Wednesday 3 August 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (22)

रानी ग़ैदिनल्यू और हरेका आन्दोलन: नागा अस्मिता के लिए संघर्ष ~ 

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि नागा समुदाय का एक बहुत बड़ा वर्ग आत्ममंथन करना शुरू कर दिया था और यह चिंतन आज भी जारी है कि इसाई मिशनरी के लोगों ने उन्हें इसाई तो बना दिया लेकिन उनसे उनका अस्तित्व छीन लिया। इसाई बनाने की प्रक्रिया शायद इस भावना से प्रेरित थी कि, नागा परम्परागत रूप से पढ़े लिखे नहीं हैं, उनकी सोच भ्रामक और अविज्ञानिक है, वे लोग अपनी परम्परा और देवताओं के कारण अन्धविश्वास में जीते हैं, उनका जीवन बहुत ही बेकार और अमानवीय है। इस बात की अनुभूति आप तभी कर पायेंगे जब आप इसाई मिशनरियों का आगमन, उनका विस्तार, आदि पर ईमानदारी से कार्य करेंगे। हो सकता है नागा एवं अन्य जनजातीय समुदाय का एक बहुत बड़ा वर्ग जो इसाई हो चुके है, आपके कथ्य और एथनोग्राफिक अनुसन्धान पर प्रश्न उठाना शुरू कर दें, लेकिन सत्य का उद्घाटन तो करना ही होगा। मैं कहता हूँ आप इसाई धर्मान्तरण का इतिहास पढ़ ले। भारत के विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों में इसाई मिशनरी का आगमन और विस्तार की गाथा पढ़ें तो आपको लगेगा कि इन लोगों ने धन, प्लानिंग, अख़बार, पत्रकारिता, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा एवं अस्पताल, विद्यायल एवं महाविद्यालय का निर्माण कर परम्परागत आदिवासी धार्मिक भावना, हिन्दू धर्म से प्रभावित आदिवासी धर्म, अनुष्ठान, कर्मकांड आदि पर प्रहार करते हुए लोगों को गुमराह किया और उन्हें इसाई बनाते रहे। भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी, वाममार्गी विद्वान उनका समर्थन करते रहे। इसाई मिशनरियां आदिवासी समाज के उत्थान के लिए कार्य करते रहे। उनमे शिक्षा का विस्तार, उनके उत्तम स्वास्थ्य, और अनेक कार्य करते रहे, लेकिन सभी अच्छे कार्यों में धर्म परिवर्तन मूल था। इसी परम्परा का पालन मदर टेरेसा भी करती रही। उनके करुना में आदिवासियों एवं अन्य लोगों का अपने धर्म से इसाई में परिवर्तित करना ही था। परिवर्तन का यह नेटवर्क उनको नोबल पुरुस्कार तक ले गया। नहीं तो जिस अंग्रेज ने नागा को असभ्य, बर्बर कहकर उनके गाँव के गाँव जला दिये, असंख्य लोगों को ख़त्म कर दिया, उन्ही के लोगों ने नागा समुदाय के लोगों को कैसे इसाई में बदल दिया इसपर गम्भीरता से विचार करने की जरुरत है।

आज भी नागा समुदाय अगर अपने इतिहास में जाता है, या जाना चाहता है तो उसको इतना तो अवश्य लगता है कि उसके साथ छल किया गया है। एक नागा युवक जो जेमि नागा समुदाय से था, मुझे कह रहा था: “मिश्रा सर, हमलोग कुछ ही नागा हैं जो अभी तक इसाई नहीं बने हैं। अब हम कभी भी इसाई नहीं बनेगें। आप को बता दूँ कि जनजातियों में धर्म परिवर्तन का कार्य बुद्धिस्ट लोगों ने भी किया । उन्होंने आदिवासियों को अपने साथ जोड़ने के लिए अपने धर्म में परिवर्तन किया। उन्होंने आदिवासियों से कह दिया कि आप लोग अपने देवी देवता, अनुष्ठान, विध विधान का पालन करते रहिये। सभी कुछ करते हुए आप बुद्धिस्ट बन जाइए। काश इसाई धर्म के लोगों ने भी ऐसा किया होता तो हम लोग अपनी परम्पराओं से विमुख नहीं होते। आज इसाई धर्म के प्रति लोगों में आक्रोश नहीं होता। इसको समझने की आवश्यकता है।”
मैंने कहा: “आप सही कह रहे हो, फिर आप लोग इसका समाधान क्यों नहीं ढूंढते हैं?”
नागा युवक कहने लगा: “यहाँ एक समस्या है सर। अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग इस क्षेत्र में गम्भीरता से काम करने लगे हैं। वे नागा अथवा किसी भी जनजातीय समुदाय को अपने मूल आदिवासी धर्म और परंपरा में रहने के लिए उत्साहित करते हैं। इतना ही नहीं, जो लोग इसाई बन चुके हैं उन्हें फिर से अपने मूल धर्म में लाना चाहते हैं। यह सब कार्य बलपूर्वक नहीं अपितु समझाकर किया जाता है। उनका विरोध इसाई मिशनरी के लोग अन्य लोगों को बरगलाकर करते हैं। सर यह भी बता दूँ कि नागा अथवा अन्य जनजातीय समुदाय को फिर से अपने मूल धर्म और परम्परा में लाने का आन्दोलन आज का नहीं है। इसका प्रारम्भ अंग्रेजो के रहते शुरू हो गया था। रानी ग़ैदिनल्यू ने तो मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में 1927 ईस्वी में यह बिगुल बजा दिया था।”

मैं अब तक रानी ग़ैदिनल्यू के बारे में सामान्य जानकारी प्राप्त कर लिया था। यह घटना मैं आपको बताता चलूँ कि नार्थ कछार हिल्स के जिला केंद्र हाफलोंग की है। रानी ग़ैदिनल्यू के बारे में मणिपुर और नागालैंड के लोगों में मुझे बताया था। यद्यपि लोग उनको अपनी-अपनी नजरिये से समझ रहे थे और मुझे समझाना भी चाह रहे थे। मेरे लिए रानी ग़ैदिनल्यू के बारे में किसी एक निर्णय पर तुरत पहुचना संभव नहीं था। एथनोग्राफी का धर्म यह कहता है कि जिस विषय पर लोगों के अलग-अलग मंतव्य थे उसपर अधिक दिन तक रहकर सभी तरह के लोगों से मिलकर, सभी के मंतव्य सुनकर, समझकर, उनपर गम्भीरता से विचार कर ही निर्णय लेना चाहिए। आप इन विषयों पर तुरत निर्णय नहीं ले सकते। ऐसा करना अपने विषय के प्रशिक्षण और अनुभव के विपरीत है। फिर आप शक के कटघरे में शामिल हो जायेंगे। इसीलिए रानी ग़ैदिनल्यू पर अधिक से अधिक लोगों को सुनना, समझना और नागालैंड, मणिपुर, असम कम से कम तीनों जगह के नागा और अन्य आदिवासियों से जानकारी प्राप्त करना अनिवार्य था। मैं यही कर रहा था ।

हम शाम को एक जगह आये जहाँ रानी ग़ैदिनल्यू की मूर्ती एक चौराहे पर लगी थी। उसमे रानी का नाम, उनका जन्म और अवसान तिथि एवं उनके बारे में संक्षिप्त जानकारी दिया गया था। लोग उस जगह आकर विनम्रता से रानी ग़ैदिनल्यू के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करते थे। रानी ग़ैदिनल्यू को किसी स्थापित देवी से कम सम्मान नहीं था। सभी लोग चाहे कोई भी जनजातीय समुदाय के हों, उनका सम्मान कर रहे थे। यह मेरे लिए उत्साह का विषय था। मुझे लगा कि रानी ग़ैदिनल्यू के बारे में यहाँ के लोग हमें बहुत कुछ बता सकते हैं। यद्यपि रानी ग़ैदिनल्यू मूल रूप से मणिपुर की रहने वाली थीं। नार्थ कछार हिल्स मणिपुर और नागालैंड दोनों को जोड़ने वाला क्षेत्र है।

नागाओं के तीन समूह जेमि नागा, काबुई नागा (रोंगमई) और रियांग नागा को मिलाकर जिलियांगरोंग नाम दिया गया। रानी ग़ैदिनल्यू  का जन्म मणिपुर के तामेंगलोंग ज़िले के लोंग्काओ गाँव में 26 जनवरी 1915 ई में हुआ था। वे अपने माता-पिता के आठ संतानों में पांचवीं संतान थी। बाल्यकाल से ही रानी गाइदिनल्यू अलग उर्जा से परिपूर्ण थी। उनमे संस्कृति संरक्षण और नागा संस्कार के संरक्षण के अपूर्व गुण थे।
रानी ग़ैदिनल्यू का एक चचेरा भाई था हाईपू जदोनांग। वह नागा को अपने वास्तविक स्वरुप में देखना चाहता था। उसको लगता था कि ब्रिटिश हुकूमत और इसाई मिशनरी नागा समाज को बरबाद कर रहे हैं। नागाओं के गाँव के गाँव जलाये जा रहे थे। लोगों को जान से मार दिया जा रहा था। नागा समुदाय की कलाकृतियों को जलाकर बरबाद किया जा रहा था। उनके धर्म, उनकी मान्यता को, उनके अनुष्ठान को असभ्य, हिसक कहकर उनका माखौल उड़ाया जा रहा था। ऐसे में मणिपुर और नार्थ कछार हिल्स के अगल बगल में रहनेवाले जिलियांगरोंग नागाओ का एक देशभक्त समूह बनाकर अंग्रजी हुकूमत और इसाई द्वारा धर्मान्तरण को रोकने के लिए एक आन्दोलन शुरू किया गया जिसका नाम हेराका रखा गया। हेराका आंदोलन का लक्ष्य प्राचीन नागा धार्मिक मान्यताओं की बहाली और पुनर्जीवन प्रदान करना था। इस आंदोलन का स्वरूप आरंभ में धार्मिक था किंतु धीरे-धीरे उसने राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। इस आंदोलन के दौरान मणिपुर, नागालैंड और असम के नागा बहुल क्षेत्रों से अंग्रेजों को बाहर खदेड़ना शुरू किया गया।

जैसा कि बता दिया है उस आन्दोलन को शुरू करने वाला नागा का नाम था हाईपू जदोनांग। अपने चचेरे भाई हाईपू जदोनांग के साथ छोटी सी रानी ग़ैदिनल्यू बैठकर उसके योजना और विचार को गम्भीरता से सुनती रहती। हाईपू जदोनांग को भी अपनी मतवाली बहन ग़ैदिनल्यू का दखलंदाजी बहुत पसंद था।  वह अपनी बहन रानी ग़ैदिनल्यू को अपनी तमाम योजनाओं को बताता। किस तरह से अंग्रजी उपनिवेशवाद को ख़त्म करना है, यह समझाता। यह भी बताता कि धर्मान्तरण करके इसाई मिशनारियां नागा संस्कृति को जड़ से ख़त्म करने में लगीं हैं। इन दो चीज को ख़त्म करके ही नागा समाज के लोग अपना अलग अस्तित्व के साथ अलग नागा प्रदेश में सम्मान और शांति से रह सकते हैं। लेकिन इस सम्मानजनक शांति के लिए क्रान्ति जरुरी था।

खैर, हाईपू जदोनांग अपनी करिश्माई भाषण से जिलियांगरोंग नागाओं में अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए मर मिटने का ज़ज्बा भर दिया था। वह अपनी योजना को फुल प्रूफ बनाकर चलता था। वह 100 प्रतिशत में जीना चाहता था उसके लिए 99 प्रतिशत होना कोई मायने नहीं रखता था। और उस जज्बे में उसको साथ देनेवाली मिल गयी थी उसकी चचेरी बहन रानी ग़ैदिनल्यू।  फिर क्या था लोग हजारों की संख्या में मर मिटने के लिए तैयार हो गए। लोग  हाईपू जदोनांग की एक झलक पाने के लिए बेचैन रहने लगे। अंग्रेज अधिकारी अब उसके पीछे पर गए और अंततः 29 अगस्त 1931 को उसे गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ ही दिनों में उसको फंसी पर भी चढ़ा दिया गया।

लगता था जैसे हाईपू जदोनांग को मालुम था कि वह जल्दी ही फंसी पर चढ़ जायेगा। इसीलिए उसने रानी ग़ैदिनल्यू को अपना उत्तराधिकारी चुन लिया था। अब कमान रानी ग़ैदिनल्यू के हाथ में था। लोग रानी ग़ैदिनल्यू को हाईपू जदोनांग से अभी अधिक प्यार करने लगे। प्रेम से रानी को रानी माँ कहकर पुकारने लगे। रानी एक विद्रोही नेता के रूप में उभरने लगी। उनके धार्मिक कृत्यों में भी लोगों ने एक राजनीती का आधार देखना शुरू किया। जनजातियों में रानी ग़ैदिनल्यू ने गजब की चेतना ला दी। धरमांतरण की गति को तो मानो रोक ही दिया। लोग रानी में इश्वर का स्वरुप देखने लगे। अंग्रेजों ने उनपर निगरानी शुरू कर दिया। अनेक नागा गांवो को जलाकर राख कर दिया गया। निर्दोष लोगों को गोली से भुन दिया गया। फिर भी लोग रानी के साथ थे। उनका मानोबल बढ़ा हुआ था। अंततः 17 अप्रैल 1932 में एक मुठभेड़ में रानी ग़ैदिनल्यू को गिरफ्तार कर लिया गया। कहना यह भी जरुरी है कि रानी ग़ैदिनल्यू गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच की कड़ी थीं। वह दोनों के संतुलित समावेश के साथ चलना चाहती थी। रानी में छत्रपति शिवाजी की तरह गुरिल्ला युद्ध करने का भी कौशल था और तो और रानी ने अंग्रेजो से लड़ने के लिए अपनी सेना में लोगों को गोली चलाना, तीर धनुष चलाना और भी अनेक करतब का प्रशिक्षण देने लगी। उनके रणबांकुरे युद्ध में सदैव अपना युद्ध कौशल प्रदर्शित करने के लिए तैयार रहते थे। युद्ध को युद्ध की तरह लड़ने के लिए रानी ग़ैदिनल्यू ने एक अभेद्य किला का भी निर्माण शुरू कर दी थी। दुर्भाग्य से किला बनाने के पूर्व ही उनको एक मुठभेर में गिरफ्तार कर लिया गया । रानी ग़ैदिनल्यू पर अपराधिक मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली।

1932 से लेकर भारत की आजादी मिलने तक अर्थात 1947 तक रानी ग़ैदिनल्यू जेल में रही। बाद में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु के पहल पर उन्हें जेल से रिहा किया गया। जेल में रहने के बाद भी उनका यश कम नहीं हुआ। आजादी के बाद भी रानी ग़ैदिनल्यू अखंड भारत के अंदर नागा संस्कार, संस्कृति, अनुष्ठान के सतत संरक्षण और संवर्धन के लिए कार्य करती रहीं। अलगाववादी गुट चाहे मणिपुर का हो, नागालैंड का हो अथवा असम का हो, उनका उन्होंने विरोध किया। यद्यपि 1960 अलगाववादी गुट ने उनका विरोध किया। अब वह अंडरग्राउंड हो गयीं। यह भी एक नितांत जरुरी जानकारी है कि रानी ग़ैदिनल्यू ने सबसे अधिक सुरक्षित जगह नार्थ कछार हिल्स को अपने अज्ञातवास के लिए चुना। नार्थ कचार हिल्स के लोगों ने रानी को बहुत प्यार और आदर दिया।
रानी ग़ैदिनल्यू को 1972 में “ताम्रपत्र स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार”, 1982 में “पद्म भूषण” पुरस्कार, और 1983 में “विवेकानंद सेवा पुरस्कार” से नवाजा गया। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर भाई मोदी ने 24 अगस्त 2015 को रानी ग़ैदिनल्यू के जन्म शताब्दी समारोह का शुभारम्भ किया। अगर रानी ग़ैदिनल्यू के कार्य, उनका धैर्य, युद्ध कौशल, नागा संस्कृति और स्पिरिट के प्रति समर्पण देखेंगे, लोगों का उनके प्रति सम्मान और सिनेह देखेंगे तो आपको वे किसी भी अर्थ में रानी लक्ष्मीबाई, या किसी भी स्वतंत्रता सेनानी से कम नहीं हैं। उनके लिए भारत रत्न भी कम है। सरकार को इस दिशा में सोचने की जरुरत है।
मै घूमता जा रहा था और पल-पल से रानी ग़ैदिनल्यू के बारे में लोग बता रहे थे। एक जेमि नागा जनजाति के गाँव में गया। लोग रानी ग़ैदिनल्यू की बात करने लगे। वहाँ एक महिला मिली। नागा महिला थी। वहाँ के जेमि नागा अभी भी इसाई नहीं बने हैं। उन्हें अपने धर्म, आस्था, परम्परा, अनुष्ठान पर गर्व है। उन्हें नागा होने का गौरव है। वे आजकल राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ से भी प्रभावित हैं।

मैंने एक महिला से पूछा: “क्या संघ के लोक आपको हिन्दू धर्म में दीक्षित होने के लिए ज़िद, निवेदन या कोई प्रभाव डालते हैं?”
वह बोली: “नहीं सर। वे कहते हैं कि आप को जो अपना धर्म है उसी में रहो। यही आपका सनातन धर्म है। हिन्दू धर्म आपको मान्यता देता है। आप अपने संस्कार मत बदलो। हाँ, वे घर के आगे एक तुलसी का पौधा लगाने के लिए कहते हैं। उनका यह भी कहना है कि अगर हो सके तो गोमांस मत खाओ।” हमलोगों ने गोमांस खाना छोड़ दिया है।”

वो महिला बोलती रही और मैं सुनता रहा। कुछ देर रूककर वह फिर बोलने लगी: “ सर एक बात बताऊँ, रानी ग़ैदिनल्यू अभी भी मरी नहीं हैं। वे हमारे कर्मों की साक्षी हैं। अभी भी वे हमारे जीवन को सपना में आकर नियंत्रित करती हैं। हमने हेराका को छोड़ा नहीं हैं। अब हम लोग हरेक गाँव में महिलाओं का हेराका समूह बनाया है। सभी महिलायें उसका सदस्य बनती हैं। हम लोग महिलाओं को पढ़ाना सिखाते हैं। अपनी संस्कृति और संस्कार के बारे में जानकारी देते हैं। पुरुष बाहर का दारू ना पिए इसके लिए नियम बनाते हैं। फिर अनेक गाँव की महिला मिलकर एक जगह मिलती हैं। सभी नियंत्रण महिलाओं का होता है। पुरुष स्थानीय रात्रि विश्राम शिविर बनाने में महिलाओं को मदत करते हैं। हम एक नियमित जीवन जीने लगे हैं। महिलाये स्वयं सिद्धा समूह बना रहीं हैं। हम संस्कृति के रक्षक हैं। हम अपनी आजादी का मूल्य समझ रहे हैं। हमारा कदम महत्वपूर्ण है क्योंकि हम विकसित हो रहे हैं। पुरुष भी अब हमारा साथ देने लगे हैं।”

इस नागा महिला ने इतना तो अवश्य बता दिया कि अगर जैसा रानी ग़ैदिनल्यू चाहती थी उस तरह से नागा को अपने सांस्कृतिक धरोहर को और अपने परंपरागत धर्म को सुरक्षित और संरक्षित करने का अवसर दिया जाता तो आज नागा अलगाववाद का कहीं नाम निशान नहीं होता । नागा जीवन के अनेक पक्ष पर सोचने की जरुरत है। उनकी समस्या को उनके ह्रदय में घुसकर उनके समान सोचना है। एक एक परत को समझना है। यह रास्ता कठिन अवश्य है परन्तु समाधान भी यहीं है।
(समाप्त) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (21) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/21.html
#vss

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