Tuesday 14 September 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (9)

“मुझे ताज्जुब होता जब हुक्का गुड़गुड़ाते गाँव वाले भी कहते कि जापान की रूस पर जीत हुई, अब दुनिया की हवा बदलने वाली है”

- सी. एफ. एंड्रूज (बीसवीं सदी की शुरुआत में)

आज जो भी आधुनिकता या प्रगतिशीलता हम अपने आस-पास देखते हैं, उसके बीज भारतीय नवजागरण में ही हैं। इस नवजागरण में कार्ल मार्क्स का कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था। ऐसा नहीं कि उन्हें लोग जानते नहीं थे। बल्कि, न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून में पहले 1857 विषयक लेख कार्ल मार्क्स ने ही लिखने शुरू किए, जो ‘भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम’ (First war of Indian Independence) नाम से प्रकाशित हुआ। 

लेकिन, राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, ईश्वरचंद्र विद्यासागर या नारायण गुरु सरीखों पर कार्ल मार्क्स का कोई प्रभाव नहीं। चाहे वह मूर्ति-पूजा का विरोध हो, विधवा-विवाह हो, या साहित्यिक-वैज्ञानिक चेतना हो, वह मार्क्सवाद से पुरानी चीज है। वह पूरा फ़ार्मूला भारतीय जमीन पर, भारतीय व्यक्तित्वों द्वारा, भारतीय समाज में तैयार हुआ। अगर यह आज वामपंथी प्रगतिवाद कहा भी जाए, तो यह विदेशी आयातित नहीं बल्कि स्वदेशी वामपंथ था।

दूसरी बात जो नज़र आती है कि बंगाल, महाराष्ट्र या आंध्र में यह ऊँची जातियों के पढ़े-लिखे सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा शुरु हुआ। जबकि केरल और तमिलनाडु में यह निचली जातियों के व्यक्तियों द्वारा भी शुरू हुआ। इस कारण दोनों का पैटर्न कुछ अलग दिख सकता है। बंगाल में भद्रलोक सुधारों पर बल दे रहे थे, लेकिन आमूल-चूल परिवर्तन नहीं चाहते थे। स्वामी विवेकानंद ने एक साक्षात्कार में जाति-व्यवस्था से उस वक्त छेड़-छाड़ न करने को कहा, हालाँकि उसे यह एक समस्या मानते थे। ब्रह्म समाज के प्रगतिवादी होने के बावजूद उसमें निचली जाति का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। ब्राह्मणों और कायस्थों का ही वर्चस्व था। 

जबकि दक्षिण में जाति-प्रथा के उन्मूलन की बात और मंदिरों में निचली जातियों के प्रवेश चल रही थी। इसके सुधारक भी निचली जातियों से थे, तो यह स्वाभाविक नज़र आता है। महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले का उदाहरण लें, तो उनके सुधारक जीवन का ‘ट्रिगर’ वह समय कहा जाता है जब एक ब्राह्मण मित्र के विवाह में शामिल होने पर उन्हें अपशब्द कहे गए। वहीं नारायण गुरु अपने ‘एझवा’ समाज को लेकर चिंतित थे। यह निजी समाज की लड़ाई ही संपूर्ण समाज के सुधार की ओर बढ़ती गयी।

इस तरह हिंदू धर्म में एक साथ कई समानांतर समाज तैयार हो रहे थे। सबसे पहले आया राजा राममोहन राय का ब्रह्म समाज (1828), जिसमें टैगोर परिवार जैसे कई सम्भ्रांत परिवार जुड़े। आंध्र के वीरेशलिंगम भी इसी समाज से थे। उसके बाद आया केशव चंद्र सेन का प्रार्थना समाज (1867), जिसमें महाराष्ट्र के महादेव गोविंद राणाडे और आर जी भंडारकर जैसे सम्मानित लोग जुड़े। स्वामी दयानंद सरस्वती का आर्य समाज (1875) उसके बाद आया। उसके बाद विवेकानंद का रामकृष्ण मिशन (1897) और नारायण गुरु के मठ (1903) स्थापित हुए। ये सभी हिंदू धर्म को एक नए आधुनिक चश्मे से देख रहे थे, और इसमें कुछ सुधार चाहते थे।

अब मैं अगले महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर बढ़ता हूँ। जब हिन्दू समाज का नवजागरण हो रहा था, तो मुसलमान समाज क्या कर रहा था? क्या वहाँ भी समाज की कुरीतियों पर प्रश्न उठ रहे थे? क्या उन पर भी ब्रिटिश शिक्षा का प्रभाव हो रहा था? क्या एक आधुनिक भद्रलोक मुसलमान भी तैयार हो रहे थे? अगर अधिक स्पष्ट रूप से कहा जाए, तो क्या उन्हें भी अपनी मुसलमान श्रेष्ठता जागृत करने की इच्छा हो रही थी, जिसके बल पर उन्होंने हज़ार वर्ष राज किया था? या वे स्वयं को ब्रिटिश ईसाईयों और हिन्दू नवजागरण के समक्ष छोटा महसूस कर रहे थे? क्या इस रिनैशाँ ने ही एक नए मुल्क पाकिस्तान के बीज रोपने भी शुरू कर दिए थे? 

जब दयानंद सरस्वती हिन्दुओं को वेदों की ओर लौटने कह रहे थे, उससे पहले ही सैयद अहमद बरेलवी मुसलमानों को पुन: मोहम्मद की ओर लौटने की बात कर रहे थे। मुसलमान समाज में भी एक साथ कई समाज खड़े हो रहे थे। वहाबी, देवबंदी, तबलीग़ी, अहमदिया अपने-अपने ढंग से कुरान की समझ बना रहे थे और स्थापनाओं को तोड़ रहे थे। इन धार्मिक जमातों से अलग और अधिक महत्वपूर्ण, मुसलमानों की अपनी अंग्रेज़ियत की नींव भी डल रही थी। अलीगढ़ में एक कॉलेज का निर्माण हो रहा था।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/8.html
#vss

No comments:

Post a Comment