Monday 31 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (19)

‘ढाई सौ शब्दों में 1857 के कारणों की समीक्षा करें’। मुझे यह प्रश्न मिला, और अब तक दस हज़ार से अधिक शब्द लिखने के बाद भी मेरे पाँव फूल गए। इसका स्पष्ट उत्तर तो इतिहास के विद्यार्थी ही दे सकते हैं। अपनी रुचि से कुछ प्रत्युत्तर रखता हूँ। 

किताबी उत्तरों में शुरुआत होती है लॉर्ड डलहौज़ी के हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) से। मगर यह तो भारत की कुल रियासतों के दो प्रतिशत से कम पर ही लागू हुआ था। उसमें भी सतारा जैसी रियासत तो बनायी ही अंग्रेजों की थी। छह सौ से अधिक रियासत तो हड़पे ही नहीं गए थे, और वे 1857 में भी ब्रिटिश प्रश्रय पा रहे थे। आगे यह भी स्पष्ट होगा कि उनमें कई ब्रिटिश के सहायक थे, कुछ तटस्थ थे, और कुछ ‘डबल गेम’ खेल रहे थे। 

जहाँ तक अवध की बात है, वह इस पद्धति से नहीं हड़पी गयी थी; बल्कि प्रशासनिक कमियों की वजह से और नवाब वाज़िद अली शाह की मौखिक सहमति से संभव हुई थी। स्वयं नवाब अंग्रेजों के मुख्यालय फ़ोर्ट विलियम के निकट मटियाबुर्ज में ही थे, और बंदूक लेकर आक्रमण करने या प्रत्यक्ष विद्रोह करने आए भी नहीं। उनके वज़ीर या अन्य सहयोगी पीठ पीछे क्या कर रहे थे, इससे बात नहीं बनती।

दूसरा उत्तर मिलता है कि किसान अपने बढ़ते शोषण से भड़के हुए थे, और यह एक किसान विद्रोह (peasant revolt) था। वाकई? 

यह तर्क कुछ ऐसा ही है कि अवध का किसान विद्रोह (1920-22) असहयोग आंदोलन से जुड़ा हुआ था। जबकि दोनों कई मामलों में एक दूसरे के विपरीत थे। 

किसानों और आदिवासियों के आंदोलन 1857 से पहले ही होते रहे थे, और वे न सिर्फ़ ब्रिटिश ‘साहबों’ बल्कि भारतीय जमींदारों और महाजनों के ख़िलाफ़ भी थे। चाहे वह संथाल आंदोलन हो, मोपला हो, भील विद्रोह हो, उड़ीसा का पैका विद्रोह हो, या उत्तर-पूर्व के तमाम विद्रोह हो। वे अपनी ज़मीन, अपने जंगल में हस्तक्षेप के कारण लड़ रहे थे। 

यह कहा जा सकता है कि जब 1857 के घटनाक्रम उभरने शुरू हुए तो किसानों को इस आधार पर जागृत किया गया कि नए ब्रिटिश सामंतों से बेहतर उनके पुराने भारतीय सामंत थे। लेकिन, ऐसे तर्क कम मिलते हैं कि वाकई किसी भू-सुधार या किसानों के बेहतर आर्थिक स्थिति का कोई पक्का ‘रोड-मैप’ बनाया गया। कार्ल मार्क्स ने जब 1857 पर लिखना शुरू किया, तो उन्होंने इसे सर्वहारा क्रांति का मॉडल बताना शुरू किया, मगर वह उनकी अपनी विचारधारा से मेल खाता था। अगर वह भारत आते तो शायद देख पाते कि इसका नेतृत्व सर्वहारा कर रहे थे या राजा-रजवाड़े, जमींदार और कुलीन वर्ग।

तीसरा उत्तर, जो संभवत: पहला उत्तर होना चाहिए, वह है सांस्कृतिक बदलाव की धमक। आज के नेता कहते कि ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ या भारत की मूलभूत सोच को बदला जाने लगा। भारतीय धार्मिक ढाँचे, जीवन शैली, और विविधता को ब्रिटिश राज के क़ानूनों और उनकी ‘सोच’ से बदला जाने लगा। ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश राज की तरफ़ प्रशासन का रुख करना, धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप देना, मकाले शिक्षा-पद्धति का आग़ाज़, मिशनरियों की बढ़ती गतिविधियाँ, आधुनिकीकरण से घरेलू उद्योग और नौकरियों का घटने की आहट। ये सभी मिल कर असहजता और शंकाओं को जन्म दे रहे थे।

चौथा उत्तर जिसे ‘ट्रिगर’ कहा जाता है, वह है सिपाहियों में कारतूस को लेकर शंका और उस शंका को एक सुनियोजित विद्रोह में तब्दील करना। इस उत्तर में पहले तीनों उत्तरों को समाहित किया जा सकता है। इसकी वजह सांस्कृतिक (धार्मिक) थी, इसकी योजना बनाने वाले और शह देने वाले हड़प नीति से सताए जमींदार थे; इस विद्रोह से किसानों का जुड़ना आसान था क्योंकि ये सिपाही कहीं न कहीं उनकी पृष्ठभूमि का नेतृत्व करते थे।

हम इन बिंदुओं पर पुन: अंत में लौटेंगे। फ़िलहाल मैं 4 अप्रिल, 1857 को एक सिपाही कैदी के कोर्ट-मार्शल में पूछे गए प्रश्न आपके समक्ष रखता हूँ।

“क्या तुम्हें कोई खुलासा करना या कुछ कहना है?”

“नहीं”

“जो तुमने बीते रविवार किया, वह अपनी मर्ज़ी से किया या किसी के आदेश पर?”

“अपनी इच्छा से। मुझे अपनी मृत्यु की आशा थी।”

“तुमने अपनी बंदूक खुद को बचाने के लिए लोड की थी?”

“नहीं। जान लेने के लिए।”

“क्या तुमने एजुटेंट (adjutant) की जान लेने के लिए गोली चलायी, या कोई और निशाना था?”

“जो भी सामने आता, उसे मार देता।”

“क्या तुमने कोई नशा किया था?”

“मैं नशा नहीं करता था। पिछले कुछ दिनों से भांग और अफ़ीम लेने लगा था। उस वक्त मैंने क्या किया था, मुझे मालूम नहीं।”

सिपाही को कई बार पूछा गया कि वह किसी का नाम लेना चाहेंगे, उन्होंने नहीं लिया। एकांत में ले जाने के बाद भी नहीं लिया। 

मूल दस्तावेज में सिपाही का नाम दर्ज़ है- Sepoy Mungul Pandy, 34th regiment, Native infantry’
(प्रथम शृंखला समाप्त)
क्रमशः... 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (18) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-18.html 

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