Wednesday 3 February 2021

रामकथा या समाज के उत्थान और विकास की कथा - 1.

रामकथा केवल अयोध्या के राजा राम की कथा नहीं है, सभ्यता के उत्थान और विकास की कथा है। मनुष्य द्वारा अपने प्रयत्न से अपनी जीविका के साधन जुटाने के प्रयोगों और इसके विरोधी, प्रकृति पर निर्भर जनों के उपद्रव की कथा है। इन उपद्रवकारियों को असुर और राक्षस कहा गया, जब कि कृत्रिम उत्पादन की दिशा में पहल करने वालों को सुर, देव या भाभन । हजारों साल के अंतराल में घटित सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के कारणों पुराने शब्दों के अर्थ बदल गए, यह अचरज की बात नहीं। भाषा में ऐसा होता रहता है। अचरज की बात यह है कि इस परिवर्तन के बाद भी कई हजार साल तक जातीय चेतना में यह एक धुँधली याद बनी रह गई कि इनका रूप पहले कुछ और था। पश्चिमी विद्वान भारतीय अवधारणाओ को अपनी जातीय सीमाओं में रख कर देखने का प्रयत्न करते रहे इसलिए इनकी सही व्याख्या करने में असमर्थ रहे जब कि ज्ञान और शोध की नई दिशाएँ खुलने के बाद इनका वह मर्म आधुनिक विश्लेषण से ही समझा जा सकता था जो हमारी अपनी परंपरा के लिए भी दुर्बोध हो चुका था। इसके विपरीत वे अपनी शक्ति त्रुटियाँ तलाशने और आविष्कार करने में लगाते रहे इसलिए उन तथ्यों पर भी अविश्वास करते और उन्हें अतिरंजित और कल्पनाप्रसूत कह कर उपहास करते रहे जिनको विज्ञान की प्रगति के साथ सचाई के सर्वथा अनुरूप पाया गया। हमारे अपने पंडित भी इनकी गहराई में उतर कर इनकी तार्किक मीमांसा करने में असमर्थ रहे या आधे-अधूरे रूप में करते रहे। उदाहरण के लिए कोसंबी को और इनकी ही तर्ज पर देबीप्रसाज चट्टोपाध्याय को वैदिक समाज में गणप्रतीकात्मक नाम तो दिखाई देते हैं  परंतु गीध, बानर, रिक्ष/भल्ल, मतंग, मीन, आदि नहीं अन्यथा उनका खेल ही बिगड़ जाता। अतः अन्य मामलों में अच्छी समझ रखने वाले विद्वान भी उन शब्दों और संकेतों को समझने में असमर्थ रहे हैं जिसके कारण हमारी समझ में कुछ झोल रह जाते हैं।  इसलिए हम आरंभ में ही रामकथा से संबंधित कतिपय शब्दों का अर्थ स्पष्ट करना चाहेंगे:

1. यज्ञ का अर्थ है उत्पादन। इसमें संतानोत्पादन, पशुपालन और पशुप्रजनन, कृषिउत्पादन, जल उत्पादन, धन उत्पादन और धन-उत्पादन से जुड़े विविध उद्यम और उपक्रम जैसे खनन और खनिजों का शोधन, जीवन को सुखद और उन्नत बनाने के सभी आयोजन, कहें, सभ्य जगत के सभी कार्यव्यापार आते हैं, इसलिए इसके अनुष्ठाताओं और संपादकों में सभी पेशों से जुड़े शूद्र से लेकर ब्राह्मण तक सभी लोग आते हैं। इसकी सबसे सटीक व्याख्या ऋग्वेद में मिलती है।  बृहदारण्यक उपनिषद में भी इसकी सविस्तार व्याख्या है  परन्तु उसमें वह व्यापकता नहीं है जो ऋग्वेद की व्याख्या में। यह अर्थ प्राचीन है जिसकी महिमा को पुरोहितों ने अपने कर्मकांडीय नकल में बदल कर सीमित कर दिया, समाज के दूसरे उत्पादकों को इस नकली यज्ञ से वंचित कर दिया। अर्थसंकोच इतना हो गया कि पुराना अर्थ पढ़ने के बाद भी समझ में नहीं आता।  जो काल्पनिक है वह वास्तविक और जो वास्तविक था वह काल्पनिक प्रतीत होता है।  

2. धर्म – भारतीय संदर्भ में धर्म को परिभाषित करना करना बहुत कठिन है. कारण इसका एक अर्थ है यज्ञ अर्थात् मानवता की उन्नति, समृद्धि और कल्याण के लिए जो कुछ जरूरी है उसका निर्वाह, और उन गुणों का विकास जिनके बिना यह संभव नहीं, इसलिए यज्ञ ही सर्वोत्तम कर्म है – यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म और इस समझ के दार्शनिक ऊँचाई लेने के बाद यह समझ कि सृष्टि के सभी पदार्थों की अपनी सत्ता इस बात पर टिकी है कि वे उन गुणों के अनुरूप कार्य करते हैं या नहीं जो उनकी संज्ञा और सत्ता का आधार है।  निर्वाह करने की उनकी क्षमता ही उनका धर्म है और धर्म से च्युत होने पर उनकी सत्ता समाप्त हो जाती है।  पर एक विरोध वहाँ पैदा होता है, जहाँ आदिम अवस्था में जीविका के एक ही साधन - प्रजापति – की दो माताओं की संतानें अस्तित्व में आती हैं या कुछ लोगों द्वारा जीवन यापन के लिए प्रकृति की कृपा पर एकान्त निर्भरता और अभाव के दिनों में भुखमरी की बाध्यता से बचने के लिए कृत्रिम उत्पादन का सहारा लिया जाता है। एक का धर्म हो जाता है प्रकृति और पर्यावरण में किसी तरह के बदलाव का विरोध और इसके लिए प्राण देने और लेने को तत्पर हो जाना,  दूसरे का धर्म यज्ञ को प्राण संकट में डाल कर भी जारी रखना। पहले के धर्म में समता, अपरिग्रह या तात्कालिक आवश्यकता से अधिक न रखना,  मिल बाँट कर खाना, सत्यनिष्ठा आदि के वे गुण आते हैं जिन पर हम गर्व करते हैं और जिनका विल द्यूराँ ने अवर ओरिएंटल हेरिटेज में मुग्ध भाव से उल्लेख किया है। इस धर्म में पशुपालन भी संभव नहीं क्योंकि सभी माताओं का दूध उनकी संतान के लिए है। यज्ञ उन सभी मर्यादाओं के अतिक्रमण के साथ आरंभ होता है, अपने श्रम से उत्पादित पर श्रम करने वाले के अधिकार से संपदा का निजीकरण हो जाता है, सामाजिक संबंधों में निजता आ जाती है, संख्या में कम होने के कारण उत्पादन का विरोध करने वालों से बचने के लिए छल कपट का सहारा लेना पड़ता है।  इसलिए देवों को सभी अवगुणों की खान बताया जाता है। हम आदिम समाज की मूल्यव्यवस्था में आए इस बदलाव और अंतर को समझने में सावधानी नहीं बरतते। बलि अपने वचन के निर्वाह के लिए अपना सर्वस्व खोने को तैयार हो जाते हैं और अपने ही भूभाग से निर्वासित हो जाते है और यज्ञ के मूर्त रूप वामन धूर्तता से उस पर अधिकार कर लेते हैं।      

3. असुर -  अधिकारी विद्वानों ने इसकी व्युत्पत्ति – असु = प्राण , शक्ति, ज्ञान  से जोड़ी है। इसका प्रयोग अग्नि, वरुण, रुद्र आदि के लिए हुआ है। एक तीसरा कारण यह है कि असुरों को बलवान (बलीयांस) कहा गया है और लोकविश्वास में भी उनका यही रूप है। हम इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते, पर इसमें इतना जोड़ सकते हैं कि जिस असुर को देवविरोधी के रूप में चित्रित किया गया है वे यज्ञविरोधी विरोधी हैं, प्रजापति की दूसरी पत्नी की संतान या जीविका के आदिम पद्धति से अविचलित रूप में जुड़े जन हैं।  अतः यह असुर असु धातु से व्युत्पन्न नहीं है अपितु सुर – उत्पादक का निषेधार्थी है और सुर की भाँति इसकी धातु सू – उत्पादन है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

No comments:

Post a Comment