Monday 1 February 2021

शब्दवेध (95) फिनीशियन या पणि

वैदिक संदर्भ में  पणि शब्द लंबे ऊहापोह  का विषय बना रहा है क्योंकि पणियों के विषय में उपलब्ध सूचनाओं में  परस्पर  विरोध है।  एक के लिए इंद्र के उपासक उनकी निधि के दोहन को तत्पर दिखाई देते हैं ( स सत्पतिः शवसा हन्ति वृत्रं अग्ने विप्रो वि पणेर्भर्ति वाजम् ।)  

दूसरे में वे उनकी कृपा के लिए अनुनय करते मिलते हैं (अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.7) वे दान में कुछ दें इसकी कामना करते हैं (अदित्सन्तं चिदाघृणे पूषन् दानाय चोदय ।) वे धनी हैं, इंद्र से उनका विरोध है, उनके देवता और उपासना पद्धति भिन्न है (न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते।)

उनके दूसरे रूप का  सही परिचय नहीं मिल पाता परंतु इतना स्पष्ट है कि उपासना पद्धति में विरोध  के  बाद  भी वैदिक आर्थिक गतिविधियों के महत्वपूर्ण घटक थे और समृद्ध होने के साथ ही साथ खासे कंजूस थे और इसी आधार पर राजबली पांडे ने  यह सुझाव रखा था कि  पणि  फिनीशियन  थे। 
पाश्चात्य  लेखकों  में भी फिनीशियनों के विषय में  तरह तरह  की अटकलबाजियां की जाती रही हैं जिनमें उनकी पहचान से अधिक पहचान को छिपाने का प्रयत्न अधिक दिखाई देता है। नई सूचनाएँ पुरानी जानकारी के अधूरेपन को पूरा करके उनका अधिक विश्वसनीय चित्र नहीं प्रस्तुत करतीं अपितु उनको नकारते हुए पहले से अधिक अधूरापन और खालीपन पैदा करती हैं।  इसके बाद भी कुछ चीजें अपनी अपरिहार्यता के कारण उनसे भी स्पष्ट हो कर  उनके दावे विरोध में खडी होती हैं। वे उन्हें  भूमध्यसागरीय परिधि तक सीमित रख कर उन्हें सामी सिद्ध करना चाहते हैं, जब कि उनके विवरणों से ही यह सिद्ध होता है कि:
वे भूमध्यसागरीय क्षेत्र में एक आश्चर्यजनक उपस्थिति थे जिनके पास ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, लेखन कला, ज्योतिष-गणना, नौचालन, स्थल-परिवहन सभी कुछ था और भूमध्यसागर के तटीय क्षेत्रों में जहाँ का समाज पशुचारण से आगे नहीं बढ़ पाया था, इन सभी का प्रसार   इनके माध्यम  से हुआ। 
 
स्वतःसिद्ध है कि वे एक भिन्न सांस्कृतिक परिवेश से आए थे और इसकी सूचना उन यूनानी स्रोतों में थी जिनको भुलाने का प्रयत्न किया जाता है।  उसके अनुसार वे पूर्व के किसी तटीय भूभाग से वहाँ इसलिए 2500 ई.पू. में पहुँचे थे कि उस देश में लगातार भूचाल के झटके आ रहे थे। प्राचीन  ग्रीक लेखकों ने उस स्थल को फारस की खाड़ी के दक्षिणी भाग में स्थित माना था। पर वे अपने ही अनुमान के अनुसार फिनीशियनों के उस क्षेत्र मे पहुँचने के लगभग 2000 साल बाद पुरानी कहानियों के आधार परअटकलें लगा रहे थे, इसलिए इसमें कुछ समायोजन संभव है।
 
यदि सभ्यता के अन्य घटकों के साथ भूगर्भीय उपद्रव को भी इनकी पहचान में निर्णायक मानें तो संयोगवश उसी काल रेखा पर सिंधु सारस्वत क्षेत्र ऐसी ही एक आपदा से गुजरा था जिसका एक अवशेष ढोलावीरा के राजप्रासाद का 14 मीटर चौड़ा प्राचीर  था जो फट कर टेढ़ा हो  गया था और उसके सहारे के लिए पाँच  मीटर मोटी दीवार बनाई गई थी।  इसकी पुष्टि के लिए मैंने ढोलावीरा की खुदाई करने वाले आर एस बिष्ट से बात की तो इसकी काल रेखा वही (2500 ई.पू.)  निकली जो परिपक्व हड़प्पा से पहले और सारस्वत चरण के अवसान का प्रतीत होता है।
 
ऋग्वेद की एक ऋचा में लंबे समय तक चलने वाले उपद्रव का बहुत  जीवंत चित्रण देखने में आता है - 
यः पृथिवीं व्यथमानामदृंहद् यः पर्वतान् प्रकुपिताँ अरम्णात् । यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्रः ।। 2.12.2  

इससे इस बात का आभास होता है कि यह भूगर्भीय उपद्रव लंबे समय तक चलता रहा था।  ऐसे में कोई कोई समुदाय प्राणरक्षा की चिंता से पलायन के लिए बाध्य हुआ हो तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। 

इसका दूसरा पक्ष यह है कि इस काल के आसपास के सुमेरी अभिलेखों में जिन अड्डों से माल लेकर आने वाले जहाजों के हवाले मिलते हैं वे सभी भारतीय या भारतीय व्यापारियों के नियंत्रण में थे।  नौवहन के क्षेत्र में भारत का एकाधिकार सा था, इसलिए भी नौवहन में अग्रणी फिनीशियन भारत से ही वहाँ पहुँचे हो सकते थे। जोंस ने इसके न केवल इसके बहुपक्षीय प्रमाण दिये थे  कि यूनानी इथियोपिया में अपने उपनिवेश कायम करने वाले भारतीय थे,  उन्होंने मिस्र को, मिस्र की संस्कृति को भी बहुत गहराई से प्रभावित किया और भूमध्यसागर के पूर्वी तट को आबाद कर रखा था और दोनों का आपस में गहरा संबंध था (देखें शब्दवेध 84)

आगे बढ़ने से पहले यह समझना जरूरी है कि यह तय कर लिया जाय कि उनका अपना नाम क्या था।  हम पीछे (शब्दवेध 85) में प्रचलित धारणा का उल्लेख करते हुए यूनानियों द्वारा उनके पर्पल रंग के वस्त्रों की माँग के आधार पर दिया गया नाम बताया था, परंतु कुछ ऐसे प्रमाण हैं जिनसे लगता है कि वे अपने को जिस नाम से पुकारते थे उसका, नामों का सत्यानाश करने वाली यूनानी परंपरा के कारण, भ्रष्ट लेखन और उच्चारण करने के कारण उनका नामकरण फिनीशियन पड़ा, न कि रंग के नाम पर:
Robert S. P. Beekes has suggested a pre-Greek origin of the ethnonym The oldest attested form of the word in Greek may be the Mycenaean po-ni-ki-jo, po-ni-ki, possibly borrowed from Ancient Egyptian: fnḫw] (literally "carpenters", "woodcutters"; likely in reference to the famed Lebanon cedars for which the Phoenicians were well-known), although this derivation is disputed.( Aubet Semmler, María Eugenia (2001). The Phoenicians and the West: Politics, Colonies and Trade. Cambridge University Press. p. 9. ISBN 

 अब इस नामकरण की पण/ पणि से अभिन्नता स्पष्ट है, यद्यपि इसका संबंध सीधे धन से न जुड़कर काटने गढ़ने के मूल आशय (पण-वण खंडने) से जुड़ता है जो ही उस चरण के अनुरूप है क्योंकि उस दौर में सिक्के के रूप में पण का चलन संभव न था।  हाथ के लिए पाणि का प्रयोग तक्षण/दक्षता प्रकट करने के इसी से जुड़ा है।

यहाँ इस तथ्य पर भी ध्यान जाता है कि तक्षण में भृगुओं की विशेषज्ञता थी (ब्रह्माकर्म भृगवो न रथम्), व्यापारिक गतिविधियों में उनकी संलिप्तता थी ( येना यतिभ्यो भृगवे धने हिते येन प्रस्कण्वमाविथ ।। 8.3.9) इसके कारण ही सुदास के विरुद्ध  वे लामबंद होने वाले प्रतिस्पर्धियों मे वे भी शामिल थे और उनके नाम से जुड़ा भृगुकक्ष समुद्री व्यापार का प्रमुख बंदरगाह था।  इसके अतिरिक्त उससे निकट समुद्र में डूबे एक नगर का प्रमाण मिला है, जो उसी भूगर्भीय उपद्रव का परिणाम रहा लगता है। द्वारका भी इसी उपद्रव में जलमग्न हुआ हो सकता है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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