना की तरह यह बातें दिखती है. सत्य क्या है राम ही बता पाएंगे. उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि इस राह में बाधाएं कम नहीं है. इस तथ्य से भाजपा नेतृत्व सहित सभी मंदिर समर्थक पक्ष परिचित हैं. लेकिन फिर भी भावना भड़काने की कोशिश की जा रही है तो इस षड्यंत्र को क्या कहा जाय. आप स्वयं इस का उत्तर खोजें.

अशोक सिंघल विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठतम पदाधिकारी है. उनके अनुज और भाजपा के सांसद रहे बी पी सिंघल 1983 में मेरे आई जी रहें हैं. वह आई जी जोन आगरा थे और मैं मथुरा में डी एस पी था. मुझ पर उनकी कृपा भी थी. उन्हीं के आवास पर पहली बार अशोक सिंघल को देखा था मैंने. तब वह एक अल्पज्ञात व्यक्तित्व थे.

फिर मैंने उन्हें देखा 1989 में अयोध्या में. राम मंदिर आंदोलन के सम्बन्ध में . राम जन्म भूमि पर मंदिर के शिलान्यास का निर्णय तत्कालीन केंद्र सरकार ने लिया था. मैं उस समय उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद में प्रतिनियुक्ति पर कानपुर में नियुक्त था. मेरी ड्यूटी अयोध्या में लगी थी. मैं अयोध्या में एक माह था. मेरी ड्यूटी अयोध्या के राम जन्म भूमि / बाबरी मस्ज़िद, जिसे सरकारी अभिलेखों में विवादित ढांचा ही कहा जाता था, के प्रभारी के रूप में थी. अशोक सिंघल नियमित वहाँ आते थे और दोनों सरकारो की सहमति से प्रस्तावित मंदिर का शिलान्यास किया गया. शिलान्यास के लिए जो भूमि खोदी गयी थी और जो अनुष्ठान हुआ था, उस यज्ञ में अशोक सिंघल, आचार्य गिरिराज किशोर, राजमाता विजय राजे सिंधिया, मुख्तार अब्बास नक़वी, महंत राम चंद्र दास, महंत नृत्य गोपाल दास, डॉ रामप्रसाद वेदान्ती, विनय कटियार, प्रकाश शर्मा आदि आदि थे.


तीसरी बार भी अशोक सिंघल से मुलाकात अयोध्या में ही हुयी. वह था 1990 . जब कारसेवा के लोग एकत्र हो रहे थे. यह रथयात्रा का काल था. आडवाणी रथ पर सवार थे. अयोध्या में चहल पहल भी थी, और उत्तेजना भी. पर उस साल की देवोत्थान एकादशी और कार्तिक पूर्णिमा कोई भूल नहीं पायेगा. 30 अक्टूबर और 2 नवम्बर की तारीख थी. विवादित ढाँचे को नुकसान पहुंचाने की कोशिश हुयी थी और पुलिस को गोली भी चलानी पडी थी. इस घटना को ले कर बहुत कुछ अखबारों में झूठ भी छपा था, उस पर फिर कभी पढ़ लीजियेगा.

चौथी मुलाक़ात देवरिया में मेरे एक मित्र के यहां जब वे एक पारिवारिक समारोह में आये थे तब हुयी थी. वह साल था 1994 का. वह मुलाक़ात लंबी और घरेलू थी. मैं देवरिया में अपर पुलिस अधीक्षक था.

पांचवीं और अब तक की अंतिम मुलाक़ात भी अयोध्या में हुयी थी. वर्ष 2004 में. सरकार सपा की थी. उत्तर प्रदेश में जब जब सपा की सरकार होती है तब तब राम मंदिर ज्वर अक्सर वी एच पी / आर एस एस / बी जे पी की त्रिमूर्तिं को पीड़ित करता है. यह जानते हुए भी कि यह मामला अदालत में विचाराधीन है और राम लला जहां विराजमान हैं, वहाँ तक अशोक सिंघल या कोई भी नहीं पहुँच सकता, इन्होंने वहाँ तक मार्च करने की घोषणा की. जैसा कि तय था इनकी गिरफ्तारी होनी ही थी. इन्हें भी मालूम था कि यह गिरफ्तार होंगे ही. उस समय आई जी जोन विभूति नारायण राय थे. इनकी गिरफ्तारी का दायित्व मुझे दिया गया. उस पर विस्तार से फिर कभी. पर चूहे बिल्ली की तरह कुछ देर दांव चलने के बाद अशोक सिंघल जी को गिरफ्तार किया गया. थोड़ी ज़बरदस्ती भी करनी पडी. पर सब ठीक ठाक निपट गया.



उपरोक्त घटना क्रम एक संस्मरण तो है ही. पर आप इस से यह निष्कर्ष आसानी से निकाल सकते हैं कि राम मंदिर निर्माण का मुद्दा आम जन के लिए आस्था का प्रश्न भले ही हो पर इन संगठनों के लिए वह केवल सत्ता पाने का ही एक मुद्दा है. इस दांव को सब समझ भी रहे हैं . यह बयान 2020 तक भारत हिन्दू राष्ट्र हो जाएगा, का तात्पर्य क्या है यह तो वही जानें जिनके मुखारविंद से यह सुभाषित निकला है. मेरा तो केवल यह मानना है कि यह भी एक सोची समझी और धोखा देने की रणनीति है क्यों कि इस साल बिहार के चुनाव, 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव और 2019 में लोकसभा के चुनाव होंगे. और इस दांव की समय सीमा 2020 में समाप्त.

मैं किसी मुगालते में नहीं हूँ. आप से अनुरोध है कि आप भी इन शातिर चालों को समझे.
-vss.

Friday, 17 July 2015

एक नज़्म , कोई शाद का सा क़लाम हो ,.....





कोई शाम शहर ए ख़राब में ,
कोई रात अपने हिजाब में 
कोई राज़  सवाल का ,
कोई बात अपने जवाब में ,
कोई खुशबुओं से भरी हवा ,
कोई रंग, रंग ए शवाब में ,
कोई अश्क़, आँख से मौतबर 
कोई आईना सा हिबाब में ,
कोई रोशनी, तेरी आँख में ,
कोई फूल, दिल की किताब में
कोई मस्तियों से भरी हुयी ,
कोई ओस, क़तरा ए गुलाब में ,
कोई दर्द, प्यार की सुबह का ,
कोई शाम, तेरी जनाब में 
कोई शाद, का सा क़लाम हो ,
कोई ज़िक्र, शेर ओ बाब में !!
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हिबाब       - पुरस्कार 
हिजाब       - पर्दा 
मौतबर      - गिरा हुआ  
शाद           - आनंद , खुशी। 

Thursday, 16 July 2015

व्यवस्था में रह कर व्यवस्था का विरोध, क्या यह संभव है ? - विजय शंकर सिंह


बहुत पहले एक उपन्यास पढ़ा था। किसी ख्यातनाम लेखक का नहीं । उपन्यास था न्यायमूर्ति, और लेखक थे श्री गोपाल आचार्य । उपन्यास 1975 में पढ़ा था । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की संपन्न लाइब्रेरी केंद्रीय ग्रंथागार से वह पुस्तक ली गयी थी. इस विशाल पुस्तकालय के सामने लॉन में जब गुनगुनी धूप होती थी, या थोड़ी दूर स्थित विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में संगमरमर की बनी धवल चौकियों पर, बैठ कर उपन्यास पढ़ने का अलग ही आनंद था. उस उपन्यास की कथा इस प्रकार है. एक व्यक्ति किसी झूठे मुक़दमे में फंस जाता है.गरीब और निरीह व्यक्ति के खिलाफ सारे सुबूत थे । जज की कुर्सी पर जो सज्जन बैठे थे, वह जानते थे कि यह व्यक्ति निर्दोष है. सुबूत उसके पक्ष में नहीं है.उस बेचारे के पास कोई ढंग का वकील भी नहीं था. सरकार ने उसे जो वकील दिया था वह रूचि भी नहीं लेता था. जज साहब की पूरी हमदर्दी उसके साथ थी. पर जो न्यायिक प्रक्रिया थी उसके कारण जब गवाह उस निरीह व्यक्ति के विरुद्ध न किए ज़ुर्म को साबित करते चले गए,तो जज को लगा कि न्याय की इस पीठिका पर आसीन हो कर भी वह न्याय नहीं कर पाएंगे. मुक़दमा चलता रहा. पर गवाहों से जिरह करने के लिए जो वकील उस गरीब को मिला था , वह कभी आता था और कभी आता भी था तो जिरह में कुछ ढंग की चीज़ पूछता भी नहीं था. परिणाम स्वरुप वह निरीह व्यक्ति अपने मुक़दमे से निराश हो गया.
अचानक एक दिन लंबी तारीख के बाद जब वह व्यक्ति कचहरी आया तो जज साहब का तबादला हो चुका था. वहा पीठ पर कोई अन्य सज्जन विराजमान थे. पहले वाले जज से तो इस बेचारे को उम्मीद भी थी थोड़ी बहुत. पर इस नए जज से तो वह अभी कोई आशा भी नहीं कर सकता था. मुक़दमे की कार्यवाही शुरू हुयी. जज ने उस आदमी से अपना वकील लाने और जिरह करने के लिए पूछा. उसका वकील नदारद था. तभी से पीछे से आवाज़ आयी, मैं इस का वकील हूँ , और जिरह मैं करूँगा. अदालत चकित. अहलमद सहित अदालत के कर्मचारी चकित. मुवक़्क़ील चकित और विरोधी वकील भी चकित. जिस वकील ने कहा था कि जिरह मैं करूँगा, वह वही वकील थे जो पिछली तारीख पर इसी अदालत के जज थे. उन्होंने जजशिप से इस्तीफ़ा दे दिया था और न्याय और सत्य के लिए इस गरीब मुवक़्क़ील की वकालत करने का फैसला किया.

उपन्यास एक सवाल छोड़ गया है क्या व्ययस्था में रह कर व्यवस्था का विरोध संभव है ? यही सवाल आज एक नए रूप में सामने आया है. अमिताभ ठाकुर द्वारा सेवा में रहते हुए सरकारी नीतियों की आलोचना करना और जन हित याचिकाएं दायर करना. कुल 23 जनहित याचिकाएं अमिताभ और नूतन द्वारा दायर की गयी है. संभवतः न्यायालय ने ऐसा निर्देश भी दिया है बिना सरकार की अनुमति के याचिकाएं दायर नहीं की जाय. वह एक एक्टिविस्ट हैं. एक्टिविज्म एक नया शब्द है जो समाज कार्य में लीन और व्यवस्था परिवर्तन की अलख जगाये लोग, अपने अभियान को कहते है. सरकार और व्ययस्था की जड़ हो चुकी बुराइयों के विरुद्ध अलख जगाना और विभाग में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का साहस करना एक सराहनीय कार्य है. पर यह कार्य पुलिस जैसे अनुशासित विभाग में रह कर किया जाना चाहिए या नहीं, और अगर किया जाना चाहिए तो उसका स्वरुप क्या हो ? और विभाग तथा विशेषकर अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा.? आदि आदि बहुत सी शंकाएं इस प्रकरण के बाद उठने लगीं है. जिस पर विचार करना आवश्यक है. ऐसा नहीं है नेताओं से टकराने का यह पहला प्रकरण हो, और प्रताड़ित होने का भी यह पहला उदाहरण हो. आई ए एस संवर्ग में भी विजय शंकर पांडे जैसे कुछ लोग राजनीतिक प्रताड़ना के शिकार रहे है. आई पी एस में भी जसवीर सिंह जैसे कुछ अधिकारी हैं जो प्रताड़ित हुए हैं और लगातार तबादला भी झेलते रहे हैं. पी पी एस अधिकारी शैलेन्द्र ने तो ऊब कर नौकरी से त्यागपत्र ही दे दिया था. वह त्यागपत्र भी इस लिए कि उन्होंने मुख्तार अंसारी के खिलाफ कार्यवाही करने की सोची तो उसका तबादला कर दिया गया. सरकार को एक कर्तव्य निष्ठ अफसर नहीं चाहिए, उसे मुख्तार अंसारी जैसे माफिया का साथ चाहिए. ऐसा नहीं है कि ऐसे उदाहरण केवल बड़े संवर्ग में ही हों. पर निरीक्षकों और उप निरीक्षक जो थाना प्रभारी के रूप में अक्सर राजनैतिक दबाव से सबसे पहले रू ब रू होते हैं, और पहला ही हरावल दस्ते की तरह इन्हें झेलते हैं  वह तो अक्सर प्रताड़ित होते रहते हैं  , पर न तो कोई खबर बनती है, और न ही सोशल मीडिया ही इन्हें उठाता है. यह वह दर्द है जो कहीं कहा भी नहीं जा सकता, क्यों अनुशासन इस विभाग की जान है और कभी कभी विडम्बना भी.

अब पहले जैसी स्थिति पुलिस विभाग में नहीं है। कॉन्स्टेबल्स से लेकर आई पी एस तक अपने अधिकार के लिए सजग लोगों की एक खामोश पर लम्बी चौड़ी जमात है। सोशल मिडिया ने अपनी बात , कहने का ऐसा मंच उपलब्ध करा दिया है , जिस पर पुलिस के लोग थोड़ा थोड़ा ही सही अपनी बात शेयर कर रहे हैं। इसी विभाग में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जब कि अतीत में पुलिस अधीक्षक और थानाध्यक्ष में बोल चाल नहीं रही पर थानाध्यक्ष तब भी अपनी काबिलियत के भरोसे बने रहे। और न उनका रिमार्क खराब हुआ और न ही पुलिस अधीक्षक ने इसे व्यक्तिगत रूप से लिया।  ऐसे आई पी एस और आई ए एस अफसर भी हुए हैं जिन्होंने मुख्य मंत्री को भी गलत सिफारिश पर उन्हें समझा बुझा दिया और पद पर भी बने रहे। डिजिटल युग का यह प्रतीकात्मक दर्शन भी शायद है कि हम सब अपने अपने खोल में गुम हैं और स्वार्थ की चादर ओढ़े , जी रहे हैं। अमिताभ ठाकुर जैसी बात आगे नहीं होगी यह कहा नहीं जा सकता है , क्यों कि स्थिति बिगड़ेगी तो प्रतिक्रिया भी होगी।

सिर्फ अनुशासन और नियमावली के धाराओं और उपधाराओं से यह रोका  नहीं जा सकता है। मैं खुद जब अपने सेवा काल के शुरुआती दौर 1979 / 80 और अंतिम दौर 2012 /13 की तुलना करता हूँ तो न केवल अनुशासन का क्षरण ही पाता हूँ , बल्कि  पाता हूँ जो एक बृहत्तर पुलिस परिवार का भाव था वह धीरे धीरे लुप्त हो रहा है। आपसी विश्वास और भरोसे के संकट से ग्रस्त यह मानसिकता विभाग के लिए दुखद और दुर्भाग्य पूर्ण है। विभाग अनुशासित तो रहे ही पर यह  भी आवश्यक है कि हर आक्रोश और असंतोष को सूना जाय और अगर वह जायज है तो उसका निदान किया जाय। किसी भी प्रकार के प्रतिशोध के स्थिति विभाग का ही अहित करेगी। इन सब के लिए बड़े अधिकारियों को आगे ही नहीं बल्कि पूर्वाग्रह मुक्त नेतृत्व ग्रहण करना होगा। राजनीतिक समाज कभी नहीं चाहेगा कि यह वृहत्तर परिवार बना रहे। विभाग की एकता और अनुशासन से वह जानता है कि  उसका हिट नहीं सधेगा। पुलिस अन्य विभागों के सामान ट्रेड यूनियन जैसी कोई संस्था नहीं है और न होनी चाहिए अतः ऐसी हालत में विभाग के वरिष्ठों को संरक्षक के के रूप में ही सक्रिय होना होगा।

Tuesday, 14 July 2015

राजनीति से निलंबन और निलंबन की राजनीति / विजय शंकर सिंह




अमिताभ ठाकुर का निलंबन अप्रत्याशित नहीं था. मुलायम सिंह के विरुद्ध कायम कराया गया मुक़दमा तो तात्कालिक कारण है. पर इस निलंबन की भूमिका तो पहले से ही बन रही थी. अब निलंबन हो गया, बलात्कार का मुक़दमा भी कायम हो गया, अब आगे क्या होगा यह देखना है. सोशल मिडिया में अमिताभ को पर्याप्त समर्थन मिल रहा है. पर यह समर्थन कितना दबाव डाल पायेगा, यह भी देखना है. सरकारी दंड नियमावली में निलंबन कोई दंड नहीं माना जाता है. यह केवल एक स्थिति है. जिसमे आधी तनख्वाह मिलती है और कोई दायित्व भी नहीं रहता है. जिन आरोपों के लिए सरकार निलम्बित करती है  , उन आरोपों की जांच के बाद अगर अधिकारी दोषमुक्त होता है वह पुनः बहाल हो जाता है , अन्यथा वह दण्डित होता है और तब बहाल होता है. पुलिस में निलंबन का दंश आई पी एस और पी पी एस अधिकारियों पर कम ही चुभा है, पर निरीक्षकों और उपनिरीक्षकों का निलंबन बहुत हुआ है और होता भी रहता है. अधिकतर निलम्बन बहुत ही सामान्य गलतियों के कारण और कभी कभी तो बिना गलतियों के ही निलंबन हो जाता है.

ब्रिटिश राज की अनेक विरासतों में से अखिल भारतीय सेवाएं भी एक है. आई एस, आई पी एस और आई एफ एस (वन सेवा ) ये तीन अखिल भारतीय सेवाएं हैं. इनको मूलतः राज्यों में बांटा जाता है. अपने अपने राज्यों से ही केंद्र सरकार इन्हें कुछ नियमों के अंतर्गत जिसे प्रतिनियुक्ति कहते हैं अपनी सेवाओं में लेती हैं. आई एस, ब्रिटिश काल के आई सी एस,( इंडियन सिविल सर्विस ) और आई पी एस, आई पी ( इम्पीरियल पुलिस ) का नया अवतार है. आई सी एस, की परीक्षा, और न्यूनतम योग्यता, आई पी से अलग और उच्च होती थी. पहले इसमें केवल अँगरेज़ ही बैठते थे और चुने जाते थे. सबसे पहले भारतीय सत्येन्द्र नाथ टैगोर, जो गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के बड़े भाई थे, जो आई सी एस के लिए चुने गए थे. महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी और दार्शनिक अरविंदो घोष, और नेता जी  सुभाष बाबू भी आई सी एस की परीक्षा में सफल हुए थे. अरविंदो , परीक्षा में तो सफल हुए थे, पर घुड़सवारी की परीक्षा में फेल हो गए थे. जब कि सुभाष बाबू ने चयन होने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था. आई पी की तुलना में आई सी इस एक एलीट सेवा मानी जाती थी. बाद में जब देश आज़ाद हुआ तो, संविधान सभा में ब्रिटिश राज की यह विरासत बनाये रखी जाय या नहीं पर बहुत बहस हुयी। बहुत से सदस्य इन सेवाओं को औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त मानते हुए समाप्त किये जाने के पक्ष थे ,. तब सरदार पटेल ने इन सेवाओं को देश की राष्ट्रीय एकता का आधार बताते हुए इन्हें जारी रखने का तर्क दिया था। तब संविधान सभा में इसे बनाये रखने का  निर्णय लिया गया. तब से यह अखिल भारतीय सेवाएं ( AIS ) के रूप में आई एस, आई पी एस, और आई एफ एस, के नए कलेवर के साथ गठित हुईं.

इन सेवाओं की अलग नियमावली है.  भारत सरकार का गृह विभाग, आई पी एस, का, डी पी टी,  आई एस का और वन और पर्यावरण मंत्रालय , वन सेवा का कार्य  देखता हैनिलंबन की भी नियमावली है. उन्ही नियमावली के तहत इन सेवाओं  अधिकारियों का निलंबन होता है।  ब्रिटिश राज में आई सी एस और आई पी के अधिकारी निलंबित नहीं होते थे. अधिक से अधिक उनका या तो स्थानान्तरण होता था , अथवा वे वापस इंग्लॅण्ड भेज दिए जाते थे . आज़ादी के बाद, निलंबन के लिए जो नियम बने, उसमे राज्य सरकारों को इन अधिकारियों के निलंबन का अधिकार नहीं दिया गया था. 1967 में जब इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री बनीं तो राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया गया कि वह अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को तीन महीने के लिए केंद्र से अनुमोदन के बाद निलंबित कर सकती हैं पर  1977 में जब मोरार जी देसाई प्रधान मंत्री बने तो, अनुमोदन के स्थान पर सूचित करने की शर्त का उल्लेख कर दिया गया . इन सेवाओं के अधिकारियों का निलंबन कम होता था या बिलकुल ही नहीं होता था, इस लिए इस बारे में कोई सोचता भी नहीं था.

उत्तर प्रदेश में सबसे आई पी एस का पहला निलंबन 1970 के आस पास मथुरा के पुलिस अधीक्षक का हुआ था. वह किसी आपराधिक मामले में संलिप्त पाये गए थे. निलंबन की प्रथा 1993 के बाद शुरू हुयी. जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनी तो उन्होंने पहली बार निलंबन के चाबुक से यह सेवाएं प्रभावित हुयी. अत्यंत छोटे छोटे मामलों में भी इन अधिकारियों के निलंबन हुए. इसी काल में जाति आधारित अधिकारियों का ध्रुवीकरण भी हुआ और सपा बसपा की प्रतिद्वंद्विता से ओबीसी में यादव और दलित वर्ग में मायावती के सजातीय एक दूसरे के परंपरागत शत्रु मान लिए गए. इसका सबसे बड़ा खामियाज़ा, इन जातियों के उन निष्ठावान अधिकारियों को भुगतना पड़ा, जो प्रोफेशनली सक्षम थे और किसी से भी जुड़े नहीं थे. तब ऐसे ऐसे अधिकारियों का निलंबन हुआ जो सच में निष्ठावान और क़ाबिल थे. कुछ नाम भी ले दूं. अभय शंकर, एस एस पी इटावा, अरुण कुमार एस एस पी ग़ाज़ियाबाद, आदि के निलंबन महज़ ज़िद या किसी खुन्नस के कारण हुए थे जब कि यह दोनों ही अधिकारी अच्छे  और कर्मठ माने जाते थे. अब अमिताभ ठाकुर का जो निलम्बन हुआ है  उसके कारण चाहे जो सरकार बताये, पर उनकी सारी कमियों का मुलायम सिंह के सुधरने की सलाह के बाद ही याद आना संदेहास्पद और हास्यास्पद दोनों ही है.

इस प्रकरण के साथ साथ एक और प्रकरण घटा है जो निलंबन तो नहीं बल्कि एक युवा और नए आई पी एस अफसर का अपराधी को गिरफ्तार करने पर हुआ स्थानांतरण है. वैभव कृष्ण, ग़ाज़ीपुर के पुलिस अधीक्षक थे. उन्होंने हत्या के एक मामले में सपा के एक प्रभावशाली नेता को गिरफ्तार करा लिया. वैभव उसी दिन स्थानांतरित हो गए, जिस दिन उन्होंने इस अपराधी को गिरफ्तार किया था. यह भी एक विडम्बना है कि वैभव के काम से ग़ाज़ीपुर की जनता तो खुश थी पर स्थानीय मंत्री अप्रसन्न थे. अमरनाथ यादव जो हत्यारोपी है, की गिरफ्तारी से मंत्री अप्रसन्न थे. वह नहीं चाहते थे कि इस मामले में इसकी गिरफ्तारी हो. ग़ाज़ीपुर की जनता इस तबादले से आक्रोशित है. एक कटु सत्य यह भी है कि, कर्तव्य निष्ठ, और प्रोफेशनली सक्षम अधिकारी चाहे किसी भी सेवा के हों या किसी भी जाति के हों , पोलिटिकल क्लास को जब वे सत्ता में होते हैं तो पसंद नहीं आते हैं. वह रास्ते का अवरोध ही समझे जाते हैं. जनता उन्हें चाहती है पर जनता की सुनता कौन है, सिवाय चुनावों के !

समाजवादी पार्टी का समाजवाद क्या है, मुझे नहीं मालूम, पर वह समाजवाद  , डॉ लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, और जय प्रकाश नारायण का समाजवाद तो नहीं ही है. लगे हाँथ गोरख पाण्डेय की यह प्रसिद्ध कविता भी पढ़ लें. आप को पसंद आएगी. गोरख एक प्रखर और प्रतिभावान प्रगतिशील कवि और युवा नेता थे. बिहार के रहने वाले थे. उनकी मृत्यु 1989 में हुयी थी  असामयिक और अस्वाभाविक थी.

समाजवाद

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

( गोरख पाण्डेय, रचनाकाल : 1978 )