Monday 1 February 2021

शब्दवेध (96) साँप और सीढ़ी का खेल

कभी-कभी अपने पाठकों के धैर्य पर आश्चर्य होता है।  पिछले कुछ समय से मैं, एक ही बात को, एक बार निष्कर्ष तक पहुँचा लेने के बाद, फिर दुहराता हूं उसी को, एक नए कोण से देखने और लगभग उसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए।  कब से हम फिनीशियन या सामी लिपि से ब्राह्मी की उत्पत्ति की धारणा के विपरीत सिंधु-सरस्वती लिपि से ब्राह्मी और सामी दोनों के निकलने की चर्चा कर रहे हैं। चर्चा लगभग पूरी हो जाती है और फिर शुरू हो जाती है एक दूसरे सिरे से।  कारण यह  कि हमें एक साथ अपनी स्थापना के भीतर की कुछ  ग्रंथियों  से भी निपटना होता है,  आपके भीतर बद्धमूल धारणा  को भी  शिथिल करना होता है,  और  इसके व्यापक संदर्भ  को  उजागर  करने का सम्मोहन भी काम करता है। 

मैं अपनी बात को कुछ खोल कर रखूँ तो  हिंदी के बौद्धिक समाज की एक बड़ी त्रासदी यह है कि वह अपने समाज तक नहीं पहुंच पा रहा है। वह जिसे गलत समझता है, उसे, भारत का, पहले की तुलना में बहुत बड़ा हिस्सा, सही मानता है और बुद्धिजीवियों को अविश्वसनीय तक नहीं कहता।  

त्रासदी यहीं समाप्त नहीं होती बुद्धिजीवी वर्ग स्वयं समूचे बुद्धिजीवी समाज तक नहीं पहुंच पाता।   राजनीतिक बंटवारे ने बुद्धिजीवियों को एक दूसरे के लिए  असह्य, अगम्य, और अलभ्य  मानने की सीमा तक बांट रखा है।   मेरा  फेसबुक का लेखन  शिकायत के कई चरणों से गुजरा है।  पहले यह कि इतने गंभीर और लंबे लेख को कौन पढ़ेगा? फेसबुक हल्की-फुल्की चुटकुले बाजी के लिए बना मंच है। यह गंभीर विषय विचार विमर्श का मंच नहीं हो सकता। लोकप्रिय होना है तो लोकधुन पर नाचना भी होगा।  मुझे इस मंच का इस्तेमाल इसलिए करना था कि इस पर दर्ज वायरस का शिकार नहीं होता।  पर साथ ही यह विचार ङी काम कर रहा था कि पत्रों पत्रिकाओं  और संचार के दूसरे माध्यमों  के संकट के दौर में गंभीर चिंतन के लिए उपलब्ध इस मंच का सही उपयोग न किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।  मैं अपने पाठकों को खुश करने के लिए नहीं लिखता, यह लेखक को चंपी करने वाले की भूमिका में पहुँचा देता है।  जो सच मुझे दीखता है वह मेरे लेखन में चीखता है।  मैं लेखक की भूमिका जनरंजन नहीं लोकशिक्षण मानता रहा।   मेरे अनुभव ने मुझे निराश नहीं किया।  आज ऐसे लोगों की संख्या काफी बढ़ी है जो गंभीर विषयों पर मुझ से भी अधिक लंबे और गंभीर, तथ्यपरक,  लेख लिखते हैं और पढ़े जाते हैं ।  

 मेरी एक दूसरी शिकायत बौद्धिक  समाज में पारस्परिक संवादहीनता की रही है।   यदि आप जिन विचारों को मानते हैं उन्हीं को मानने वालों के बीच संचार कर पाते हैं तो आपकी बौद्धिक भूमिका शून्य हो जाती है।  विचार कीर्तन का रूप ले लेता है, जो भक्तिभाव से, भक्त-समुदाय के बीच, पवित्रता का अनुभव करते हुए, बार-बार दुहराया जाता है।  इसलिए मेरा आग्रह, समस्त हिंदी लेखन में हस्तक्षेप करते हुए,  जो कमियां किसी लेखन में दिखाई दें, उन को इंगित करते हुए टिप्पणी करने का रहा है। हस्तक्षेप तो दूर की बात है,   पढ़ने वालों का  विभाजन हो चुका है।   मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं यदि उसे पढ़ने वालों का एक समुदाय यह सोचकर पढ़े  कि  इससे भारतीय समाज की महिमा प्रकट होती है,  भारतीय इतिहास का उज्जवल पक्ष सामने आता है,  तो यह सत्यान्वेषण नहीं हुआ। 

 यह सच है कि मोटे तौर पर मेरा लेखन इस तरह की भ्रांति पैदा कर सकता है,  परंतु  यह औपनिवेशिक चिंतन के  विरोध में किया जाने वाला सत्यान्वेषण है जिसे दबाने के लिए हजार तरह के  फरेब योजनाबद्ध रूप में किए गए।  ऐसा करना  साम्राज्यवादियों की राजनीतिक जरूरत थी। हमारी ऐसी कौन सी राजनीतिक जरूरत है कि हम उस षड्यंत्र को जारी रखना चाहते हैं और उनका खंडन करने वालों को  अतीतोन्मुखता  या देशानुराग से ग्रस्त मान कर  पढ़ना तक पसंद नहीं करते या पढ़ने पर डर जाते हैं कि  यह तो  अमुक राजनीति के पक्ष में जा सकता है,   इसलिए  चुप्पी  साध जाते हैं:  आलोचना या खंडन करना तक पसंद नहीं करते।  यह दूसरी बात है कि  आलोचना या खंडन के लिए जिस स्तर का अध्ययन और ज्ञान होना चाहिए, उसे अर्जित करने का उन्होंने प्रयास भी नहीं किया, क्योंकि उन्हें सिखाया गया था  कि ऐसा अध्ययन भी  प्रतिक्रियावादी है या  किसी प्रगतिवादी  को  भी प्रतिक्रियावादी बना सकता है। ये  तर्क नए नहीं हैं,   उपनिवेशवादियों के हैं। वे इसका प्रयोग अपनी आलोचना करने वालों को  निष्प्रभाव करने के लिए   किया करते थे  और स्वयं  नस्लवादी,  वर्चस्ववादी दुराग्रहों का  तांडव खुलकर किया करते थे।  यूरोपीय वर्चस्ववाद  और औपनिवेशिक मानसिकता को शिरोधार्य करते हुए हमने अपनी “स्वतंत्रता” पाई थी।   भारत स्वतंत्र हो रहा है।  वर्षों पहले  डोमिनियन स्टेटस  सौंपा जा रहा था, जिसे भारत ने स्वीकार नहीं किया था,   और जब  स्वतंत्र हो रहा था  तो कॉमनवेल्थ की सदस्यता स्वीकार करते हुए नेहरू ने चोर दरवाजे से  उसे स्वीकार कर लिया था, जबकि जिन्ना में  इतनी समझ थी  कि उन्होंने  उसे ठुकरा दिया था, माउंटबेटन को स्वतंत्र देश का पहला गवर्नर जनरल मानने से इंकार कर दिया था, जिसे नेहरू ने स्वीकार कर लिया था।   कौन  कह सकता है कि अपनी  मर्दबदल  आदत के लिए कुख्यात  बुढृिया  को  नेहरू को  परोस कर  माउंटबेटन ने कुछ हासिल नहीं किया था?

इस  राजनीतिक दुर्दशा का चित्रण एक ही कवि ने किया था, पर कुछ विलंब से- महारानी के आगमन पर-  आओ रानी हम ढोएँगे पालकी,  जय कन्हैया लाल की।  पालकी  आजतक  ढोई जा रही है,  परंतु  किनके द्वारा? किन राजनीतिक दलों और संगठनों के द्वारा,  इसका जवाब  उन्हें ढूंढना होगा, जिनको इस बात की शिकायत है  उनकी आवाज  जनता से टकरा कर वापस आ जाती है। वे जो आरोप लगाते हैं  जनता की  अमोघ  चट्टान से टकरा कर प्रति-ध्वनि के रूप में उन्हें स्वयं सुनाई पड़ती है।  

परंतु जो लोग इस अनुसंधान-श्रृंखला के नियमित पाठक  हैं, और जिनके न होने का नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता था, उनमें से सभी की सत्यनिष्ठा पर भी  पूरा भरोसा नहीं हो पाता।  वे मेरी कुछ टिप्पणियों से, जो वर्णवाद (जिसे ब्राह्मणवाद कहने में संकोच नहीं, क्योंकि समाज का बौद्धिक नेतृत्व उनके हाथ में रहा है) विरोधी होती हैं उनसे वे खिन्न अनुभव करते हैं जिसका पता चल जाता है और जिससे यह भी पता चलता है कि मेरे पाठक होने के बाद भी वे रैशनल नहीं हो पाए हैं, अतः कुछ को लगता होगा कि मैं ब्राह्मणद्वेषी हूँ। 

 मैं केवल वस्तुनिष्ठ हूँ, वैज्ञानिक बने रहने का प्रयत्न करता हूँ और यह जानने के लिए उत्सुक रहता हूँ कि मैं अपने लेखन में अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह कर पाता हूँ या नहीं। गलती का पता चलने पर, उसे मानने, और अपने मत को बदलने के लिए तैयार रहता हूँ। केवल इस तत्परता को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूँ इसलिए अपने इस दृष्टिकोण को समझाने का जितनी बार, जितने तरीकों से समझाने का प्रयत्न किया है वह भी एक कीर्तिमान ही माना जाएगा।  अपने दृष्टिकोण को समझा पाने में विफलता  हिंदी  समाज के  वर्तमान और भविष्य के प्रति  दुश्चिंता पैदा करती है। जो भी हो, यह एक कारण है कि मैं पहले से बनी हुई गलत धारणाओं को निर्मूल करने का प्रयत्न करूं; उसे हर पहलू से जांचने परखने  का प्रयत्न करूं,  जिससे मेरे पाठकों के मन में किसी तरह का संदेह न रह जाय। 

दूसरा पहलू यह है  हमने बहुत पहले पश्चिम एशिया पर  हित्ती (प्रा. खत्तिओ),  मित्र (मितन्नी), कश (कस्साइट) जनों  द्वारा स्थापित और कई शताब्दी तक चलते रहने वाले शासन  का हवाला देते हुए यह दावा किया था यूरोप में तथाकथित भारोपीय भाषा का प्रचार भारतीय उपनिवेशों से हुआ।  प्रसार वहां से हुआ  इसे सभी आधुनिक भाषाविज्ञानी मानते हैं,  वे केवल इस बात पर बहस करते रहे हैं    कि वे भारत से  वहां नहीं पहुंचे थे बल्कि  वहां से भारत आए थे। उन लेखों में हमने दिशा सही कर दी थी, इससे अधिक कुछ करने को था नहीं। पश्चिम एशिया पर इनका अधिकार अश्व व्यापार  के क्रम में हुआ था। मध्य एशिया में अश्वपालन के क्षेत्र पर  इन्होंने उससे पहले अधिकार किया था और उत्तरी यूरोप की भाषाओं को इसी क्षेत्र का ऋणी होना पड़ा था, इसलिए यूरोप में भारोपीय के प्रचार के  दो केंद्र बन जाते हैं, एक मध्य एशिया से जुड़ा हुआ और दूसरा पश्चिम एशिया से जुड़ा।   

इसके बाद   इस समस्या के  जनक सर विलियम जॉन्स  के व्याख्यानों पर विचार करते हुए हमने पाया  कि रोमन और ग्रीक भाषाओं को प्रभावित करने वाले ही नहीं बल्कि उन्हें सांस्कृतिक रूप में  आप्लावित करने वाले भारतीय इथोपिया मे और भूमध्य सागर के पूर्वी तटीय क्षेत्र पर अधिकार करने वाले फिनीशियन थे, जो वैदिक देवी देवताओं को नहीं मानते थे अपितु  मातृदेवी के उपासक थे।

यहां आकर हमारी अपनी स्थापनाओं,  जो हमारी अपनी स्थापनाएँ भी नहीं है,   इनका आधार भी   एक दूसरे स्रोत हैं जिन्हें  हम सही मानते हैं।  अब इस वाद में  एक विरोधाभासी स्थिति पैदा होती है, जिसका निराकरण किए बिना  हम समस्या का संतोषजनक समाधान नहीं कर सकते।  इसके साथ ही साथ एक नया फलक  इनके पीछे से उभरता है जो केवल भारोपीय क्षेत्र तक सीमित नहीं रहता अपितु सभ्यता के व्यापक प्रसार का रूप ले लेता है जिस पर भी पहले विचार किया गया है परंतु विकृत ढंग से विचार किया गया है इसलिए विचारों के बीच गहरी   खाइयाँ बनी रह गई हैं जिनका समाधान सभ्यता-विमर्श की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

क्या इन खाइयों को पाटना आज की चरचा में संभव है? Wait!  They also work who only stand and wait.

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


No comments:

Post a Comment