Sunday 30 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (18)

“अगर आप लोगों को निचली जाति से सिपाही लाने हैं, तो आप लोग ही डोम और हलालखोरों (halalkhors) के रेजिमेंट में काम करें”

- मेजर जनरल रिचर्ड बिर्च

इस मुद्दे को मैं टाल रहा था, क्योंकि मेरा लेखन अक्सर सार्वजनिक होता है, जिसे संपूर्णता से कम लोग पढ़ते हैं। यह बातें किताबों में लिखनी अधिक सहज है। पुस्तक पाठक-वर्ग में ‘अटेंशन डेफिसिट’ भी कम होता है, और वहाँ फुटनोट आदि लगा कर बात समझाना आसान है। लेकिन, यह मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि इसके बिना बात आगे नहीं बढ़ सकती।

मैं ब्रिटिश सेना में जाति की बात करने जा रहा हूँ, जिससे 1857 का, और उसके बाद के नज़रिए का सीधा संबंध है। 

भारत में पारंपरिक रूप से क्षत्रिय, डोगरा, पठान, अफ़गानी, गोरखा, वन्नियार, बलूची आदि योद्धा वर्ग थे। ब्राह्मणों, वैश्य और शूद्र जातियों से मुगलों की सेना में भी सत्रहवीं सदी तक कम लोग थे। अगर थे भी तो उनकी भूमिका उनके वर्ण के हिसाब से यथोचित रखी गयी थी, या कुछ अपवाद थे। कभी-कभी बड़े युद्ध के समय सभी वर्णों से लोग लाए जाते, जो युद्ध के बाद पुन: अपने वर्ण के कार्य में लग जाते।

मराठा सेना में, ख़ास कर छत्रपति शिवाजी के समय ग़ैर-क्षत्रियों और ब्राह्मणों को सेना में शामिल किया जाने लगा। ‘मराठा’ वर्ग का जन्म भी कुन्बी, लोहार, गवली, कोली, धांगड़, ठाकर, सुतार आदि जातियाँ मिला कर हुआ। हालाँकि आज के कई मराठा स्वयं को क्षत्रिय कुल से भी जोड़ते हैं, लेकिन यह कयास हैं कि एक बड़ा योद्धा वर्ग खेतिहरों, और कामकाजी (बढ़ई, लुहार आदि) वर्ग से बना। 

पुरबिया ब्राह्मणों को ब्रिटिशों ने भारी संख्या में भर्ती किया। इसके कई तर्क दिखते हैं, जिसमें नस्लीय तर्क को नहीं नकारा जा सकता। खुल कर बात कही जाए, तो ब्राह्मणों का रंग, उनकी ऊँची सामाजिक स्थिति, और उनका पढ़ा-लिखा होना, ब्रिटिश अफसरों को पसंद आता था। हालाँकि उन्होंने हट्टे-कट्टे आदिवासी समूहों जैसे धांगड़, भील, संथाल के अतिरिक्त अहीर, कोली, मोपला आदि भी भर्ती किए। महाराष्ट्र के दलित ‘महार’ समुदाय जिससे अम्बेडकर आते हैं, उन्हें एक योद्धा वर्ग बनाने में ब्रिटिशों का योगदान है। लेकिन, ब्रिटिशों ने पहली बार एक बाक़ायदा ‘ब्राह्मण रेजिमेंट’ बनाया जिसमें अधिकांश पुरबिया ब्राह्मण और कुछ ऊँचे वर्ग के मुसलमान रखे गए। आंग्ल-मराठा युद्ध और आंग्ल-सिख युद्ध में ठीक-ठाक ब्राह्मण संख्या वाली बंगाल रेजिमेंट ने अपने अनुशासन से जीत भी दिलायी, जिसके बाद उनकी भर्ती बढ़ गयी। 1857 तक कुछ टुकड़ियों में चालीस प्रतिशत तक ब्राह्मण थे! 

प्रश्न यह है कि कर्मकांडी और छूआ-छूत मानने वाले ब्राह्मण भला ऐसे कार्य में क्यों आए? जब उनके पूर्वजों में किसी ने तलवार नहीं उठायी, तो उन्होंने कैसे पकड़ ली? एक कारण तो खैर उनकी घटती धार्मिक सत्ता और बढ़ती आर्थिक दुर्बलता हो सकती है। दूसरी वजह शायद यह थी कि वहाँ ब्राह्मणों और ऊँची जातियों के वर्चस्व में वे अपना लोटा माँज कर, ब्राह्मणों का या अपना बनाया खाकर जनेऊ बचा लेते थे। जैसा ब्राह्मण-खलासी संवाद हमने पहले पढ़ा, वह एक उदाहरण है कि वे फौज में भी छूआछूत मानते थे। 

मेजर जनरल बिर्च लिखते हैं, “मैंने अपनी आँखों से एक दिन देखा कि परेड के बाद एक निचली जाति का सिपाही एक ब्राह्मण सिपाही के समक्ष जमीन पर लेट कर दंडवत हो गया”

जातियों के प्रति ब्रिटिशों का रवैया बंगाल आर्मी ऐक्ट 31 से समझा जा सकता है जिसके अनुसार लिखित रूप से इन जातियों की सेना में भर्ती पर पाबंदी थी- कायस्थ, बनिया, नाई, तेली, तंबोली, गदरिया, कहार, माली। इनसे छूआछूत की बात नहीं थी, बल्कि वे मानते थे कि ये योद्धा वर्ग हैं ही नहीं। अगर ये नहीं थे, तो ब्राह्मण किस तर्क से हो गए? 

1857 ने उन्हें अपनी ‘ग़लती’ का अहसास कराया, जब उन्हें मालूम पड़ा कि पूरी योजना के पीछे अधिकांश पुरबिया ब्राह्मण हैं, जो गुटबाज़ी कर अपनी वाक्पटुता और जाति-निहित आदर से बाकियों को भड़काते हैं। जॉन लॉरेंस ने लिखा है,

“जब ये ऊँची जाति के लोग विद्रोह का ऐलान करते, तो निचली जाति के कर्मी जिनका काम टेंट गाड़ना, मिट्टी खोदना आदि था, वे भी भेड़-बकरियों की तरह पीछे-पीछे चल देते। वे हम ब्रिटिशों से अधिक आदर उन ब्राह्मणों का करते थे।”

1857 से पहले बंगाल रेजिमेंट के खलासी आदि पदों पर चमारों की खूब भर्ती हुई थी, जो 1857 के बाद इस कारण से भी घटा दी गयी कि वे ऊँची जाति के सिपाहियों को ही अपना मालिक मानते थे। उनकी जगह मज़हबी सिखों की भर्ती की गयी। ब्राह्मणों की भर्ती तो खैर बहुत कम कर दी गयी। ब्राह्मण रेजिमेंट का सिर्फ़ नाम ही रह गया, जो बीसवीं सदी तक खत्म ही कर दिया गया। बंबई प्रेसिडेंसी के आर्मी चीफ़ सोमसेट ने कहा,

“इन ब्राह्मणों को सेना में तो क्या, प्रशासनिक सेवाओं से भी बाहर किया जाए। यही सारे फ़साद की जड़ हैं।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (17) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-17.html 


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