Thursday 11 February 2021

आन्दोलनजीविता और किसान आंदोलन 2020 / विजय शंकर सिंह

किसान आंदोलन 2020 की, सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि, इसने धर्म केंद्रित राजनीति जो 2014 के बाद, जानबूझकर जनता से जुड़े मुद्दों से भटका कर, सत्तारूढ़ दल भाजपा और संघ तथा उसके थिंक टैंक द्वारा की जा रही है को लगभग अप्रासंगिक कर दिया है। सरकार 2014 में ही गिरोहबंद पूंजीपतियों के धन के बल पर, जनता के वोट, और संकल्पपत्र के लोकलुभावन वादों के सहारे आयी थी। सरकार अपने पोशीदा एजेंडे के प्रति न तब भ्रम में थी न अब है। धीरे धीरे, योजना आयोग के खात्मे और पहला भूमि अधिग्रहण बिल से सरकार ने कॉरपोरेट तुष्टिकरण के अपने पोशीदा एजेंडे पर जिस संकल्प के साथ काम करना शुरू किया था, वह साल दर साल जनविरोधी और कॉरपोरेट फ्रेंडली होता ही गया। यह तीन नए कृषि कानून, देश का सबकुछ कॉरपोरेट को सौंप देने के एजेंडे का ही एक चरण है। पर सबसे अच्छी बात यह है कि जनता अब सरकार के गिरोहबंद पूंजीवादी एजेंडे को समझने लगी है। लोकसभा में भी विपक्ष इस पर बिना लागलपेट के बोलने लगा है। लोग यह समझने लगे हैं कि, यह सरकार दो पूंजीपतियों के प्रति अपना स्वाभाविक झुकाव रखती है। राहुल गांधी का हम दो हमारे दो, का स्पष्ट कथन और उस पर सदन में ही, देश के दो बड़े पूंजीपतियों के घराने, अम्बानी और अडानी के पक्ष में, सत्ता पक्ष का जाने अनजाने खड़ा दिखना, इस भ्रम को तोड़ने के लिये पर्याप्त है कि, सरकार अपने फैसले जनहित में ले रही है। 

सरकार का लक्ष्य देश का आर्थिक विकास न तो वर्ष 2014 में था, न ही वर्ष 2019 में । सरकार का एक मात्र लक्ष्य था और, अब भी है कि, वह अपने चहेते कॉरपोरेट साथियों को लाभ पहुंचाए और देश मे ऐसी अर्थ संस्कृति का विकास करे, जो क्रोनी कैपिटलिस्ट ओरिएंटेड हो। सरकार द्वारा उठाया गया हर कदम, पूंजी के एकत्रीकरण, लोककल्याणकारी राज्य की मूल अवधारणा के विरुद्ध रहा है। चाहे नोटबन्दी हो, या जीएसटी, कर राहत के कानून हों या बैंको से जुड़े कानून, लॉक डाउन से जुड़े निर्देश, इन सबका यदि गहराई से अध्ययन किया जाय तो, सरकार का हर कदम, पूंजीपतियों के हित की ओर ही जाता दिखता है। इसी कालखंड में जीडीपी में भारी गिरावट आयी, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में शून्य से नीचे अधोविकास की गति हो गयी, बेरोजगारी अब तक के सबसे बुरे दौर में आ गयी। सरकार निश्चिंत नौकरियों के बजाय संविदा आधारित नौकरियों की बात करने लगी। पर इन सारे भयावह आर्थिक गिरावट के दौर में, यदि तरक्की होती रही तो, सिर्फ दो पूंजीपति घरानों की।  

अभी तो किसान आंदोलित हैं। उनसे जुड़े कानून बदले गए हैं। इसके अतिरिक्त, श्रम कानूनो में भी बदलाव पूंजीपतियों के इशारे पर होने लगे जो पहली ही नज़र में श्रम विरोधी हैं। महत्वपूर्ण नवरत्न सरकारी कंपनियों को, निजीकरण और विनिवेशीकरण के नाम पर, बेचा जाने लगा है। अपनी लाभ कमाने वाली हिंदुस्तान एयरोनॉटिकल कम्पनी एचएएल को दरकिनार कर, पंद्रह दिन पहले बनाई गयी एक नयी कम्पनी को इस सरकार के कार्यकाल का सबसे बड़ा रक्षा सौदों थमा दिया गया। केवल इस लिये कि वह पूंजीपति सरकार या प्रधानमंत्री के बेहद करीब है, यह अलग बात है कि वह पूंजीपति खुद को दिवालिया घोषित कर चुका है। 

वैसे तो देश की हर सरकार, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तरफ झुकाव वाली रही है, लेकिन साल 2014 के बाद की यह सरकार, पूंजीपतियों के ही लिए काम करने के एजेंडे पर आगे बढ़ रही है। साल, 2014 में लाये गए पहले भूमिसुधार कार्यक्रम, जो भूमि अधिग्रहण बिल था, से लेकर 20 सितंबर 2020 को पारित नए कृषि कानून तक, सरकार द्वारा लिये गये, हर महत्वपूर्ण आर्थिक  सुधार कानूनो के केंद्र में, आम जनता कहीं है ही नही। यह तीनों कानून जिन्हें कृषि सुधार के नाम पर लाया गया है, वे मूलतः कृषि व्यापार से जुड़े कानून हैं जो किसानों को नही बल्कि, कृषि उपज का व्यापार करने वाले लोगों और कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिये लाये गए है। इनसे किसानों का, खेती से जुड़े, खेतिहर मजदूर वर्ग का क्या लाभ होगा, यह आज तक दर्जन भर की सरकार - किसान वार्ता के बाद भी सरकार, जनता को समझा नहीं पायी है। 

साल 2014 में जब सरकार बन गयी तो, सरकार सनर्थक लोग और भाजपा ने यूपीए 2 से जुड़े भ्रष्टाचार, बदइंतजामी, महंगाई आदि आर्थिक मुद्दों से किनारा कर लिया और वे अपने उसी चिरपरिचित हिन्दू मुस्लिम के विभाजनकारी एजेंडे पर आ गए जिनसे जनता धर्म के नाम पर आपस मे बंटने लगती है। हर प्रकार के जन असंतोष को विभाजनकारी चश्मे से देखने की आदत संघ और भाजपा की आदत गयी भी नहीं थी, और हर असंतोष का निदान केवल धार्मिक संकीर्णतावाद में ढूंढा जाने लगा। यही रणनीति किसान आंदोलन 2020 के साथ भी अपनाई गयी, जो आंदोलन की व्यापकता को देखते हुए लगभग बैक फायर हो गयी है। 

इस आंदोलन की गूंज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुयी जब कुछ प्रसिद्ध सेलेब्रिटीज़ ने किसान आंदोलन के दौरान, नागरिक अधिकारों के हनन को मुद्दा बना कर ट्वीट किया। आज के प्रचार युग मे, सेलेब्रिटीज़ हम सबके मन मस्तिष्क पर, इस प्रकार से आच्छादित हो जाते हैं कि हम उनकी प्रतिक्रियाओं के न केवल मोहताज हो जाते हैं बल्कि उनकी प्रतिक्रियाओं की ही दिशा में सोचने भी लगते हैं। रियाना जो एक बड़ी पॉप स्टार हैं, 8 ग्रेमी अवार्ड्स जीत चुकी हैं ने, जब सीएनएन की एक खबर जो किसान आंदोलन से सम्बंधित थी, के लिंक को साझा करते हुए जब यह ट्वीट किया कि, इस पर कोई बात क्यों नहीं करता है, तब लगा दुनिया मे भूचाल आ गया है। इस हड़बड़ी में हमारे विदेश मंत्रालय ने तुरंत प्रतिक्रिया भी देनी शुरू थी, जो लगभग गैर जरूरी भी कुछ विदेशनीति के जानकारों द्वारा कही गयी। रियाना भारत को कितना जानती हैं और वे कितना इस आंदोलन और इस आंदोलन के मूल कारण कृषि कानूनो के बारे में जानकारी रखती हैं, यह मुझे नहीं मालूम, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में लोगों का दो महीनों से सड़क पर बैठना, इंटरनेट बंद कर देना, और सड़कों पर गाजा पट्टी स्टाइल मे कील कांटे बिछा देना, जैसी मानवाधिकार हनन जैसी पुलिस कार्यवाही ने, उन्हें अचरज से भर दिया होगा और उन्होंने अपनी बात कह दी। 10 करोड़ फॉलोवर्स वाले ट्विटर हैंडल से सरकार भी चौंकी औऱ सरकार के सनार्थक तथा  ज़विरोधी दोनो भी। सरकार ने कहा कि उन्हें पूरी बात जानने समझने के बाद ही कहना चाहिए था। फिर तो, रियाना, तथा अन्य के ट्वीट के जवाब में, आईटी सेल सक्रिय हुआ, और हमारे सेलेब्रिटीज़ भी सक्रिय हो गए। रिहाना के बाद फिर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित ग्रेटा और पॉर्न स्टार मिआ खलीफा ने भी किसान आंदोलन के बारे मे ट्वीट किये। फिर तो ट्वीटर पर सेलेब्रिटीज़ के बीच सरकार के समर्थन और निंदा की प्रतियोगिता ही छिड़ गयी। 

यह संभवतः पहला अवसर है, जब लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी एक सरकार के मुखिया, प्रधानमंत्री ने, लोकतंत्र के सर्वोच्च सभागार में, जिसे हमने, एक लंबे जनआंदोलन के बाद हासिल किया है, आन्दोलन के जनअधिकार को, निंदात्मक रूप में चित्रित किया है। वे यह कहते समय शायद भूल गए कि, आन्दोलनजीविता, चैत्यन्तता का प्रमाण है। जनता की समस्याओं के समाधान के लिये खड़े हो जाना, और उनके असंतोष को स्वर देना, या जहां भी,  जो भी है, जिस प्रकार से भी सक्षम है, जन सरोकारों से जोड़ कर उनके साथ उसका खड़े हो जाना, यह न केवल एक सामाजिक दाय है, बल्कि एक मानवीय गुण भी हैं। प्रधानमंत्री, किसान आंदोलन के कारण, अच्छे खासे दबाव में हैं। वे चाहते हैं कि यह आंदोलन समाप्त हो जाय। सरकार के प्रमुख के रूप में उनकी यह इच्छा अनुचित भी नहीं है। पर जनता या किसान, जो इन तीन कृषि कानूनों को अपनी कृषि संस्कृति के लिये खतरा मान रहे हैं, को वे समझा नहीं पा रहे हैं कि कैसे यह कानून उनके हित मे है। आन्दोलनजीविता शब्द के प्रयोग का एक कारण, कानून को समझा न पाने की उनकी कुंठा भी है। 

आन्दोलनजीविता ज़िंदा रहने की पहली पहचान है। मुर्दे कभी आंदोलित हो ही नहीं सकते हैं। यह जीवंतता ही है जो हर समय  अपने अधिकारों, समाज से जुड़े सवालों, और भविष्य के प्रति सजग और सचेत रखती है। यही चैत्यन्तता है जो चेतना से जुड़ी है और जड़ता के निरन्तर विरोध में खड़ी रहती है। भारत के हज़ारो साल के बौद्धिक इतिहास में यही आन्दोलनजीविता सम्मान पाती रही है। पर यह चैत्यन्तता और आन्दोलनजीविता, सत्ता को अक्सर असहज भी करती रही है, और वह सत्ता चाहे, धार्मिक सत्ता हो, या राजनीतिक सत्ता या सामाजिक एकाधिकारवाद की सत्ता। सत्ता को अक्सर खामोश, सवालों से परहेज करने वाले, पूंछ हिलाते हुए, दुम दबाकर आज्ञापालक समुदाय रास आते हैं। उन्हें श्रोता पसंद आते हैं, पर तार्किक और सवाल पूछने वाले नहीं। जब सवाल पूछा जाने लगता है तो, वे झुंझलाते हुए कहने लगते हैं, मैं तुम्हे यम को दूंगा। पर सवाल पूछने वाला यम से भी जब अवसर मिलता है तो, बिना सवाल पूछे नहीं रह पाता है। जी यह कहानी नचिकेता की है। यह उस समय की कहानी है जब चेतना शिखर पर थी, मस्तिष्क दोलायमान रहा करता था और उस दोलन भरी आन्दोलनजीविता को समाज तथा बौद्धिक विमर्श में एक ऊंचा स्थान प्राप्त था। 

आन्दोलनजीविता, भारतीय परंपरा, साहित्य, धर्म और समाज का अविभाज्य अंग रही है। आज तमाम आघात प्रतिघातों के बावजूद, यदि भारतीय दर्शन, सोच, विचार और तार्किकता जीवित है तो उसका श्रेय इसी आन्दोलनजीविता को ही दिया जाना चाहिए। ऋग्वेद के समय, जैनियों के प्रथम तीर्थंकर अयोध्या के राजा ऋषभदेव हों या चौबीसवें तीर्थंकर महावीर, बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन हो, या बौद्धों की चारो महासंगीतियाँ, या आदि शंकराचार्य का, अद्वैत दर्शन पर आधारित, एक नए युग का सूत्रपात हो, या मध्यकाल का भक्ति आन्दोलन, या ब्रिटिश हुक़ूमत के समय बंगाल और महाराष्ट्र के पुनर्जागरण जिसे इंडियन रेनेसॉ के रूप में हम पढ़ते हैं, और जिसकी शुरुआत राजा राममोहन राय से मानी जाती है या समाज सुधार से जुड़े अनेक स्थानीय आंदोलन, यह सब आन्दोलनजीविता के ही परिणाम रहे है। 

राजनीतिक क्षेत्र में भी चाहे, झारखंड और वन्य क्षेत्रो में हुए आदिवासियों के अनाम और इतिहास में जो दर्ज नहीं है, ऐसे आन्दोलन, 1857 का स्वतंत्रचेता विप्लव, अनेक छोटे मोटे हिंसक और अहिंसक आंदोलनों के बाद गांधी का एक सुव्यवस्थित असहयोग आंदोलन यह सब आन्दोलनजीविता ही तो है। यह सब रातोरात या किसी रिफ्लैक्स एक्शन का परिणाम नहीं था। यह उस आग की तरह थी, जो अरणिमंथन की प्रतीक्षा में सदैव सुषुप्त रह्ती है। विवेकानंद, दयानंद, अरविंदो, से लेकर रजनीश ओशो तक हम जो कुछ भी पढ़ते हैं वह सब इसी चेतना का ही परिणाम है जो देश के लम्बे इतिहास में समय समय पर विभिन्न आंदोलनों के रूप में उभरते रहते हैं। दुनियाभर के इतिहास में, आन्दोलनजीविता की इस चेतना ने सदैव सत्ता को चुनौती दी है। ऐसा भी नहीं है कि यह चेतना सिर्फ हमारे यहां ही प्रज्वलित होती रही हो। ईसा और मुहम्मद का धर्म उनके समय मे उनके समाज की धार्मिक और राजनीतिक सत्ता को एक चुनौती ही थी। इस्लाम का सूफी आंदोलन, मंसूर का अनल हक़, कबीर का धर्म के पाखंड के खिलाफ खड़े हो जाना, नानक का समानता और बंधुत्व पर आधारित सिख पंथ, गोरखनाथ, कीनाराम का अघोरपंथ, यह सब भी ऐसे ही आंदोलनों का परिणाम रहा है। यह भी एक विडंबना है कि जब यही सारे आंदोलन सफल होकर सत्ता में आ गए तो वे जड़ बन गए । अधिकार सुख मादक होता ही है। लेकिन सत्ता तो जड़ बनी रही, पर जनता के मन मे प्रज्वलित चेतना ने फिर सत्ता की जड़ता को ही चुनौती देनी शुरू कर दी। यह एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। यही चरैवेति है, और चरैवेति ही आन्दोलनजीविता है। ज़िंदा समाज की यही पहचान है और यही जिजीविषा है।

क्या यह अमानवीय और शर्मनाक नहीं है कि, सरकार, किसानों की मौत पर अफसोस करने के बजाय जिओ के टावर टूटने का शोक मना रहे हैं। जबकि हर टावर इन्श्योर्ड होता है। उसका एक एक पैसा उन कंपनियों को मिल जाएगा, जिनके टावर टूटे थे। पर किसान, उनका बीमा है भी या नहीं क्या पता। और अगर बीमा हो भी तो क्या कोई मरना चाहेगा ? 11 फरवरी को जब विपक्ष, 200 दिवंगत किसानों की मृत्यु पर शोक प्रदर्शित करते हुए 2 मिनट का मौन रख रहा था तो, सत्ता पक्ष का एक भी सांसद जो सदन में उपस्थित था, अपने स्थान पर खड़ा नहीं हुआ। यह काम अध्यक्ष को करना चाहिए था और दो मिनट के मौन का प्रस्ताव सरकार की तरफ से आना चाहिए था। पर यह प्रस्ताव भी विपक्ष की तरफ से आया और दो मिनट का मौन भी उन्होंने ही रखा। 

देश मे लगभग अस्सी दिन से किसानों का एक व्यापक आंदोलन चल रहा है और न केवल वह शांतिपूर्ण है, बल्कि दिनोंदिन और व्यापक होता भी जा रहा है। किसानों के इस आंदोलन के साथ, कामगारों, उन सरकारी उपक्रमो के कर्मचारियों, जिनकी सरकार बोली लगाने वाली है, निजी क्षेत्रो को बेचे जाने वाले सरकारी बैंको के अधिकारियों कर्मचारियों, और बेरोजगार युवाओं को जुड़ना चाहिए और इसी तरह का शांतिपूर्ण आंदोलन जगह जगह आयोजित करना चाहिए। 

यह जो एक नए किस्म के वर्ल्ड ऑर्डर लाने की बात कोरोना आपदा के बाद से बार बार कही जा रही है, उसमे शिक्षा, स्वास्थ्य, सहित सभी लोककल्याणकारी योजनाएं, निजी क्षेत्रों को धीरे धीरे सौंप दी जाएगी। स्कूल कॉलेज रहेंगे, पर वे आम जनता की पहुंच के बाहर रहेंगे। या तो महंगे लोन लेकर बच्चे पढ़ेंगे या धनाभाव से पढ़ नहीं पाएंगे। अस्पताल रहेंगे, पर वे आम जनता की पहुंच से दूर होते जाएंगे, और जनता का स्वास्थ्य ठीक रहेगा या नही रहेगा, मेडिक्लेम करने वाली बीमा कंपनियों का स्वास्थ्य ज़रूर ठीक हो जाएगा। नौकरियां रहेंगी, पर अधिकतर नौकरियां, संविदा पर रहेंगी, और जब चाहेगी कंपनियां, उन्हें निकाल देंगी। इसे ही कॉरपोरेट में हायर एंड फायर कहते हैं। अब तब देश का स्टील फ्रेम कही जाने वाली नौकरियां, जो एक खुली प्रतियोगिता से मिलती हैं, वे जब संविदा पर मिलने जाने लगीं तो, देश की अन्य नौकरियों के बारे में क्या कहा जाय। 

यह नया वर्ल्ड ऑर्डर, संविधान के नीति निर्देशक तत्वो को तो अप्रासंगिक कर ही रहा है, मौलिक अधिकारों को भी बस एक अकादमिक बहस के रूप में रख छोड़ेगा। इस मदहोशी की मोहनिद्रा से बाहर आइये और अपने अधिकारों के लिये सजग और सचेत बने रहिये। इतिहास में ऐसे मौके कम ही आते हैं, जब सबको एकजुट होकर अस्तित्व की रक्षा के लिये खड़ा होना पड़ता है। यह साम्रज्यवाद और उपनिवेशवाद के एक नए खतरे का आगाज़ है, जिसका सामना हथियारों से नहीं, वैचारिक स्पष्टता से ही सम्भव है। 

( विजय शंकर सिंह )

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