Sunday 23 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (10)

चित्र: माइकल वाइट के 1901 में लिखित एक उपन्यास से

ब्रिटिश हड़प नीति (Doctrine of Lapse) में दो मूलभूत समस्या दिखती है, जो उनकी अपनी आधुनिकता पर भी प्रश्न उठाती है। पहला यह कि जहाँ भारत में ‘दत्तक पुत्र’ के माध्यम से वंशज परंपरा रही, कुछ राज्यों में मातृवंशीय परंपरा (matrilineal) रही, इंग्लैंड आज तक दकियानूसी रक्त-वंशज परंपरा पर अटका हुआ है। इस परंपरा की हानि भी हम पढ़ चुके हैं, कि किस तरह महारानी विक्टोरिया का ‘हीमोफ़ीलिया’ रोग कई वंशजों की असमय मृत्यु और रूसी ज़ारशाही के अंत का एक कारण बना। 

दूसरा यह कि जिस साम्राज्य की शासक ही एक स्त्री हो, वह भला एक स्त्री को राज्य का अधिकार क्यों नहीं देती? आधुनिकता की डींग हाँकने वाली इंग्लैंड में न लड़कियों के लिए स्कूल थे, न मताधिकार था। बल्कि, 1918 में जब मताधिकार मिला, तो उसके लिए लड़ाई लड़ने वालों में सोफ़िया दलीप सिंह (महाराज दलीप सिंह की बेटी) अग्रणी थी। मैंने ‘रिनैशाँ’ पुस्तक में यह भी लिखा है कि इंग्लैंड की पहली महिला ग्रैजुएट और भारत की पहली महिला ग्रैजुएट में कुछ ही वर्षों का फ़ासला है।

मणिकर्णिका पर कई मिथकीय और काव्यात्मक चर्चाएँ हुई हैं। रानी लक्ष्मीबाई भारतीय जनमानस में लगभग एक ‘देवी’ की तरह देखी जाती है। लेकिन, यहाँ लिजेंड को अलग कर जो पहलू है, उसी की चर्चा करूँगा।

आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद बिठूर में बसाए गए मराठियों में पेशवा और उनके कई अन्य सहयोगी परिवार थे। यह क्षेत्र एक मिनी-महाराष्ट्र था। आज भी आइआइटी कानपुर के निकट उनके मराठी वंशज वहाँ मिल जाएँगे। उत्तर भारत के एक गाँव में यह एक संगठित समाज रहा होगा, जहाँ मणिकर्णिका और उनसे कुछ ही वर्ष बड़े ढोंढू पंत साथ बड़े हो रहे थे। तांत्या टोपे इन दोनों से ज्येष्ठ थे।

हालाँकि पक्के जन्म के रिकॉर्ड तो नहीं मिले, लेकिन, 1842 में झाँसी रियासत के राजा गंगाधर राव से उनका विवाह दर्ज है। 19 नवंबर, 1853 को गंगाधर राव द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी के मेजर एलिस को लिखी चिट्ठी मिलती है,

“ईश्वर की इच्छा रही तो मैं पुन: स्वस्थ हो जाऊँगा। मैं अब भी बहुत बूढ़ा नहीं हुआ, और संतान संभव है। अगर ऐसा होता है, तो मैं अपने दत्तक पुत्र के संबंध में उचित निर्णय लूँगा। लेकिन अगर मेरी मृत्यु हो जाती है, तो मेरी पिछली निष्ठा को ध्यान में रखते हुए मेरे (दत्तक) पुत्र से उदारता दिखायी जाए। मैं यह अनुरोध करुँगा कि जब तक मेरा पुत्र वयस्क नहीं होता, मेरी पत्नी को महारानी का दर्जा दिया जाए।”

गंगाधर राव कुछ ही समय बाद चल बसे। लॉर्ड डलहौज़ी ने इस अनुरोध को नहीं माना। इससे पहले भी सतारा, नागपुर, जैतपुर, संबलपुर आदि में यह उत्तराधिकार समस्या आयी थी। झाँसी में अलग निर्णय की कोई वजह नहीं थी। हालाँकि महारानी को संपत्ति और पेंशन आदि की पेशकश की गयी, जो अन्य रियासतों में भी किए जाते थे। 

16 फरवरी, 1854 को लिखे एक खरिता (चिट्ठी) में लक्ष्मीबाई ने लिखा,

“मैं बुंदेलखंड से ऐसे उदाहरणों की सूची भेज रही हूँ, जब विधवा को महारानी पद मिला। आशा है कि शिवराव भाऊ की बहू को भी ऐसा ही अधिकार मिलेगा।”

2014 में भारतीय प्रधानमंत्री ने एक ट्वीट किया था- “ऑस्ट्रेलियाई वकील जॉन लैंग याद हैं?”

जॉन लैंग एक ऑस्ट्रेलियाई घुमक्कड़ थे, जिन्होंने भारत यात्रा पर काफ़ी लिखा है, और उन्होंने ही लक्ष्मीबाई को वर्णित भी किया है। हालाँकि उसे पढ़ते हुए साधारण पाठकीय समझ से भी गप्पबाज़ी अधिक दिखती है। वह संभवत: महारानी और कंपनी के मध्य अंग्रेज़ी ड्राफ्ट बनाने में मदद कर रहे थे, जिसे संदर्भों में वकालत भी लिख दिया जाता है। 

लेकिन, यह स्पष्ट है कि बिठूर में नाना साहेब, झांसी में लक्ष्मीबाई के साथ अवध के विलयन की हलचलों ने कंपनी के ख़िलाफ़ एक भोगौलिक उपरिरेंद्र (epicentre) बनाने में मदद की। इन रियासतों से बंगाल रेजिमेंट के पुरबिया सिपाहियों को ‘ट्रिगर’ होना कम से कम कारतूस नैरेटिव से अलग दिशा में ले जाता है। 

संभवत: स्त्री अधिकारों पर जो प्रश्न लक्ष्मीबाई के चिट्ठियों ने उठाया, वह उन ब्रिटिशों को असहज कर गया, जो कुछ ही समय पहले स्वयं को सती प्रथा उद्धारक और भारतीय स्त्रियों का रक्षक कह रहे थे। यह उनके आत्मसम्मान पर बड़ी चोट थी कि झाँसी और अवध जैसी रियासतों में रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हज़रतमहल लड़ रही थी, जबकि उनकी मेमसाहेब और स्त्रियाँ अभी युद्धों में ‘नर्स’ से आगे नहीं पहुँच पायी थी।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (9) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-9.html 

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