Wednesday 15 September 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (11)

मुसलमानों का नवजागरण हों या हिन्दुओं का नवजागरण, दोनों का काल-खंड मेल खाता है। वह मेल खाता है प्लासी के युद्ध (1757) के एक सदी बाद 1857 में अंग्रेज़ों की पक्की स्थापना से। ये नवजागरण दोनों भारतीय समुदायों पर अंग्रेज़ों के प्रभुत्व का परिणाम थे। दोनों ही समुदाय आत्म-विश्लेषण में जुट गए, कि ग़लती कहाँ हो गयी। यह कोई इत्तिफ़ाक़ नहीं कि एक साथ इतने धर्म समाज और इस्लामी जमात एक ही समय उठ खड़े हुए। यह एक कारण भी रहा कि अंग्रेज़ सत्ता के बावजूद ईसाई मिशनरी न हिन्दुओं को अधिक लुभा पाए, न मुसलमानों को। इस प्रतिक्रिया ने भारत में तमाम धार्मिक मिशनरी पैदा कर दिए, जो पहले उस संगठित रूप में मौजूद नहीं थे।

जब पंजाब में दयानंद सरस्वती घूम-घूम कर शुद्धिकरण (घरवापसी) की मुहिम कर रहे थे और ईसाई मिशनरी भी सक्रिय हो रहे थे, तो इसकी प्रतिक्रिया सिखों और मुसलमानों, दोनों में देखने को मिली। अकाली आंदोलन जैसे राजनैतिक-धार्मिक पुनर्जागरण की चर्चा यहाँ नहीं करूँगा, क्योंकि उसे एक सांस्कृतिक नवजागरण की तरह नहीं देखा जा सकता। लेकिन, मुसलमानों में जन्म ले रहे स्वघोषित सुधारकों की बात करता हूँ।

सर सय्यद अहमद ख़ान इस्लाम में आधुनिक (अंग्रेज़ी) शिक्षा और विज्ञान की वकालत कर रहे थे, लेकिन धर्म के मूल से उनका विरोध नहीं था। न ही वह इस्लाम के अंदर एक अलग जमात बनाना चाहते थे। वह सिर्फ़ यह चाहते थे कि मुसलमान मदरसों से निकल कर कॉलेज आएँ, और नयी दुनिया में जीयें। 

उनसे पूर्व रायबरेली के शाह सय्यद अहमद बरेलवी (1780-1831) की सोच भिन्न थी। वह ‘तरीक़ा-ए-मुहम्मद’ यानी पैग़ंबर के तरीक़े की ओर लौटने कह रहे थे। वह भटके हुए इस्लाम को राह पर लाकर उसके रूढ़ रूप में लौटाना चाह रहे थे। उन्हें एकजुट कर फिरंगियों के ख़िलाफ़ बंगाल में जिहाद छेड़ना चाहते थे।

उसके बाद जन्मे देवबंदी जमात (1866) और बरेलवी जमात (1904) भी अपने-अपने ढंग से इस्लाम को पुन: मुहम्मद की ओर निष्ठा से लौटने पर बल दे रहे थे। यह धार्मिक एकजुटता तो ला रही थी, और उनका कॉकस भी बढ़ रहा था, लेकिन इससे सांस्कृतिक नवजागरण कितना हो रहा था, इसमें संदेह है। विडंबना यह थी कि दोनों ही जमात एक-दूसरे की प्रतिक्रिया में खड़े हुए थे, और कालांतर में दोनों एक-दूसरे के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी करते रहे। जहाँ देवबंदी वहाबी मानसिकता के रूढ़ इस्लाम का झंडा उठाते, बरेलवी कुछ सूफ़ी मान्यताओं को सम्मिलित करते।

लेकिन, इनमें से किसी भी जमात ने कुरान या पैग़म्बर की सत्ता पर प्रश्न नहीं उठाया था। किसी ने यह नहीं कहा था कि मैं ही पैग़म्बर हूँ। 

यह शुरुआत हुई गुरदासपुर (पंजाब) के कादियानी इलाके के मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद से। उन्होंने 1889 में एक जमात की स्थापना कर स्वयं को पैग़म्बर का एक रूप (अवतार) घोषित कर दिया, और ‘बराहीन-ए-अहमदिया’ नामक पुस्तक लिख दी। इस्लाम में कभी पहले अवतार की परंपरा नहीं थी, और यह मान्यता थी कि पैग़म्बर के बाद कोई दूसरा मसीहा होगा भी नहीं। और-तो-और उन्होंने स्वयं को कृष्णावतार भी कहा। यह जमात पंजाब में ईसाई मिशनरी और आर्य समाज द्वारा चल रहे धर्मांतरणों/शुद्धिकरणों की प्रतिक्रिया मानी जाती है।

यह समुदाय बाद में अहमदिया या कादियानी कहलाया, और मिशनरियों की तरह धर्म-प्रचार कर देश-विदेश में तेज़ी से फैलने लगे। आज वे दो सौ से अधिक देशों में फैले हुए हैं। उन्होंने जिहाद का विरोध किया, और आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा पर बल दिया। उनसे जुड़ने वाले या उन्हें पसंद करने वाले कई रसूखदार पढ़े-लिखे मुसलमान थे, और उनकी व्यापारिक मानसिकता भी बेहतर कही जाती थी। मुसलमानों में पहला भौतिकी का नोबेल भी उन्हीं के समुदाय के अब्दुस सलाम को मिला। लेकिन, उन्हें मुसलमान मानता कौन? पैग़म्बर मुहम्मद के बाद पैग़म्बर ‘अहमद’ का तर्क किस तरह सर्वमान्य होता? पाकिस्तान निर्माण में बड़ी भूमिका निभाने के बाद भी उन्हें न पाकिस्तान में मुसलमान का दर्जा प्राप्त है, न उन्हें हज पर जाने की इजाज़त है।

एक आखिरी समुदाय का ज़िक्र कर यह खंड समाप्त करता हूँ। यह मेवात इलाके के मौलाना मुहम्मद इलियास द्वारा शुरू किया गया, जहाँ मेव समुदाय के मुसलमान रहते थे जो स्वयं को हिन्दुओं (राजपूतों) का वंशज मानते थे। वे शादियों में फेरे लेते थे और शिव की आराधना भी करते थे। आर्य समाज के शुद्धीकरण मुहिम का निचली जाति के मुसलमानों और इस तरह के समुदायों पर प्रभाव था। कुछ मुसलमान पुन: आर्य समाजी हिन्दू बनना चाह रहे थे। इसकी प्रतिक्रिया में ‘ऐ मुसलमानों! मुसलमान बनो’ के नारे के साथ 1920 के दशक में तबलीग़ी जमात का उदय हुआ।

इस तरह इस्लाम नवजागरण के भारत में ही कई मसीहा हुए। लेकिन, इनमें से एक भी जमात भारत के नब्बे प्रतिशत मुसलमानों पर प्रभाव नहीं डाल सकी। कमो-बेश आज के परिवेश में हिन्दू नवजागरण समाजों (ब्रह्म समाज आदि) की भी यही स्थिति है। लेकिन, इनका सामूहिक महत्व यह है कि भारतीय समाज ने अपने-अपने ढंग से आत्म-विश्लेषण किया, अपनी हीन-भावना खत्म करने का प्रयास किया, और कहीं न कहीं यही घटनाएँ राष्ट्रवाद में तब्दील हुई।
(शृंखला समाप्त)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (11)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/10.html
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