Wednesday 2 January 2013

A Poem....उस अंधेरी रात




A Poem....
इतना बड़ा स्वयं स्फूर्त आन्दोलन और पेशेवर नेताओं का शर्मनाक घरघुस्सूपन हैरान कर देने वाला है . चाहे सत्ता हो या विपक्ष , दोनों ही इस अवसर पर गायब मिले . अगर यही आन्दोलन आरक्षण के विरोध या समर्थन में होता तो सुनते आप इनकी  लन्तरानिया . लेकिन यह एक खामोश सैलाब था , जो सिर्फ आंसुओ और आक्रोश से भरा था . नेताओं ने सोचा होगा कि नेत्रित्व विहीन यह आन्दोलन धराशायी हो जाएगा शनैः शनैः . पर ऐसा नहीं हुआ . अब निकले हैं मोमबत्तियां लेकर , अपना दुःख प्रदर्शित करने या खिसक रही ज़मीन प्राप्त करने ,इस का मुझे पता नहीं . यह उस लोकतंत्र का लोकतंत्रीकरण है जो दलों और परिवारों के दायरे में सिमट कर रह गया है . मुझे इस शातुर्नुर्गीपने पर तरस आती है और मैंने इस पर एक कविता लिखी है . अनुरोध है इसे पढ़ें और पसंद आये तो शेयर भी करें ...मैं इसे अपने ब्लॉग में भी शेयर कर रहा हूँ ....

उस अंधेरी रात

उस अंधेरी रात
जब कुहरा घना और उड़ रहा था ,
पानी जमने लगा था,
तब गरम खून लिए, नौजवान
हांथों में थामे मशाल
कंधे से कंधा मिलाये ,
गिरा कर दीवारें  जाति , वर्ग ,लिंग , धर्म  की,
बढ़ रहे  थे  राजप्रासाद की ओर ,
तो पेशेवर जन सेवक
अपनी अपनी मांद में नकली गर्माहट लिए
दुबके पड़े थे .

जो आये थे तुम्हारे दरवाजे ,
कभी ,
दिखाने बाजीगरी,
चमकती  महंगी गाड़ियों से ,
लक दक कपडे पहने ,
ग्लिस्रीनी आंसू लिए आँखों में
तुम्हारा हाँथ मांगने .

याद रखना ,
पुकारोगे इन्हें जब भी तुम ,
दुबक जायेंगे ये फिर ,
अपने ख्वाबगाह में ,
घातक सरीसृपों की तरह ,
और
बदल दिया है इन्होने ,
लोक तंत्र और जन सेवा को ,
बाज़ार वाद के इस घातक जमाने में ,
मॉल और बाज़ार में,

चुनाव मंडी  और हम महज सामान ,
बन कर रह गए हैं .
जो चुनाव के सेल में थोक में बिक जाते है अक्सर .

थपथपाहट दरवाज़े पर तेज़ हो  रही है ,
अन्धेरा और कुहरा ,असह्य हो गया है अब
मशालें तेज़ और , रौशन हो रही हैं ,
और रहनुमा , और वादे उन के
गुम हैं , न जाने, किन सपनों  में ,
कुछ टुकड़े धूप  के भेजो ,
कुहरा आज बहुत घना है .....
-vss


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