Monday 28 September 2020

नए कृषि कानूनो पर किसान संगठनों की प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

जिन किसानों के लिए ये कानून बनाए गए हैं, उन्हें या तो इन कानूनों के बारे में जानकारी नहीं है या वे इन कानूनों को फायदे से ज्यादा नुकसान के तौर पर देख रहे हैं. इस मसले पर मैंने उनकी राय जानने की कोशिश की.

छतरपुर जिले के बरा गांव के किसान कपिल कहते हैं,
"मैं अभी 35 बीघा के लगभग, फसल चक्र और अपनी सुविधा के अनुसार सोयाबीन, मिंट, मूंगफली, गेंहू और चने की खेती करता हूं. मेरे खेत भी इन फसलों के लिहाज से ठीक हैं." 

कपिल पूछते हैं कि कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में ऐसा संभव है? वह बताते हैं 
“कोई भी कंपनी हर एक किसान के साथ अलग-अलग कॉन्ट्रेक्ट तो करेगी नहीं. और जब ऐसा नहीं होगा, तो ये उसकी मर्जी और जरूरत पर निर्भर करेगा कि वो जिस चीज की खेती कराए. तब हमें उसकी जरूरत के हिसाब से ही फसलों का उत्पादन करना पड़ेगा और जब ऐसा हो जाएगा, तब हमें बीज-खाद से लेकर फसल बेचने तक के लिए उनका मुंह ताकना पड़ेगा. वही फसलों के दाम तय करेगी. किसान से कब फसल खरीदेगा, कब भुगतान करेगा, सब कुछ उस कंपनी या व्यापारी के हाथ में होगा और तरह हम अपनी ही जमीन पर मजदूर बन जाएंगे."

किसान संगठनों की तरफ से भी इन कानून का विरोध हो रहा है. अखिल भारतीय किसान सभा के नेता अमराराम फोन पर बात करते हुए कहते हैं, 
“सरकार ने इन कानूनों को बनाकर साफ कर दिया कि किसानों का हित उसकी सूची में नहीं हैं. अगर होता तो ऐसे कानून नहीं बनाती.” 

अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने कहा, “सरकार ने कानून के जरिए पूरी कृषि का निजीकरण किया है. कृषि सुधारों और किसानों की आय बढ़ाने के नाम पर सरकार पूरी कृषि व्यवस्था को एग्रो-बिजनेस से जुड़ी बड़ी कंपनियों के हवाले करने जा रही है. ये काफी चिंताजनक है. 1991 में हुए आर्थिक सुधारों का खेती पर बहुत बुरा असर सामने आया है. नतीजे के तौर पर 30 सालों में 3.5 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. ऐसे में अब अगर ये नए कानून लागू हुए तो भारत की कृषि व्यवस्था पूरी तरह से बदल जाएगी, किसान अपनी ही जमीन में मजदूर बन जाएंगे और ये सब चंद लोगों के मुनाफे के लिए कानून बनाकर किया जा रहा है.” 

महज एक कानून बनाकर सरकार ने भारत में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को कानूनी बना दिया है. ये अमेरिका और ऑस्ट्रलिया जैसे देशों का कृषि मॉडल है, जहां के किसान हजारों एकड़ में खेती करते हैं. इसके एवज में वहां की सरकारें उनको तमाम सब्सिडी और सुविधाएं देती हैं. इसके उलट भारत में 85 प्रतिशत के लगभग किसान छोटी जोत वाले हैं, जिनको सुविधाओं के नाम पर केवल 'एमएसपी' मिलती है, वो भी इतनी कम है कि उससे उनकी फसलों की लागत तक निकलना मुश्किल होता है, मुनाफा तो दूर की बात है.

भारत में एग्रो-बिजनेस से जुड़ी कई देशी-विदेशी कंपनियां दशकों से इसकी मांग कर रही थीं, जिसे विरोधों के चलते कभी लागू नहीं किया गया. हालांकि कई राज्यों ने इसको प्रायोगिक तौर पर मंजूरी दी हुई थी. जबकि कोरोना महामारी के कारण पूरा देश बंद है, बाहर आने-जाने तक पर पाबंदी है, विरोध प्रदर्शन तो दूर की बात हैं. 

ऐसे में अध्यादेश जरिए उन कानूनों को बनाना जिनका दशकों से विरोध हो रहा है, सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है। यह आशंका तब और मुकम्मल लगने लगती है, जब अध्यादेश जारी होने के एक हफ्ते पहले रिलायंस समूह कंज्यूमर गुड्स की कैटेगरी में बिजनेस करने के लिए एक नया वेंचर "जियो मार्ट" शुरू करता है. 

मुकेश अंबानी के नेतृत्व वाले रिलांयस समूह के अंतर्गत शुरू हुए "जियो मार्ट" से पहले अडानी विल्मर, आईटीसी और रामदेव के पतंजलि सहित कई छोटे-बड़े ब्रांड मार्केट में मौजूद हैं लेकिन कभी उनको इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया. सरकार की तरफ से इस तरह थाली में रखकर किसी को भी सहायता नहीं दी गई. ये कंपनियां अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी संस्थाओं के जरिए मार्केट रेट पर अपनी जरूरत का सामान लेती थीं. लेकिन अब यह व्यवस्था बदल जाएगी.

जय किसान आंदोलन से जुड़े अविक साहा बताते हैं कि 
“ये निजी कंपनियों का दबाव है कि सरकार कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग जैसी व्यवस्था को लागू करने के लिए कानून बना रही है. नहीं तो ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो व्यवस्था (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) भारत में पहले ही फेल हो चुकी है, उसे कानून बनाकर लागू किया जाए?"

अविक आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन पर भी सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं, "आवश्यक वस्तु अधिनियम में सरकार ने जो बदलाव किए हैं वे बहुत घातक सिद्ध होंगे. बदले हुए कानून के प्रभाव में आने के साथ ही कोई भी व्यक्ति/फर्म अपनी मर्जी के मुताबिक कृषि उपज की चाहे जितनी मात्रा खरीद-बेच सकता है. कोविड-19 की महामारी के बाद जब आर्थिक हालात और खराब हैं, करोड़ों लोग बेरोजगार हुए हैं, असमानता बढ़ रही है. ऐसे समय में, जब इस कानून की ज्यादा जरूरत है, सरकार ने चंद लोगों की खातिर इसको बदल दिया है.” 

कानून में संशोधन का जिक्र करते हुए वह कहते हैं, 
“इतिहास में कई ऐसे मौके आए, जब सरकार केवल इस एक कानून के सहारे विषम परिस्थितियों से निपटी है. सरकार कह रही है कि इससे किसानों को फायदा होगा, जबकि वास्तविकता तो यह है कि इस कानून और किसानों का सीधा संबध पहले भी नहीं था, अब बिल्कुल ही खत्म हो गया. ऐसे में उनका भला फायदा कैसे होगा? ज्यादा खरीदने वाला किसानों को उनकी फसल के ज्यादा पैसे देगा क्या?”

मध्य प्रदेश के किसान नेता भगवान मीणा फोन पर हुई बातचीत के दौरान बताते हैं.
"पेप्सिको कंपनी के ब्रांड लेज के लिए आलू उगाने वाले गुजरात के किसानों का मामला अभी ज्यादा पुराना नहीं हुआ है, जब कंपनी ने आलू के प्रतिबंधित बीजों से खेती करने के कारण किसानों पर मुकदमा दायर कर उनसे एक करोड़ रुपए का मुआवजा मांगा था. उससे पहले मध्य प्रदेश के उन किसानों का मामला भी ध्यान देने योग्य है, जब आईटीसी कंपनी किसानों से अनुबंध के तहत गेहूं की खरीद करती थी, किसानों ने कंपनी पर लगातार कई साल तक उनकी फसल के कम दाम देने का आरोप लगाया. उसके बाद तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार को किसानों के बढ़ते दबाव के कारण इस पर रोक लगानी पड़ी.” 

कृषि सुधार और किसानों के हित के लिए अब तक की सबसे बड़ी मांग स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करना है. इसको लागू करने का दावा हर सरकार करती है. लेकिन डेढ़ दशक बीत जाने के बाद भी इनको लागू नहीं किया जा सका है. चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने भी इसको लागू करने का वायदा किया था, लेकिन अब तक लागू नहीं किया गया. ऐसे में हालिया कानून किसानों का कितना भला करेंगे, इस पर संशय है.

आवश्यक वस्तू अधिनियम संशोधन और कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को लीगल करने के साथ ही तीसरा और महत्वपूर्ण कानून बनाया गया है 'द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स प्रमोशन एंड फेसिलिएशन एक्ट, (एफपीटीसी2020)'. सरकार की तरफ से जारी किए गए विज्ञापनों में, तीनों कानून में से इसका ही सबसे ज्यादा प्रचार किया जा रहा है. विज्ञापनों में इसे 'एक राष्ट्र-एक बाजार' के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. सरकार की तरफ से कहा गया है कि पहले 
"किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए यहां-वहां भटकना पड़ता था. अब ऐसा नहीं होगा. किसान अब अपनी फसल देश के किसी कोने में, जहां बेहतर दाम मिलें, वहां बेच सकते हैं.”

वरिष्ठ कृषि अर्थशास्त्री देविदंर शर्मा कहते हैं कि, '
"ये वन नेशन-टू मार्केट है.' पहले किसान और व्यापारी दोनों को ही खरीद-बिक्री के लिए राज्य की मंडी समितियों में जाना पड़ता था, जहां ट्रेडर को 6-7 प्रतिशत टैक्स देना होता था. नए कानून के बाद यह बाध्यता खत्म हो गई है. कोई भी ट्रेडर टैक्स देकर खरीद क्यों करेगा? 

आगे देवेन्द्र र्मा कहते हैं, 
“जबकि सरकार का कहना है कि मंडी समितियां पहले की ही तरह काम करती रहेंगी. यह व्यापारियों पर निर्भर करेगा कि वे मंडी से माल खरीद करना चाहते हैं या फिर मंडी के बाहर. कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमाने वाला व्यापारी टैक्स देकर मंडी समितियों से ट्रेडिंग क्यों करेगा?” 

किसान संगठन आशंका जता रहे हैं कि राज्य सरकारें मंडी समितियों को ही बंद कर सकती हैं या फिर एमएसपी को खत्म कर सकती हैं. अगर ऐसा हुआ, तो किसान के लिए मुसीबत और बढ़ने वाली है.

राष्ट्रीय किसान महासंघ ने आधिकारिक रूप से पत्र जारी करते हुए कहा,  
“सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था से बाहर निकलना चाहती है. सरकार को किसानों के सामने आने वाली वास्तविक परेशानियों की जानकारी ही नहीं है.”

पत्र में आगे कहा गया है,
“85 प्रतिशत के लगभग किसान छोटी जोत वाले हैं, उनकी साल भर की पैदावार इतनी नहीं होती है कि वे हर बार नजदीकी मंडी तक जा सकें. ऐसे में यह मानना कि वे अपनी फसल बेचने के लिए किन्हीं दूसरे राज्यों में जाएंगे, किसी मजाक से कम नहीं.”

हमीरपुर जिले की राठ मंडी के लाइसेंसधारी एक व्यापारी फोन पर बात करते हुए बताते हैं, 
"एक बड़ी मंडी, जिसके अंदर सौ के आसपास गांव के लोग फसल बेचने आते हैं और जिसमें से ज्यादातर किसान हम जैसे व्यापारियों को ही फसल बेचते हैं. ऐसा करने का कारण है कि सरकार इतनी खरीद ही नहीं करती कि सबका माल बिक जाए. जो माल सरकार नहीं खरीद पाती, उसे हम लोग खरीदते हैं. जो किसान भाड़े पर साधन कर अपनी फसल बेचने आया है, वो बिना बेचे तो लौटना नहीं चाहता, क्योंकि यही उसकी आय का जरिया है और इसी के भरोसे वह साल भर की जरूरतों का सामान जुटाता है.” 

मंडी समितियों से जुड़े कर्मचारी भी इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं. राठ मंडी में काम कर रहे चंद्र प्रकाश का कहना है, 
“इन कानूनों की आड़ लेकर राज्य सरकारें हमारे अधिकार क्षेत्र को सीमित कर कर सकती हैं या फिर बंद भी कर सकती हैं. ये सरकार के तीन साल पुराने निर्णय के विपरीत है, जिसमें केंद्र सरकार ने किसानों को सुविधा बढ़ाने के लिए हर 10 किलोमीटर पर मंडियों के निर्माण को मंजूरी दी थी.”

अगर ऐसा होता है तो किसानों के साथ मंडी से जुड़े लाखों लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. एक मंडी में किसान और व्यापारी के अलावा भी बहुत से लोग काम करते हैं, वे सीधे बेरोजगार हो जाएंगे.

केंद्र सरकार के अध्यादेश जारी करने के 15 दिन के अंदर ही उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश की मंडी समितियों में संविदा पर काम कर रहे हजारों कर्मचारियों का कॉन्ट्रेक्ट 30 जून के बाद खत्म कर दिया है. उत्तर प्रदेश मंडी समिति के निदेशक जीतेंद्र प्रताप सिंह ने आउटसोर्स पदों की समाप्ति के आदेश जारी करते हुए नए कानूनों का हवाला दिया है जिसमें सब्जियों और फलों को मंडी शुल्क से मुक्त कर दिया है. इसका असर मंडियों पर पड़ा है.

कारवां मैगजीन के लिए लिखे गए अमन गुप्ता के एक लेख का अंश । 
( विजय शंकर सिंह )

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