Wednesday 3 August 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (20)

संगाईप्रो – मणिपुर के काबुई नागा का विशिष्ट गाँव ~

जो बाहर से दिखता है कभी - कभी वैसा बिलकुल नहीं होता है। जब आप मणिपुर की राजधानी इम्फाल एयरपोर्ट से शहर की ओर चलेंगे तो, तीन किलोमीटर पर एक शहरी गांव मिलेगा। इस गांव का नाम है संगाईप्रो। यह गांव अर्थात संगाईप्रो, काबुई नागा का गांव है। इस गांव का बहुत प्राचीन इतिहास नही है। इसमें काबुइ नागा के अनेक गोत्र के लोग रहते आ रहे हैं। 

अगर आप इस गांव अर्थात संगाईप्रो जाएं और इनके बुजुर्गों से इत्मीनान से बातचीत करें तो, इस गांव और यहां के लोगों के बारे में विस्तार से बहुत कुछ समझ पाएंगे। कहते हैं कि अनेक पहाड़ी नागा (काबुई) गांव के पूर्वजों ने धान की खेती और बाजार से संपर्क साधने के लिए एक कैंप के रूप में इस गांव का निर्माण किया। मतलब मैदानी क्षेत्र में कैंप विलेज जहाँ धान की खेती सहजता से किया जा सकता था। धान की खेती के समय वे लोग अपने-अपने परिवार से कुछ पुरुष और महिलाओं को यहां छोड़ जाते थे। वे लोग अगल बगल के खेत में धान की खेती करते। खेत और फसल को जंगली जानवरों से रक्षा करते और जब धान घर आ जाता तो उसको लेकर अपने-अपने मूल गांव में चले जाते। धान के साथ मसाला, नमक एवं अन्य जरुरी सामान भी ले जाते थे। समय बदलता गया। समय स्थिर भी भला कब रहता है! धीरे धीरे इसाई मिशनरी के संपर्क में आकर ये लोग इसाई धर्म स्वीकार कर लिए। इस गाँव में एक चर्च भी बना दिया गया। अब धीरे-धीरे जो लोग यहाँ थे वे सभी यहीं रह गए। और जो कभी कैंप गाँव हुआ करता था वह एक स्थाई गाँव हो गया। इस गाँव में वैविध्य बढ़ गया। अब यह गाँव अनेक काबुई नागा का एक समेकित गाँव बन गया था। लोगों में प्रेम और भाईचारे का अद्भुत माहौल दिखने लगा। सभी लोग स्कूल जाने लगे। सभी लोग चर्च जाने लगे। अब ये इसाई अधिक होते गए। परंपरागत नागा धर्म और संस्कार को भूलने लगे। खेती तो कर ही रहे थे। अपने-अपने पहाड़ी गांवो से अभी भी जुड़े थे। पहाड़ी गाँव के लोग भी इसाई बन चुके थे। यहाँ शहर में इन्हें नौकरी भी मिलने लगी। 

लेकिन सब कुछ अच्छा नहीं हुआ। इम्फाल शहर में ये लोग देशी छांग भूलकर शराब पीने लगे। युवक अधिकांश टैक्सी आदि चलाते थे। ये लोग शराब के लत में डूबते चले गए। परिणाम भयावह होने लगा। 30 से 45 साल की अवस्था में लोग शराब के कारण आंत एवं अन्य बिमारियों से मरने लगे। महिलाएं विधवा होने लगी। बच्चे अनाथ होने लगे। मरने के पहले बीमार होकर इलाज करवाने में लोग पहले ही कर्ज में डूबने लगे। सर्वत्र हाहाकार होने लगा। गाँव धीरे-धीरे विधवाओं से भरने लगा। इसका समाधान होना जरुरी था ये सभी समझ रहे थे। लेकिन कौन आगे आये? क्या समाधान हो? 

संगाईप्रो गाँव के लोग विशेषकर महिलायें बहुत चिंतित थीं। उनका चिंतित होना लाज़िमी था। फ़िर एक विचार आया कि एक संस्था का निर्माण किया जाए। गाँव का हरेक घर उससे जुड़े। संस्था बन गयी। अब आगे क्या हो? हुआ एक पुस्तकालय बने। पुस्तकालय के लिए गाँव के लोगों ने एक जमीन का टुकड़ा खरीद लिया। कुछ दिन के बाद एक संस्था वहाँ आई। गाँव के लोगों ने संस्था के अधिकारियों से अपनी समस्या का बयान किया। संस्था और गाँव के लोग मिलकर पुस्तकालय का भवन बनाने लगे। हर घर से मदत आने लगा। जो महिलाएं नगद नही दे सकती वे प्रतिमाह एक या दो किलो चावल देती। उस चावल को बेचकर पैसा पुस्तकालय के निर्माण में लगा दिया जाता। इस तरह से देखते-देखते पुस्तकालय बनकर तैयार हो गया। पुस्तकालय में पुस्तक, डीवीडी, कंप्यूटर डाले गए। पुस्तक तो थे ही। स्कूल के पाठ्यक्रम के पुस्तकों को भी रखा गया। सभी लोगों को कुछ न कुछ पुस्तक लाने की जिम्मेदारी दी गयी। महिलाओं के लिए प्रशिक्षण केंद्र खोले गए। वहाँ उन्हें, सिलाई, कढाई, परम्परागत शाल बुनाई आदि के प्रशिक्षण दिए जाने लगे। उनके छोटे बच्चो के लिए एक चिल्ड्रेन एक्टिविटी केंद्र बनाये गए जहाँ बच्चो के लिए खिलौने, साइकिल, टेलीविज़न आदि रखे रहते थे जिससे जब उनकी माताएं प्रशिक्षण ले रही होती तब बच्चे उन कार्यों में प्रसन्न रहें। इस तरह से बच्चो का मानशिक विकास भी होने लगा। यह नूतन प्रयोग उत्तम प्रयोग होने लगा। बुजुर्गों के लिए बाइबिल, अन्य धर्मग्रन्थ, एवं नियमित दो अख़बार मँगाए जाने लगे जिससे वे अपना समय व्यतीत कर सकें। स्कूल और कॉलेज में पढ़ रहे लड़के और लड़कियों के लिए कंप्यूटर, इन्टरनेट की सुविधा, प्रतियोगिता की परीक्षा के लिए पुस्तक, गाइडबुक, ऑडियो विसुअल मैटेरियल्स, आदि उपलब्ध कराये गए थे। 

कुछ महिलाओं को फ़ूड प्रोसेसिंग का भी प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा। 5 लडके और 5 लड़कियों को मार्केटिंग नेटवर्किंग, लीडरशिप, एंटरेप्रयूनेर्शिप का प्रशिक्षण भी दिया गया। इन सभी कार्यों में चर्च की ओर से भी मदत मिलने लगे। एक नये वातावरण का निर्माण होने लगा। महिलाओं का एक समूह बनाया गया जिसमे सभी महिलाओं को यह प्रशिक्षण दिया जाने लगा कि वे शुरू से ही अपने बच्चो को खाशकर लड़कों को शराब पीने के दुर्गुण की जानकारी देना शुरू कर दें। महिलाओं ने इस योजना को मिशन मोड पर लेना शुरू किया। हरेक रविवार को चर्च में प्रार्थना की समाप्ति पर इस बाबत किये गये कार्यों पर बृहत् चर्चा की जाती। 

इस बात पर पूरे गाँव के लोगों को प्रशिक्षित किया जाता कि सड़क पर, पार्क में न थूकें, पान खाकर गंदगी न फैलाएं, बीडी सिगरेट अथवा किसी भी तरह का धूम्रपान न करें, सड़क पर एवं सड़क के किनारे गंदगी न फेंके। मैं अंत में संगाईप्रो जनवरी 2000 में गया था। अभी भी लोग सफाई को अपना दैनिक जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं। मैंने पूरे गाँव के सड़क, सड़क के दोनों ओर, पार्क, घरों के दीवार कहीं भी किसी तरह की गंदगी नही देखा। कहीं दुर्गन्ध नही। दिल्ली जैसे महानगरों के लोगों को वहाँ जाना चाहिए और सिमित साधनों में सफाई कैसे रखा जाता है, यह उनसे सीखना चाहिए। आप उनके वस्त्र, उनके शरीर, उनके बोलने के अंदाज देखें, आपको लगेगा, ये लोग ही रोल मॉडल हैं। उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं हम और आप जो अपने आप को बहुत सभ्य, सुशिक्षित होने का दंभ पालते हैं। 

कहता चलूँ कि जब मैं मणिपुर में कार्य कर रहा था तो वहाँ के विद्वानों ने बताया कि मणिपुर में सबसे पहले प्रजातंत्र की स्थापना की गयी। उसका जीवंत प्रमाण मुझे एक बार मिला। कैसे? हुआ यह कि एकबार जब मैं संगाईप्रो गाँव में काम कर रहा था तो देखा कि एक व्यक्ति विधानसभा का चुनाव लड़ रहा था। वह उस गाँव लोगों से अपने लिए वोट मांगने आया था। गाँव के लोग – स्त्री और पुरुष सभी एक पंक्ति में खड़े थे। सभी अपने हाथो में चावल, नकद राशि एवं कुछ अन्य सामान लेकर उस कैंडिडेट के समीप जा रहे थे। उसके पास जाकर उसके सामने विनम्रता से चावल, पैसे एवं अन्य सामग्री उसको देते। वह लेता जाता और सभी सामान को वहीँ एकत्रित करते जाता। जब सभी ने अपना-अपना सामान दे दिया तो वह उन्हें अपने साथ आये प्रतिनिधि को कहकर अपनी गाडी में डाल देता। मेरा जिज्ञासु मन इसका कारण ढूंढने लगा। गाँव के एक बुजुर्ग ने मुझे बताया कि हमलोग इस परम्परा का पालन अनन्त काल से करते आ रहे हैं। चावल, पैसा एवं अन्य सामग्री देने का मतलब है कि यह नेता हमलोगों के कल्याण के लिए चुनाव लड़ रहा है । इसको अगर हमलोग आर्थिक और समाजिक तौर पर मदत नहीं करेंगे तो यह कहाँ से धन लाएगा? या तो अपनी सम्पति बेच लेगा, या चुनाव हार जायेगा या गलत तरीके से धन संचय करेगा। 

मुझे लगा, काश पूरे भारत के नेता इसी परम्परा का पालन करते तो चुनाव आयोग को किसी भी तरह का नियम उपनियम बनाने का जरूरत नही पड़ता। 

हम अपनी बात कहते हुए अनेक प्रसंग को एक साथ जोड़ने लगते हैं। जोड़ना भी अनिवार्य है। सूत्र और संदर्भ को तो एक साथ पिरोना ही होगा। अब आते हैं शराब की लत और असमय मृत्यु पर। बच्चों के अनाथ होने की घटना पर और महिलाओं को असमय विधवा होने की विवशता पर। जिस संस्था ने इनके लिए कार्य शुरू किया था उस संस्था की चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर के लिए बार-बार मणिपुर जाना और वहाँ काम करने से अधिक सहज यह था कि दिल्ली के अगल-बगल काम करे। और भी बहुत कारण थे जिसके चलते यह परियोजना बीच में ही दम तोड़ने लगी। यह उत्तरपूर्व भारत के अधिकांश सुदूर और दुर्लभ क्षेत्र के साथ होता है। बाहर के लोग दंतकथा गढ़ लेते हैं कि वहाँ स्थानीय सहयोग नहीं मिलता। लोग अच्छे नहीं हैं। स्थान दुर्गम है। बार-बार कौन जाए। उनकी बात को उनके जैसे ही लोग सुनते हैं और असत्य को सत्य मान लेते हैं। मुझे बहुत लोग पूछते रहते हैं: “कैलाश जी आपको नागालैंड, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश जाते और लोगों के साथ रहते डर नही लगता?” उनका प्रश्नवाचक चिन्ह बहुत खतरनाक होता है! जब मैं उन्हें कहता हूँ: “डर किस चीज का? वे तो संसार के सबसे उन्नत और मधुर मानव और मानवी हैं। आप डर कह रहे हैं, मैं तो उनके साथ सबसे अधिक सुरक्षित अनुभव करता हूँ। मैं उनके साथ उनके जैसा हो जाता हूँ। वे मुझे गैर नहीं समझते, अपना समझते हैं। वे मेरा हिफाजत करते हैं। वे मेरे बंधू, बांधवी, सखा, मित्र सब हैं। उनसे डर कैसा?” 

आपको मालुम है कि समस्त भारत में मणिपुर राज्य ही ऐसा है जहाँ जिला छोड़ दीजिये ब्लाक स्तर पर महिलाओं के लिए अलग बाजार की व्यवस्था है जिसे एमा मार्केट अथवा माँ बाजार कह सकते हैं। यह क्या है? यहाँ केवल महिलाएं ही अपना समान बेच सकती हैं। पुरुष खरीद सकते हैं लेकिन दुकान नही लगा सकते। कभी अगर मणिपुर जाने का अवसर मिले तो एमा मार्केट जरुर जाइए आपको लगेगा कि भारत वर्ष में महिलाओं का अगर सर्वोच्च सम्मान कहीं है तो यहीं हैं, यहीं हैं। प्रमाण देता हूँ जिससे आप मेरे कथ्य की प्रमाणिकता के साथ मेरी लेखनी को पढ़ें। 

बात माताओं की कर रहे थे तो इतना कहना अनिवार्य समझता हूँ कि महिलायें आगे आ रही हैं। शराब के विरुद्ध बिगुल बजा चुकी हैं। लेकिन अभी यात्रा लम्बी है। उन्हें अनेक समस्याओ को झेलना है। उन्हें अनेक संस्थानों से सरकार से मदत की आवश्यकता है। उनके विश्वास अटल हैं। वे जानती हैं कि उनका संघर्ष कठिन अवश्य है, यह समय लेगा लेकिन असंभव नहीं हैं।
संगाईप्रो की काबुई नागा महिलाओं को नमन। उनके युवको की जय। 
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र 

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (19) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/19.html 
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