अब सोच आलोकित हो ,...
हम अक्सर दूसरे धर्मों की इस आधार पर आलोचना करते हैं कि , उन में महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया गया है . लेकिन जब हिन्दुत्व के स्वयंभू झंडा बरदार आर एस एस प्रमुख , विश्व हिन्दू परिषद् के अशोक सिंघल , बी जे पी के एक मंत्री , का बयान पढ़ा तो लगा कि धर्म और दर्शन एक तरफ है , और पुरुषवादी सोच दूसरी तरफ . मुझे डा . लोहिया का यह वाक्य याद आ जाता है कि , महिलाओं और
दलितों में , उन के बारे में , समाज के एक बड़े वर्ग की सोच में , कोई अंतर नहीं है . इसे मैं विडम्बना कहूं , या उन का अल्प ज्ञान , कि सीता हरण का दोष हम सीता को देते हैं , रावण को नहीं , क्यूँ कि लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन सीता ने किया था . रावण तो प्रकांड विद्वान् था ,वह गलती कैसे कर सकता था और उस का छल हमने भुला दिया . अग्नि परिक्षा , सीता को अपनी 'पवित्रता 'साबित करने के लिए देनी पडी , क्यूँ कि वह एक बंदिनी की तरह रावण के अशोक वन में रही है . प्रजा के आक्षेप का भी खामियाजा सीता को ही भुगतना पडा , निर्वासन का दंश उसे ही झेलना पडा . क्या मर्यादा थी ! . और इसी लिए बलात्कार के मामले में पीडिता का कोई दोष न होते हुए भी , हमारी पुरुषवादी सोच में , अक्सर यही सवाल उभर कर आते हैं कि , रात में उधर जाने की ज़रुरत क्या थी , और इन कपड़ों में बाहर जाने की ज़रुरत क्या थी . लड़कों को कोई यह नहीं समझाता कि , इस तरह से आवारागर्दी की ज़रुरत क्या थी . क्यूँ कि अवचेतन में कहीं न कहीं यही सोच हावी रहती है , कि लड़के तो ऐसा करते रहते हैं .
बलात्कार हो या जितने भी अपराध महिलाओं के प्रति होते हैं , वह इसी सोच का परिणाम है , और जब तक सोच नहीं बदलती , तब तक इस तरह के अपराध होते रहेंगे। लोग फांसी पर भी लटकाए जाते रहेंगे और अपराध भी होते रहेंगे . क्या आजीवन कारावास , और फांसी की सज़ा के बावजूद हत्या के अपराधों में कमी आयी है ? बिलकुल नहीं . अपराध करना आदिम प्रवित्ति है , और यह मानव इतिहास के प्रारम्भ से है और जब तक समाज रहेगा , रहेगी . लेकिन इस का अर्थ यह नहीं कि , हम इस अपराध या अन्य अपराधों को एक नियति मान कर स्वीकार कर लें . फांसी की सज़ा का प्रावधान किया जाय और ऐसे मामलों का निस्तारण भी दिन प्रतिदिन की सुनवाई पर हो . दामिनी काण्ड में तो यह होगा ही . आखिर जलने वाली असंख्य मोम बत्तियों ने क़ानून लागू करने वालों के दिल और दिमाग को कुछ न कुछ रोशन अवश्य किया होगा .
हैरानी यह भी है कि , इस आक्रोश आन्दोलन से सभी राजनैतिक दल खिंचे खिंचे रहे . किसी भी दल के नेता सड़कों पर नहीं आये . वह भी नहीं जो संस्कृति के ध्वजा वाहक , खुद को समझ लेते हैं . उन्हें या किसी को भी इतनी उम्मीद नहीं थी की यह आन्दोलन इतना व्यापक होगा कि दुनिया के बहुत से देश इस आन्दोलन का स्वतः संज्ञान लेंगे .अब जब मुकदमा शुरू हो गया है तो राजनेता उल्टी बयान बाजी पर आ गए हैं , जब तक हम अपनी सोच , अपने विचार , में परिवर्तन नहीं लायेंगे , इस प्रकार के अपराध नहीं थामेंगे . आंकड़े इस की पुष्टि करते हैं . ऐसा नहीं है कि केवल उपरोक्त महानुभावों की ही सोच पुरुषवादी है , बल्कि पुलिस सेवा में भी जब इस प्रकार की किसी घटना पर थानों से पूछताछ होती थी तो , वहाँ से अपराध के बारे में बताये जाने पर , अपराध की गंभीरता कम हो , यह भी कह दिया जाता था कि , लडकी बद चलन दिखती है , या इस लड़के के साथ पहले भी देखी गयी है . जैसे कि , अगर बद चलन लडकी है तो उस के साथ बलात्कार जायज है . यह सोच मैंने अपने थानों में मह्सूस किया है , और अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ . लडकिया चाहे जो कपडे पहनें , उन्हें भी मनचाहा वस्त्र पहनने का उतना ही अधिकार है , जितना लड़कों को . ज़रुरत महिलाओं के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलने का है .
हम ने या तो उन की पूजा की , देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया , या पत्थर मारे . उन्हें एक मानवीय चेहरा नहीं समझा . इंसान नहीं माना . यह एक विडंबना है . आज जब श्री मोहन भागवत कहते हैं , कि उनका काम खाना पकाना है , और बदले में पुरुष उनकी सुरक्षा रखेगा तो , उन के इस तर्क पर हंसी आती है . यह सोच हिन्दू दर्शन के सब से विकृत सोच को दर्शाता है . मुझे पता है इस के जवाब में एक पुराना श्लोक पढ़ा जाएगा , ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते , रमन्ते तत्र देवता '' लेकिन सोच और मानसिकता इस के विपरीत है . जंतर मंतर , और इंडिया गेट पर अब बहुत मोम बत्तियां जल चुकी , अब हमारा मन ,मस्तिश्क, मानसिकता , और सोच बदलना चाहिए . सूरज तो रोशनी बिखेर रहा है , पर वह प्रकाश हम आत्म सात कर सकें तभी बात बनेगी .
मैं श्री मोहन भागवत , श्री अशोक सिंघल , श्री विजयवर्गीय , और श्री अभिजीत मुख़र्जी के सोच , मानसिकता और बयानों की निंदा करता हूँ ...उन से अनुरोध भी करता हूँ की भारतीय धर्म दर्शन और वांग्मय का अध्ययन पुनः करें ...
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