Saturday 20 August 2022

कमलकांत त्रिपाठी / मृच्छकटिकम्‌ के बीहड़ ख़ज़ाने से (6)

कुछ चरित्र,  कुछ प्रसंग, कुछ चित्र ~

मदनिका
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मदनिका मृच्छकटिकम्‌ की सहनायिका-जैसी है। वह एक क्रीतदासी है जिसे मुक्तकर नायिका वसंतसेना ने उसके प्रेमी शर्विलक को वधू के रूप में सौंप दिया। क्रीतदासी होने के बावजूद वह वसंतसेना की सबसे अंतरंग सहेली है, सबसे अधिक विश्वासपात्र। वसंतसेना से बराबरी के स्तर पर कुछ भी कह सकती है, विरोध भी कर सकती है। इस विडम्बनात्मक सम्बंध में जो सौजन्य और सौख्य का सांद्र भाव है उसमें वसंतसेना और मदनिका दोनों का योगदान है। वसंतसेना का औदार्य और मदनिका का सद्गुणी, सदाशयी व्यक्तित्व। जैसे वह वसंतसेना का ही अक्स हो। मदनिका भी अतीव सुंदरी है, गणिका होने के बावजूद वह भी वसंतसेना की तरह  एकनिष्ठ प्रेम करती है। किंतु वह प्रेम में अंधी नहीं है। प्रेमी के हित के लिए कुछ भी कर सकती है, तो उसके अनुचित कार्य पर झिड़क भी सकती है। बुद्धिमती है और जटिल से जटिल  परिस्थिति में प्रेमी को उचित और कल्याणकारी मार्ग सुझा सकती है, सुझाती है। अकारण नहीं कि शर्विलक को चोरी के आभूषण चारुदत्त की ओर से वसन्तसेना को सौंप देने की मदनिका की सलाह पर, छिपकर अकेले बैठी वसंतसेना अभिभूत होकर कहती है—वाह मदनिके, तुमने ठीक विवाहिता पत्नी जैसी सलाह दी।

मदनिका के साथ वसंतसेना का जो सम्बंध है, उसमें एक सहज आत्मीय ऊष्मा है जो उसे स्वजन-जैसी बना देती है। चतुर्थ अंक में वसंतसेना द्वारा मदनिका को मुक्तकर शर्विलक को वधू के रूप में सौंप दिए जाने के बाद: 

वसंतसेना—अरे यहाँ कोई गाड़ीवान है ? [भवन के एक भाग में कई गाड़ियाँ रहती हैं] 

सेविका आकर उसे सूचित करती है कि गाड़ी तैयार है। 

वसंतसेना—मदनिके, जाने से पहले ज़रा एक बार आँख भर देख लेने दो। अब तो तुम पराई हो गई...ठीक है, अब बैठो गाड़ी में। लेकिन मुझे भूल मत जाना। 

मदनिका—(रोती हुई) आर्या ने मुझे त्याग दिया। (उसके पैरों पर गिरना चाहती है) 

वसंतसेना—(उसे पैरों पर नहीं गिरने देती) अरी, अब तो तू मेरी पूज्य हो गई है (शर्विलक कुलीन ब्राह्मण है)। चलो, गाड़ी में बैठो। बस मुझे याद रखना। 

शर्विलक—(वसंतसेना से‌) आपका कल्याण हो। (मदनिका से) वसंतसेना को आदरपूर्वक अच्छी तरह देख लो और विनय-भाव से इन्हें प्रणाम करो। इन्हीं की कृपा से वेश्याओं के लिए दुर्लभ वधू का घूँघट तुम्हें प्राप्त हुआ है। 

मदनिका पत्नीरूप में:                             

जैसे ही शर्विलक मदनिका के साथ गाड़ी में सवार होकर प्रस्थान के लिए उद्यत होता है, नेपथ्य से—

राजकीय घोषणा—एक सिद्धपुरुष के कहने पर कि यह ग्वाल-पुत्र आर्यक ही राजा बनेगा, त्रस्त हुए राजा पालक ने ग्वालों की बस्ती से पकड़वाकर उसे कठोर कारागार में डाल दिया है।   

शर्विलक--(सुनकर) राजा पालक ने मेरे मित्र आर्यक को पकड़ लिया है। इधर मैं सपत्नीक हो गया हूँ। कष्ट है! 

संसार में मनुष्य को पत्नी और मित्र दो ही सर्वप्रिय हैं। किंतु इस समय तो मित्र सैकड़ों सुंदरियों से बढ़कर है। 

तो गाड़ी से उतरता हूँ। 

मदनिका—(आँसूभरी आँखों से, हाथ जोड़कर) आपके लिए यही करणीय है। पर पहले मुझे अपने स्वजनों के यहाँ छोड़ दें।

शर्विलक—धन्य हो प्रिये। तुमने मेरे मन की बात कह दी। (गाड़ीवान से) तुम व्यापारी रेभिल (जिसके यहाँ शर्विलक ने आश्रय लिया है) का घर जानते हो? 

गाड़ीवान—क्यों नहीं ? 

शर्विलक—इन्हें वहीं पहुँचा दो। 

गाड़ीवान—आपकी जैसी आज्ञा। 

मदनिका—आर्यपुत्र जो करने जा रहे हैं, उसमें भी बहुत सावधान रहने की ज़रूरत है।

शर्विलक—जैसे मंत्री यौगंधरायण ने राजा उदयन की रक्षा की थी (भास के नाटक प्रतिज्ञायौगंधरायणम्‌ का संदर्भ), वैसे ही मुझे अपने मित्र आर्यक की रक्षा करनी है। इसके लिए राजा के कुटुम्बियों, धूर्तों, बाहुबल के लिए विख्यात वीरों, और राजा से निरादृत, इसलिए क्रुद्ध  सेवकों को उकसाता हूँ। तथाकथित सिद्ध पुरुष के कथन से उत्पन्न मन की शंका से भयभीत, दुष्ट राजा ने अकारण ही मेरे मित्र को कारागार में डाल दिया है। राहु के मुँह में पड़े चंद्रमा की तरह उसे अब मैं छुड़ाता हूँ। 

(चला जाता है।)        

और उपरोक्त संवाद ही नाटक में मदनिका का अंतिम संवाद है। अंतिम दर्शन भी। इस अंक के बाद (दस अंकों के) इस बृहत्‌ नाटक में मदनिका की कोई भूमिका नहीं, न ही उसका कोई संदर्भ आता है। और शर्विलक अपने मित्र आर्यक के साथ सत्ता-परिवर्तन के संघर्ष में व्यस्त हो जाता है।             

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मैत्रेय (विदूषक)
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मैत्रेय जी चारुदत्त के सच्चे मित्र और हितैषी हैं। वे विदूषक के पारंपरिक लक्षणों के अनुरूप महज़ हँसोड़, मोदक-प्रिय और पेटू ब्राह्मण नहीं हैं। व्यावहारिक और दुनियावी मामलों में  होशियार व्यक्ति हैं। लिहाज़ा, वे वसंतसेना को एक गणिका की सामान्य छवि में ही देखते हैं और चारुदत्त के प्रति उसकी आसक्ति को लेकर ख़ासे चिंतित हैं। धरोहर के तौर पर रखे वसंतसेना के आभूषणों की चोरी से उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए, चारुदत्त के भौतिक हितों की सुरक्षा की दृष्टि से मैत्रेय की सिद्धांत-विहीन सलाह हम पढ़ चुके हैं। आभूषणों के एवज में चारुदत्त की पत्नी धूता द्वारा प्रदत्त अधिक क़ीमती रत्नहार वसंतसेना को देने के भी वे एकदम ख़िलाफ़ हैं। दरअसल वे न तो भावप्रवण सुंदरी वसंतसेना के चारुदत्त के प्रति नि:स्वार्थ और समर्पित प्रेम की प्रकृति समझ पाए हैं, न सहृदय चारुदत्त की संवेदनशील प्रतिक्रिया को। वे तो पहले से ही दरिद्र हुए चारुदत्त को एक गणिका के मायाजाल में फँसकर पूरी तरह बरबाद होने से येन केन प्रकारेण बचाने के लिए कटिबद्ध हैं। एक विडंबना के तौर पर वसंतसेना को रत्नहार पहुँचाने का दायित्व उन्हीं को सौंपा गया है। 

जब सेविका द्वारा चारुदत्त के यहाँ से ‘एक ब्राह्मण’ के आगमन की सूचना वसंतसेना को मिलती है वह इसे शुभ-सूचक मानती है और सेविका को आदेश देती है कि बंधुल (एक गणिकापुत्र) के साथ ससम्मान उन्हें ले आये। 

पता नहीं सेविका और बंधुल ने ‘ससम्मान’ का क्या अर्थ निकाला कि वे मैत्रेय को धरातल की मंज़िल का पूरा महल दिखाते हुए पीछे के उद्यान में बैठी वसंतसेना के पास ले जाते हैं। उस मंज़िल में शानदार, सुसज्जित द्वार के बाद कुल आठ कक्ष हैं और आठों भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए उपयुक्त होते हैं। उन्हें देखते हुए विदूषक महोदय उनसे टपकते विरल ऐश्वर्य और उनकी विलासपूर्ण साज-सज्जा का विलक्षण वर्णन करते हैं। स्पष्ट है कि इस अवसर का उपयोग रचनाकार ने उस युग की वास्तुकला एवं समृद्धि के सर्वोत्कृष्ट को अपने अनुभव और कल्पना में पुंजीभूत कर शब्दों से मूर्तिमान करने का प्रयास किया है। जैसे कालिदास ने उत्तरमेघ में अलकापुरी के व्याज से नागर संस्कृति के अपने उत्कृष्ट बोध को पदांकित किया है। एक कक्ष में बैल, घोड़े, लड़ाकू भेंड़े और हाथी के साथ एक क्रुद्ध भैंसा और बँधा हुआ एक बंदर भी दिखाई पड़ता है। एक कक्ष में भद्र लोगों के बैठने के आरामदेह आसन और मनोरंजन के उपकरण सजे हुए हैं। एक कक्ष में मृदंग, करताल, बाँसुरी, वीणा आदि वाद्यों के साथ गणिका-बालिकाओं को अभिनय की शिक्षा दी जा रही है। एक कक्ष में पाकशाला है जिसमें भाँति-भाँति के व्यंजन बन रहे हैं जिनसे उठती हींग आदि मसालों की सुगंध से विदूषक महोदय ज़रूर विचलित होते हैं। एक कक्ष में सोने के आभूषणों पर मणियों और तरह-तरह के रत्नों की जड़ाई का काम चल रहा है। उसी में हँसी ठहाके के बीच कुछ लोग गणिकाओं द्वारा पीकर छोड़ी गई शराब पी रहे हैं। एक कक्ष में कबूतर, मोर, तीतर, शुक, मैना, राजहंस आदि पक्षियों के रख-रखाव का प्रबंध है। और अंतिम कक्ष में विचित्र वेषभूषा में वसंतसेना के भाई और फूले हुए पेटवाली, ज्वर-पीड़िता माँ के दर्शन होते हैं जिनके वर्णन में विदूषक महोदय बीभत्स रस का प्रचुर प्रयोग करते हैं। जो भी हो, महल का यह विस्तृत वर्णन नाट्य-धारा के प्रवाह को बाधित करने के कारण सुरुचिपूर्ण पाठकों / दर्शकों के अनुकूल तो नहीं ही लगता। 

पीछे के उद्यान में पहुँचकर वहाँ के पुष्प-पादप और बावड़ी के सौंदर्य से अभिभूत विदूषक महोदय उनके वर्णन में रम जाते हैं। अंतत: वे वसंतसेना के सम्मुख पहुँचते हैं और कथानक का अतिशय नाज़ुक प्रसंग धीरे-धीरे उद्घाटित होता है।     

विदूषक—आपका कल्याण हो। 

वसंतसेना—अरे, ये तो मैत्रेय हैं। (उठकर) स्वागत है। यह रहा आसन। इस पर विराजमान हों।

विदूषक—आप भी बैठें। 

वसंतसेना—वणिकपुत्र (चारुदत्त) सकुशल तो हैं?

विदूषक—कुशल ही हैं। 

वसंतसेना—वे तो सज्जनता के ऐसे वृक्ष हैं जिसकी कोंपलें उनके गुण हैं, शाखाएँ उनकी विनम्रता,  जड़ें उनका विश्वास, पुष्प उनकी महानता। फलों से लदे उस वृक्ष पर उनके मित्ररूपी पक्षी  सुखपूर्वक निवास करते हैं।    
              
विदूषक—(स्वगत) दुष्ट गणिका ने ठीक ही अनुमान लगाया। (प्रकट) ऐसा क्या?  

वसंतसेना—महानुभाव के यहाँ आने का प्रयोजन? 

विदूषक—आदरणीय आर्य चारुदत्त ने सर माथे लगाकर आपसे एक निवेदन किया है। 

वसंतसेना—(हाथ जोड़कर) क्या आज्ञा है उनकी?

विदूषक—‘आपके आभूषणों की मंजूषा आपके ऊपर विश्वास के चलते अपनी मानकर मैं जुए में हार गया। इसी बीच द्यूताध्यक्ष न जाने कहाँ चला गया।‘ 

सेविका—आर्ये, सौभाग्य से आपकी बढ़ती हो रही है। आर्य चारुदत्त जुआड़ी हो गए। 

वसंतसेना—(स्वगत) जिन आभूषणों को चोर ने चुरा लिया, अपनी उदारता में वे कह रहे हैं—जुए में हार गया। इसीलिए तो उन्हें इतना चाहती हूँ।

विदूषक—उन आभूषणों के बदले आप इस रत्नमाला को स्वीकार करें।

वसंतसेना—(स्वगत) तो क्या वे आभूषण इन्हें दिखा दूँ? (कुछ सोचकर) या अभी नहीं? 

विदूषक—तो क्या आप इस रत्नहार को स्वीकार नहीं कर रहीं ? 

वसंतसेना—(हँसकर सखी की ओर देखते हुए) मैत्रेय, भला मैं रत्नहार क्यों नहीं लूँगी! (लेकर, अपने पास रखकर, स्वगत) हाय, बौर-विहीन आम के पेड़ से भी रस की बूँदें टपकती हैं। (प्रकट) आर्य, मेरी ओर से उन जुआड़ी महोदय आर्य चारुदत्त से कह दीजिएगा कि आज सूर्यास्त के बाद मैं स्वयं उनका दर्शन करने आ रही हूँ। 

विदूषक—(स्वगत) वहाँ आकर देवी जी और क्या लेंगीं! (प्रकट) कह दूँगा, महोदया। (स्वगत) कि आप इस गणिका-प्रसंग को यहीं विराम दीजिए। (कहकर चल देता है।)

वसंतसेना—सेविके, इस रत्नहार को रख लो। हम चारुदत्त के साथ अभिसार के लिए चलते हैं। 

सेविका—आर्ये, देखिए तो, इन बिना समय के उमड़ते बादलों को। 

वसंतसेना—बादल उमड़ें, रात हो जाए, घनघोर वर्षा हो, हृदय से प्रियतम की ओर उन्मुख मैं परवाह नहीं करती।

(सभी निकल जाते हैं।)

[चतुर्थ अंक का पटाक्षेप]
....................
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी 
(Kamala kant tripathi) 

मृच्छकटिकम् (5) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/5.html 

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