Wednesday 3 August 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (21)

नार्थ कछार हिल्स: भारत का एक और स्वर्ग ~ 

नार्थ कछार हिल्स जिसका नाम अब दिमा हसाओ जिला कर दिया गया है सचमुच में धरती का स्वर्ग है। एक ऐसा स्वर्ग जो निश्छल है। यहाँ की प्रकृति और मानव दोनों अनुपम है। अगर प्रकृति का कौमार्य देखना हो तो नार्थ कछार हिल्स आ जाएँ। आप यहाँ आकर एक अलग संसार में आये हैं इस अनुभूति से मस्त हो जायेंगे। लेकिन यह क्षेत्र पता नहीं क्यों आज बहुत ही असुरक्षित क्षेत्र हो गया हैं। प्रतिदिन यहाँ अनहोनी घटना होती रहती हैं।  जब यहाँ के अनेक जनजातीय समूह के प्रतिनिधि मुझसे मिले और नार्थ कछार हिल्स के जिला मुख्यालय हाफलोंग में कुछ काम करने के लिए निवेदन किया तो मैंने निर्णय ले ही लिया कि, यहाँ काम करना है। डॉ चक्रवर्ती महोदय ने मुझे कुछ सावधानी बरतने का निर्देश देते हुए यहाँ पर कार्यक्रम करने का अनुमति दे दिया था। हमलोग पहले ही श्रीमंत शंकरदेव कला क्षेत्र के सचिव गौतम शर्मा के साथ इस ज़िले के जिला अधिकारी श्री अनिल कुमार बरुआ से, जो कि नॉर्थ कछार घाटी ऑटोनोमस काउन्सिल का पदेन प्रिंसिपल सचिव भी थे, इस सम्बन्ध में विस्तृत बातचीत कर लिया था। उन्होंने सभी तरह के  सहयोग करने का वचन दिया था। डॉ चक्रवर्ती एस पी से भी अपने स्तर से बातचीत कर लिए थे। सभी आदिवासी समूह का समर्थन तो हमें मिल ही गया था।  

अब क्या था, हमने 23 नवम्बर 2007  से 10 दिवसीय संस्कृति एवं विरासत प्रलेखन का कार्यक्रम नॉर्थ कछार घाटी के मुख्यालय हाफलौंग मे करने का प्लान बना लिया था। गुआहाटी से हाफलोंग की सड़क मार्ग से दूरी  261 किलोमीटर है । हमलोग टाटा सूमो (जीपसँ) से 22 नवम्बर को साढ़े चार बजे प्रातः गुआहाटी से हाफलौंग के  लिए चल पड़े । अन्ततः साढ़े ग्यारह बजे रात में हमलोग हाफलौंग पहुँच गए। मन मे भय तो था ही। होना भी लाज़िमी था!  हम लोगों के आने से दो दिन पहले ही हाफलोंग शहर में पाँच लोगों को गोली मार दिया गया था।

हमारे विश्राम के लिए हाफलौंग सर्किट हाउस मे व्यवस्था कर दी गयी थी । सर्किट हाउस शहर के सबसे ऊँचे स्थान पर रम्य जंगलो के सानिध्य में अंग्रेजी हुकुमत के द्वारा बनाया गया था। यहाँ खड़े होकर आप प्रकृति के सौन्दर्य और कौमार्य का  अवलोकन कर सकते हैं। इतना ही नहीं, समस्त हाफलौंग शहर एवं अगल-बगल के क्षेत्रों को भी देख सकते हैं। यहाँ रहने का मतलब है आप इस हाफलोंग शहर के आत्मा में निवास कर रहे हैं। अगर आपने इस जगह को नहीं देखा तो हाफलोंग नहीं देखा। वैसे सड़क मार्ग से गुवाहाटी से हाफलोंग आते हुए यह तो सपष्ट हो चूका था कि हम जिस भूमि पर क़दम रखने जा रहे हैं वह विशिष्ट ही नहीं अति विशिष्ठ है। 

मुझे जो कमरा मिला था वह काफी लम्बा चौड़ा था। लकड़ी का काम साफ दिखाई दे रहा था। पलंग और फर्नीचर सभी अंग्रेजों के ज़माने के बने थे जो काफी मजबूत और कलात्मक थे। उनमे रॉयल टच महसूस कर रहा था मैं। बहुत थक गया था मैं गुवाहाटी से हाफलोंग के रस्ते में। अब सोना चाहता था। कपड़े बदलकर सोने की तैयारी करने लगा। रात में भोजन नही करना है, इसके लिए मन को मना लिया था। गौतम शर्मा एक स्थानीय कलाकार के साथ आ गए। मैं उठकर बैठ गया । शर्माजी कहने लगे:  “जल्दी चलिये। भोजन तैयार है”। नार्थ  कछार हिल्स ऑटोनोमस काउन्सिल के कला एवं संस्कृति विभाग के निदेशक श्री लंगथासा महोदय भी, शर्माजी के साथ थे। उन्ही के प्रयास से संस्कृति भवन के प्रांगण मे हमलोग कार्यक्रम करने जा रहे थे। लंगथासा स्वयं दीमासा जनजाति से थे। उनकी उदारता और संस्कृति प्रेम से मैं अचम्भित था। लंगथासा कहने लगे: “हम लोगों के लिए यह गौरव का विषय है कि आप लोग दिल्ली से आकर इस उपेक्षित क्षेत्र में कार्य करना चाहते हैं जहाँ कोई भी आना तक नही चाहता। हमलोग भी आपको भरोसा दिलाना चाहते हैं कि आप लोगों के साथ संस्कृति एवं धरोहर की  रक्षा के प्रति हम भी कृतसंकल्पित हैं और कदम से क़दम मिलाकर चलना चाहते हैं। वैसे तो यहाँ असम राइफल्स, सैनिक, पुलिस आदि का  जमघट लगा रहता है, परन्तु संस्कृति और विरासत की चिन्ता किसे है? आपलोगों को कैसे धन्यवाद दूँ। "

मैं लंगथासा महोदय की ओर देखते हुए बोला: “यदि आप लोग चाहें तो हम लोग अपनी टीम के साथ इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर केँ संरक्षण एवं संवर्धन के लिए बार-बार आयेंगे।"

मेरे बात पर उत्साहित होते हुए लंगथासा महोदय बोले: “हम लोग हर तरह से सहयोग करने के लिए तैयार हैं मिश्रा सर। यहाँ के सभी अलगाववादी, सरकार विरोधी जत्था समूह कोई भी संस्कृति रक्षण और संरक्षण का  विरोधी नहीं है। सभी लोग और समूह आपके यहाँ आने के निर्णय से खुश हैं। सभी अंडरग्राउंड समूह के लोगों ने मुझे वचन दिया है कि जब तक आप लोग हाफलोंग में रहेंगे तब तक यहाँ किसी भी प्रकार की हिंसा अथवा मार काट की घटना नहीं होगी।  आपको जिस प्रकार का  स्थानीय सहयोग चाहिए, हम लोग देने के लिए तैयार हैं सर। "

अब हम लोग रात्रि भोजन के लिए चल पड़े। बहुत ही स्वादिष्ट और चटकारे वाला भोजन था-भात, मछली दाल, लौकी की सब्जी, सलाद, मिठाई, चटनी। भोजन के बाद पुनः सर्किट हाउस आ गए। 

अगले दिन प्रातः पाँच बजे उठकर बाहर आया। मनोरम दृश्य देखकर मन मस्त हो गया । सर्किट हाऊस से ऐसे लग रहा था जैसे सूर्य अपनी लालिमा लेकर लाल गेंद की तरह उदित हुए हों। हरे जंगल, कलकल करती छोटी परन्तु घुमावदार नदी का प्रवाह , दूरमे जंगलों के  मध्य आदिवासी समुदाय का छोटे-छोटे कलात्मक कुटीर, सब कुछ मनमोहक लग रहे थे। लगता था, यहीं रह जाऊं।
हमलोगों को कार्यक्रम की शुरुआत सायं छह बजे से करना था। मैंने सोचा क्यों न दिन में हाफलोंग और इसके अगल-बगल के क्षेत्र का मुआयना किया जाय। 

अब हम घूमने लगे। डर का तो अंत हो ही चुका था। हम निश्चिन्त होकर घूम रहे थे। लोगों से जाकारी ले रहे थे। सभी लोग बहुत बढ़िया से हमारी जिज्ञासा समझ रहे थे और हाफलोंग हिंदी में उसका उत्तर भी दे रहे थे। स्थानीय लोगों ने बताया कि हाफलोंग मूलतः “हंगक्लौंग” से बना है जिसका अर्थ होता है सम्पन्न और रत्नगर्भा धरती। कुछ विद्वान बता रहे थे कि हाफलोंग हफलाऊ (HAFLAU) शब्द से बना है । हफलाऊ शब्द का अर्थ उनके अनुसार वाल्मीकि पहाड़ी (Ante Hill) है।  हाफलौँग शहर का निर्माण अँग्रेज प्रशासन के द्वारा 1895 ई में बोराइल रेंज पर एक छोटे हिल स्टेशन के रूप में किया गया। प्रारम्भ में यहाँ चीड़, देवदार के लाइन में खड़े पेड़ थे, नौ छेद वाला गोल्फ कोर्स, लघु किन्तु आकर्षक और कलात्मक बंगला, हाफलौंग लेक, रेलवे के कर्मचारियों के लिए  स्टाफ क्वार्टर, छोटा बजार, रेलवे स्टेशन आदि सुविधा के साथ इस शहर का निर्माण और इसे विकसित एक हिल स्टेशन के रूप में किया गया।

अंग्रेज अधिकारियों ने, जो इस शहर और क्षेत्र को विकसित करने के लिए किया, उसकी बिना प्रशंसा किये बिना आप नही रह सकते। 36 खोह (tunnels) का निर्माण कर रेल लाइन ले जाना उस ज़माने में अर्थात 1895-98 में आसान काम नही रहा होगा! रेलवे के निर्माण कार्य से लेकर शहर तक के निर्माण के लिए ठेकेदार, मजदूर, कर्मचारी, व्यापारी आदि सभी उत्तर-प्रदेश, बिहार, बंगाल और असम के  अन्य स्थान से लाये गए थे। पुनः आपसमे वार्तालाप हेतु एक नवीन बाजारु हिन्दी विकसित किया गया । इस हिंदी का नाम  हॉफलौंग-हिन्दी  रखा गया। आज यह इसी रूप में जानी जाती है। यह हिंदी व्याकरण उन्मुक्त हिंदी है अर्थात इसमें व्याकरण को अपने हिसाब से प्रयोग कर सकते हैं। हाफलौंग हिंदी की एक विशेषता यह भी है कि इसे रोमन लिपि मे लिखा जाता है। स्थानीय विद्वानों के कठिन संघर्ष के कारण आज कल हॉफलौंग हिंदी की मान्यता साहित्य अकादमी से मिल गया है।

नार्थ कछार हिल्स अगर आप गम्भीरता से उदार होकर देखेंगे तो यह असम राज्य का बहुरंगी चुनरी है। यहाँ  निम्नलिखित एगारह जनजातियां रहती हैं:
1। दीमासा अथवा कछारी (Dimasa or Cachari)
2। ह्मार (Hmar)
3। जेमि नागा (Zeme Naga)
4। कुकी (Kuki)
5। बंइते (Baite)
6। कार्बी (Karbi)
7। खासी अथवा प्नार (Khasi or Pnar)
8। ह्रांगखल (Hrangkhals)
9। वइफी (Vaiphies)
10। खेलमा (Khelma)
11। रोंगमई (Rongmei)

कहता चलूँ कि इनमे तीन समुदाय: जेमि नागा, रोंगमई, और ह्रांगखल नागा समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इसके अलावे अन्य समुदाय, जैसे कि बंगाली, असमी, नेपाली, मणिपुरी, मुसलमान, देसवाली आदि भी यहाँ रहते हैं। अगर आप यहाँ रहेंगे तो आपको सभी समुदाय के बीच भावनात्मक एकता  देखने को मिलेगा । भारत में  अनेकता मे एकता का  स्वरूप लगा जैसे अपने मिनिएचर स्वरुप धारण कर इस छोटी धरती के खंड पर मॉडल बनकर “साथ-साथ चलना, रहना, खाना” के मूल मन्त्र को यहाँ चरितार्थ कर रहा हो।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के  अन्य शहर की तरह हॉफलौंग भी धीरे-धीरे विकसित हो रहा है। 1970 ई. में इसे जिला का  मुख्यालय बना दिया गया। आज के समय में नार्थ कछार हिल्स ऑटोनोमस काउन्सिल का मुख्यालय, विभिन्न सरकारी विभाग का दफ्तर और मकान, आवासीय परिसर, पार्क, जेल, खेल परिसर और मैदान, दो  रेलवे स्टेशन, सिविल अस्पताल, प्राइमरी से हाइयर सेकेण्डरी स्तर के विभिन्न विद्यालय, सभी  सुविधाओं से  परिपूर्ण सरकारी महाविद्यालय जिसमें कला, विज्ञान एवं वाणिज्य संकाय के अधिकांश विषयों की पढ़ाई की सुविधा सहजता से उपलब्ध है; पानी की सुविधा, डाक, टेलीग्राम, टेलीफोन, बैंक, चर्च, मन्दिर, मस्जिद, पुस्तकालय अनेक तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक क्रिया-कलापमे संलग्न संस्था; सिनेमा हॉल, बस स्टेण्ड आदि सुविधायें भी उपलब्ध है।

यदि आप रेल से हाफलौंग आना चाहते हैं तो गुआहाटी से नॉर्थ प्रन्टीयर हिल स्टेशन के मीटरगेज द्वारा लम्डींग के रास्ते लोअर हाफलौंग स्टेशन आ सकते हैं। हाफलोंग की दूरी गुआहाटी से 285 किलोमीटर है। सिलचर से बदरपुर होते हुए हिल हाफलौंग स्टेशन की दूरी 92 किलोमीटर है।

रेल बोगी में बैठकर नॉर्थ कछार हिल्स की नील पहाड़ी का अवलोकन करना स्वर्ग के अवलोकन से तनिक भी कम नहीं है। पहाड़ी धरती पर टेढ़े-मेढ़े (जीग-जैग) रास्ते नगाँव से  प्रारम्भ होकर  समस्त नॉर्थ कछार हिल्स के  उत्तर से दक्षिण दिशा मे इस ज़िले के  तीन प्रमुख नदी- माहुर, दीयूंग और जटिंगा- के साथ-साथ चलते रहते हैं और आप आनंदविभोर होते रहते हैं । एक क्षण के लिए आप अनुभव करेंगे कि पानी, रेल की पटरी और रेल यात्री का मन तीनो आपस में ताल से ताल मिलाकर गतिमान हो रहे हैं! 

उपरोक्त तीन नदियों के आलावा इस धरती में चार और छोटी मोटी नदियाँ बहती हैं। ये नदियाँ हैं: जीनाम, लंगटींग, कोपिली, डिलेयमा। सबसे बड़ी नदी दीयूंग है जिसकी लम्बाई 240  किलोमीटर है।

1866 मीटर की ऊँचाई पर अवस्थित थुंगजांग पहाड़ी सबसे ऊँचे स्थान पर है।

नॉर्थ कछार हिल्स पूर्व दिशा में नागालैण्ड और मणिपुर से; पश्चिम में मेघालय और असम का कार्बी अंगलौंग जिला से; उत्तर में नगांव और कार्बी अंगलौंग जिला तथा दक्षिण में बराक घाटी के कछार जिला से घिरा हुआ है । 4890 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला नॉर्थ कछार हिल्स की सामान्य ऊँचाई समुद्र तल से 3116 फीट है।

यहाँ के आदिवासी मूल रूप से आज भी झूम खेती करते हैं । झूम में परंपरागत तरीके से  एक भाग के जंगल-झाड़ को काटकर उसमे आग लगा देते हैं और उसके बाद खेती करते हैं । यहाँ 17,293 हेक्टेअर जमीन झूम खेतीक रूपमे लोग प्रयोग करते हैं। इस जनपद में  4529 वर्ग किलोमीटर धरती जंगल से आच्छादित है। 610.51 वर्ग किलोमीटर सुरक्षित और बाकी हिस्सा राज्य सरकार द्वारा घोषित है। तीन सुरक्षित जंगल क्षेत्र का नाम क्रमशः
(क) लांगटींग-मूपा सुरक्षित जंगल (497.55 वर्ग किलोमीटर)
(ख) कूरुंग सुरक्षित जंगल (124.42 वर्ग किलोमीटर)
(ग) बोराइल सुरक्षित जंगल (89.83 वर्ग किलोमीटर)

गुआहाटी मे कुछ मित्रों से जानकारी मिली थी कि, नार्थ कछार हिल्स में  जटींगा पहाड़ी पर चिड़ियां समूह बनाकर रात में रोशनी देखने पर रोशनी पर प्रहार करती हैं तथा सामूहिक रूप से सुसाइड या आत्महत्या कर लेती हैं । पक्षीशास्त्री इस विषय पर गहन शोध मे बहुत दिनों से लगे हुए हैं यद्यपि अभी तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं। यह रहस्य अभी तक बना हुआ है। अब वहाँ अर्थात उस स्पॉट पर रात्रि में रौशनी जलाना प्रतिबंधित हैं।  इस बात की सत्यता जानना चाहता था।  गुआहाटी में ही सोच लिया था कि इस पहाड़ी पर अवश्य जाऊँगा । आज यह अवसर लंगथासा महोदय की कृपा से मिल गया था। हम लोग तुरत उनलोगों के साथ जटींगा के लिए चल दिए।

जटींगा पहाड़ी और गाँव के रास्ते में विभिन्न प्रकार के  बेंत की झाड़ी और बांस देखकर मन प्रफुल्लित था। नॉर्थ कछार हिल्स के कुल धरती (489000 हेक्टेअर) में लगभग 307900 हेक्टेअर में बांस है । बांस अनेक प्रकार के अनेक प्रजाति के हैं।  असम प्रदेश में 33 प्रजाति के बांस होते हैं जिसमे लगभग 20 प्रजाति इस क्षेत्र में पाए जाते हैं। बांस की प्रमुख प्रजातियों में  काको/ पीछा वा पीछा, जाति, डालू, मूली, हिलजाति, कता, मकालू, काली-सूण्डी, टेराई आदि नाम ऐसे हैं जो यहाँ के सामान्य लोग भी जानते हैं । बांस इस क्षेत्र के लोगों के जीवन का  प्रमुख आधार है। इसका प्रयोग झोपड़ी, जाफरी, इंधन, पूल आदि बनाने के लिए किया जाता है । बांस का प्रयोग सब्जी, अचार, फेर्मेंट करके भोज्य सामग्री, सलाद अदि में भी लोग करते हैं। बांस के बने गिलास और कप एवं मग का प्रयोग चावल, मकई, आदि से बने स्थानीय दारु पिने के लिए लिए किया जाता है ।इसके अलावे बांस का प्रयोग बर्तन, फर्नीचर, कृषियन्त्र एवं उपकरण, धनुष-वाण, कलात्मक वस्तु, हस्तकला, बत्ती, सीढ़ी इत्यादि में होता है । बांस से ये आदिवासी अनेक वाद्ययंत्रों का भी निर्माण करते हैं। 

अन्ततः हम लोग जटींगा गाँव पहुँच गए ।  जटींगा बोराइल रेंज के पादगिरि (foothills) पर बसा हुआ है। यह पहाड़ी तरह-तरह के प्रवासी एवं देशी चिड़ियों का विश्राम-स्थली है। इस स्पॉट या स्थान पर सितम्बर-अक्टूबर महीनें में पक्षी सब कृष्णपक्ष के रात में किसी भी प्रकार की रौशनी जैसे की टॉर्च, मशाल आदि देखकर  झुण्ड के झुण्ड में आकर गिरने लगते है या यों कहें कि आत्महत्या करने लगते हैं। जटींगा गाँव हॉफलौंग शहर से आठ किलोमीटर की दूरी पर । स्थानीय लोगों से जानकारी मिली की कृष्णपक्ष के समय गहन अँधेरी रात में रौशनी देखकर चिड़ियाँ अपने आँखों की रौशनी चकाचौंध में खो लेती हैं और उनका सतुलन बिगरने लगता है जिसका फायदा उठाकर शिकारी लोग बांस या बेंत से प्रहार कर उन लाचार पंक्षियों को पकड़ लेते हैं।

कृष्णपक्ष की रात और एक निश्चित वातावरण का होना भी पक्षियों के सामूहिक आत्महत्या का कारण बन जाता है । यह कारण है हवा के बहने की दिशा। हवा अगर दक्षिण-पश्चिम से  उत्तर-पूर्व में बह रही है तो सही है । बोराइल पहाड़ी के अगल-बगल में धूंध और शीत का लगना भी जरुरी है। धूंध में अगर झलफलते रोशनी है तब तो ठीक है । ऐसी स्थिति में जब दक्षिण दिशा से धुंध चलने लगता हैं तब चिड़ियों का दल जटिंगा  की ओर उड़ने लगते हैं। सामूहिक आत्महत्या करने वाले पंक्षियों में लाली चिड़िया (Indian ruddy), कौड़िल्ला (King fisher), भारतीय नौरंग (Indian pitta), हारिल, ब्लैक ड्रोंगो, सफ़ेद बगुला, चितकबरी पौरकी, बटेर आदि प्रमुख है।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि  आत्महत्या करने वाली चिड़ियों में अधिकांश देशी चिड़ियाँ हैं  प्रवासी चिड़ियाँ इन घटनाओ के शिकार नहीं होते । स्थानीय लोगों ने यह भी बताया कि यह प्रवृत्ति समस्त जटींगा पहाड़ी में नहीं हैं। मात्र डेढ़ किलोमीटर की लम्बाई और 200 मीटर  चौड़ाई की सीमा में इसका पीक पॉइंट है।

जटींगा गाँव के  एक पच्चासी बर्ष के प्नार (खासी) जनजाति के बुजुर्ग  के मुताबिक चिड़ियाँ जटींगा में कृत्रिम रोशनी से सामूहिक आत्महत्या करती हैं इस बात की जानकारी सर्वप्रथम 1914 ई के आसपास पता चला। कहते हैं कि एक रात किसी का चार-पांच बैल जंगल की ओर भाग गया। बैल के मालिक को लगा कि अगर बैल को रात में ही नहीं पकड़ा गया तो बाघ शेर या अन्य हिंसक जानवर उन्हें मार कर खा सकते हैं। इसीलिए पाँच आदमी एक टोली बनाकर बांस के लट्ठ  में कपड़ा लपेट उसमे मिट्टी तेल उड़ेल कर उसका मशाल बनाकर और हाथ में लालटेन लेकर रात में ही बैल की खोज में जंगल में चल पड़े । थोड़ी देर में वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि चिड़ियाँ झुण्ड में आकर मशाल के सामने गिरने लगी। परन्तु इन लोगों ने उन पक्षियों को नहीं पकड़ा । अब प्रश्न यह उठता है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? स्थानीय जेमि नागा समुदाय (जनजाति) में यह भ्रान्ति फैला था कि जटींगा क्षेत्र में रात को भूत-प्रेत  पक्षी के वेश में विचरण करते रहते हैं। उन लोगों को भय इस बात का हुआ कि पक्षियों के पकड़ने से उनका कोई अनिष्ट न हो जाय।

1917 ई के आसपास लाखन-सारा नामक एक व्यक्ति कृत्रिम रोशनी से चकमा खाकर गिरे पंक्षियों को पकड़ घर लाया और उसका मांस भूजकर खा लिया। संयोग से इसका कोई भी दुष्प्रभाव नही हुआ। इसके बाद चिड़ियों का जीवन दूभर हो गया। लोग कृष्णपक्ष में  रात्रि में कृत्रिम रोशनी की मदत से चिड़ियों का शिकार करना और उनका संहार करना शुरू कर दिए। हालाँकि जब अंग्रेज प्रशासन को इस बात की जानकारी मिली तो उन्होंने इस परंपरा पर रोक लगा दिया।

स्वतन्त्रता प्राप्तिक बाद लोक पुनः नुका-चोरी लोगों ने शिकार करना शुरू कर दिया। अब  पर्यावरणविद्, पक्षीशास्त्री, पत्रकार एवं अन्य लोगों के अथक प्रयास के कारण प्रशासन ने पुनः कृत्रिम रोशनी से चिड़ियों को मारने की प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। मैं उस स्पॉट पर गया । वहाँ पर हमें रंग विरंगी चिड़ियों के आकर्षक फोटो टंगे हुए मिले । एक मूल वाक्य जो अन्तस् को भा गया वह यह था: 
“SHOOT THESE BIRDS WITH YOUR CAMERA, NOT WITH BULLETS."

अब शाम हो गया था। हम लोग जटींगा से सर्किट हाउस आ गए । कुछ ही क्षण में तैयार होकर कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गए। वहाँ  पाँच हजार लोग उपस्थित थे। सभी जनजातियों के स्त्री, पुरुष, बच्चे, बुजुर्ग अपने-अपने सामुदायिक वस्त्र और गहनों से सुसज्जित थे।  प्रशासन से सहयोग तो मिल ही रहे थे। डिप्युटी कमिश्नर, नॉर्थ कछार हिल्स ऑटोनोमस काउन्सिल के चेअरमेन, सदस्य, प्रमुख सचिव, एस.पी., स्थानीय कॉलेज शिक्षक एवं छात्र सभी उपस्थित थे । स्थानीय पत्रकार अलग ही उत्साह दिखा रहे थे।

सभी अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहे थे। मैं सोचने लगा कैसी विडम्बना है। जो क्षेत्र सांस्कृतिक सम्पन्नता का  खान है उसका ऐसा अपमान! मुख्यधारा से इस क्षेत्र को वंचित क्यों किया गया है! मैंने अनुभव किया कि समस्त विश्वमे नॉर्थ कछार हिल्स से शान्त और  सांस्कृतिक वैविध्य से भरा कोई जगह हो ही नहीं सकता। मैंने अपने भाषण में कहा: “हम लोग आपको सिखाने के लिए नहीं आये हैं । हम लोग आये हैं आपको जाग्रत करने के लिए कि आप लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत, वैविध्य और गरिमा को समझे, उसका सम्मान करें, और उसको जिवंत रखें। मरने न दें अन्यथा आनेवाली पीढ़ी आपको माफ़ नहीं करेगी। हम लोग आये हैं आपकी सांस्कृतिक विरासत को समझने, उसको डॉक्यूमेंट करने के लिए । अगर आप लोग सहयोग करते रहे तो मैं वादा करता हूँ कि बार-बार आऊंगा ।  हमारे कार्यक्रम और एक्शन में कौमा (,) या अर्धविराम हो सकते हैं, पूर्ण विराम कभी नही होता”।

पहले दिन का कार्यक्रम लगभग साढ़े-नौ बजे रात तक चला । रात मे भोजन के उपरान्त विश्राम करने गया तो एक स्थानीय विद्वान का दिया पुस्तक पढ़ने लगा। पुस्तक नॉर्थ कछार हिल्स पर है । इस पुस्तक में रातु हकमओसा नामक स्थानीय कवि के नॉर्थ कछार हिल्सपर लिखित चन्द पंक्ति मन को भा गया। उन पंक्तियों को आपसे भी बाँट लेते हैं:
A harmonious game of hide and seek
Behind the bushes, marshy meadow
Under shadow with clouds view,
Ever ready for worthwhile, cherish at dawn,
The blues make enchanting heart of lovers
Midst of covers white
Changing scene that lively for romance
Beauty and bounty of brooks that flow.
Moments of joy, love to cherish
Insight the harmony game of hide and seek
Behind thick trespasses of white and blue
With narrow path of zig-zag.
The beauty of hills under cover
Orchids, white fall, violet at hills
Every moment thrilled with behalf
Nature disposal at North Cachar Hills

अपनी लेखनी को विराम देने से पहले इतना जरुर कहूँगा कि आपने शिमला, नैनीताल, श्रीनगर और न जाने कहाँ-कहाँ देखे होंगे; अगर सच में स्वर्ग देखना चाहते हैं तो एकबार हाफलोंग चले जाइए। भारत का स्वर्ग वहीँ हैं। वहीँ हैं। वहीँ है।
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (20) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/08/20.html 
#vss

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