Friday 22 March 2019

पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की कहानी - मूर्खा / विजय शंकर सिंह

अम्मा का नाम गुलाबो। मुंह देखो, तो छुहारा। आकृति धनुष की तरह। अवस्था अस्सी और पांच पचासी वर्ष। अम्मा का ख़ासा परिवार। बेटे तीन -- राम, काम और दाम, जिनके लघु नाम। पूर्ण नाम रामेश्वर, कामेश्वर और दामोदर। रामेश्वर कांग्रेसी, कामेश्वर कम्युनिस्ट तथा दामोदर हिंदू-सभाई।
मगर कहानी यह राजनीतिक दुर्भावना-प्रधान नहीं, सामाजिक भावना-प्रधान है।

घर में एक गाय को लेकर काफ़ी कलह। उस गाय को कामेश्वर या कम्युनिस्ट लड़के ने 12 साल पहले 30 रुपए में ख़रीदा था। 10 साल उसने बराबर सारे परिवार को 3 सेर रोज़ाना से लेकर 8 सेर रोज़ाना तक दूध पिलाया। उसके 6 बछड़े छोटी उम्र में ही कुल मिलाकर ढाई सौ रुपए में बेच दिए गए और 4 बछियाएं 150 में। पर अब उस गाय में कोई तत्व नहीं, ठठरी-मात्र रह गई है। बुढ़ापे से काली, कीचमयी आंखें। किसी को भी अब उससे कोई उम्मीद नहीं। सबको अब वह द्वार की कुशोभा और गंदगी फैलानेवाली मालूम पड़ती है !

केवल गुलाबो अम्मा उस गाय की पक्षपातिनी और प्रचंड रक्षक। बिना उनके प्राण निकले, क्या मजाल जो कोई गोमाता को घर के बाहर निकाल सके ! जवानी में दूध किसी ने पिया हो, पर बुढ़ापे में गाय के लिए अपना ख़ून पानी करनेवाली हैं, तो गुलाबो अम्मा। गुलाबो अम्मा अस्सी पांच पचासी वर्ष की वय में जैसी बूढ़ी, वैसी ही वह गाय पंद्रह वर्ष की अवस्था में।

'इसे बेच दें अम्मा?' कम्युनिस्ट ने पूछा।
'इसे ख़रीदेगा कौन? यह न तो अब फलेगी, न दूध देगी,' अम्मा ने बेचने की याचना को अनुत्साहित किया, पर कम्युनिस्ट अर्थ-पिशाच-युग का प्राणी !
'कसाई इसे हंसी-ख़ुशी से पच्च‌ीस-तीस रुपए में ले लेगा अम्मा!'
और, अपनी कोख से जनमे पूत के मुंह से ऐसी पातक बात सुनने के बाद अम्मा ने तीन दिन, तीन रात अन्न-जल ग्रहण नहीं किया।

कांग्रेसी बेटा रामेश्वर या राम ने एक दिन सुनाया, 'अम्मा! ज़माना महंगाई का है और इस गाय पर रुपया-सवा रुपया रोज़ ख़र्चा पड़ जाता है। इसे पिंजरापोल पठा दें, तो कोई आपत्ति है तुम्हें? वहां-यहां से अधिक सुखी रहेगी।'
'ज़माना महंगाई का है, तो मुझे भी किसी पिंजरापोल में भर्ती करा दे। दूध पिया हमारे परिवार ने, सेवा करे पिंजरा-पोल। यह भी कोई इन्साफ़ है? इस पर एक रुपया रोज़ परिवार नहीं ख़र्च सकता, तो मैं आधा पेट खाऊंगी और मेरे पेट का आधा यह खाएगी।'
और सारा घर ख़ुशामदें करते-करते हार गया, पर उस दिन के बाद गुलाबो अम्मा ने कभी दोनों जून जमकर खाया नहीं।

हिंदू-सभाई यानी छोटा लड़का दामोदर सबसे चघड़ निकला। उसने तय किया -- गुलाबो अम्मा के सो जाने पर आधी रात को गाय नगर की सीमा के बाहर हांक आने का। उसने अम्मा अनजान को तो धोखे में रक्खा, पर ऐन वक़्त पर वह गाय गोया उसके बद इरादे को जान ताड़ गई, और बंधन में हाथ लगाते ही बां-बां कर, गोया गुलाबो अम्मा को पुकारने लगी। अम्मा भी उसकी पुकार सुनते ही गाय के थान पर, 
'क्यों रे, यह क्या कर रहा है?'
'अम्मा' खीझभरे स्वर में हिंदू-सभाई लड़के ने कहा, 'इसके मारे सारे घर में गन्दगी, जिधर देखो, गोबर-ही-गोबर। सीधे से तुम इसे कभी न निकालोगी, सो मैंने सोचा, रातो-रात शहर हांक आऊं !'
'किसके भाग्य कि सारे घर में गोबर-ही-गोबर नज़र आए -- अभागे! गोबर में लक्ष्मी का निवास है। मैं आज अन्तिम बार कहे देती हूं, गाय घर से बाहर निकली और दाना-पानी छोड़ मैंने प्राण देने का निश्चय किया। मेरी ज़िन्दगी में ऐसी बेइन्साफ़ी नहीं हो सकती कि जिसने हमारे लिए सारी ज़िन्दगी ख़ून का पानी बनाया, नहीं, दूध; उस मूक पशु को बुढ़ापे में घर से बाहर निकाल दिया जाए। यह भी परिवार का प्राणी है, काल-गति से वैसे ही कमज़ोर बनी, जैसे कि मैं !'

गुलाबो अम्मा के आर्य इन्साफ़ के रौब से थर्राकर दामोदर चोरों की तरह चुपके जब टरक गया, तब अम्मा ने गाय की तरफ़ करुण दृष्टि से देखा और गाय ने अम्मा की तरफ़ कृतज्ञ दृष्टि से। वह पशु-भावनाओं से भरकर कांपी, या सहज ही उसकी चमड़ी में कंपन हुआ, पर अम्मा ने समझा कि उसको ठंड लग रही है। रातें भी तो पूस-माह की हैं।
'अरे! इसका मुझे ध्यान ही न रहा, मैं भी कैसी मूर्खा !' वह झपटी हुई अपने सोनेवाली कोठरी में गई। उसके ओढ़ने के दो कंबल -- एक साबुत, एक पुराना झिल्लड़।
पहले अम्मा ने झिल्लड़ कंबल उठाया, फिर कुछ सोचकर रुकीं, 'जिसने अपने बच्चों का पेट काटकर मेरे बच्चों को दूध पिलाया, उसे झिल्लड़ नहीं, अच्छा कंबल ही ओढ़ना सनातन धर्म है, कम-से-कम जब तक मैं ज़िंदा हूं। मेरे बाद चाहे जो भी हो.'

गाय को उत्तम कंबल ओढ़ा, स्वयं झिल्लड़ ओढ़े सोने की कोठरी की ओर लौटती हुई पीछे मुड़कर गुलाबो अम्मा ने यह ताड़ने की चेष्टा की कि अब तो वह नहीं कांप रही है। गाय ने भी विचित्र और मूक अपनत्व से अम्मा की तरफ देखा।
अम्मा की आंखों में करुणा थी गंगा की तरह; गऊ की आंखों में कृतज्ञता थी मुक्ति की तरह।
***

पांडेय बेचन शर्मा "उग्र"  का जन्म उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद के अंतर्गत चुनार नामक कसबे में 1900 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम वैद्यनाथ पांडेय था। ये अत्यंत अभावग्रस्त परिवार में उत्पन्न हुए थे। अत: पाठशालीय शिक्षा भी इन्हें व्यवस्थित रूप से नहीं मिल सकी। अभाव के कारण इन्हें बचपन में राम-लीला में काम करना पड़ा था। बाद में काशी के सेंट्रल हिंदू स्कूल से आठवीं कक्षा तक शिक्षा पाई, फिर पढाई का क्रम टूट गया। साहित्य के प्रति इनका प्रगाढ़ प्रेम लाला भगवानदीन के सामीप्य में आने पर हुआ। इन्होंने साहित्य के विभिन्न अंगों का गंभीर अध्ययन किया। ये बचपन से ही काव्यरचना करने लगे थे। अपनी किशोर वय में ही इन्होंने प्रियप्रवास की शैली में "ध्रुवचरित्" नामक प्रबंध काव्य की रचना कर डाली थी।

मौलिक साहित्य की सर्जना में ये आजीवन लगे रहे। इन्होंने काव्य, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि क्षेत्रों में समान अधिकार के साथ श्रेष्ठ कृतियाँ प्रस्तुत की। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उग्र जी ने सच्चे पत्रकार का आदर्श प्रस्तुत किया। वे असत्य से कभी नहीं डरे, उन्होंने सत्य का सदैव स्वागत किया, भले ही इसके लिए उनहें कष्ट झेलने पड़े। पहले काशी के दैनिक "आज" में "ऊटपटाँग" शीर्षक से व्यंग्यात्मक लेख लिखा करते थे और अपना नाम रखा था "अष्टावक्र"। फिर "भूत" नामक हास्य-व्यंग्य-प्रधान पत्र निकाला। गोरखपुर से प्रकाशित होनेवाले "स्वदेश" पत्र के "दशहरा" अंक का संपादन इन्होंने ही किया था। तदनंतर कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाले "मतवाला" पत्र में काम किया। "मतवाला" ने ही इन्हें पूर्ण रूप से साहित्यिक बना दिया। फरवरी, सन् 1938 ई. में इन्होंने काशी से "उग्र" नामक साप्ताहिक पत्र निकाला। इसके कुल सात अंक ही प्रकाशित हुए, फिर यह बंद हो गया। इंदौर से निकलनेवाली "वीणा" नामक मासिक पत्रिका में इन्होंने सहायक संपादक का काम भी कुछ दिनों तक किया था। वहाँ से हटने पर "विक्रम" नामक मासिक पत्र इन्होंने पं॰ सूर्यनारायण व्यास के सहयोग से निकाला। पाँच अंक प्रकाशित होने के बाद ये उससे भी अलग हो गए। इसी प्रकार इन्होंने "संग्राम", "हिंदी पंच" आदि कई अन्य पत्रों का संपादन किया। किंतु अपने उग्र स्वभाव के कारण कहीं भी अधिक दिनों तक ये टिक न सके। इसमें संदेह नहीं, उग्र जी सफल पत्रकार थे। ये सामाजिक विषमताओं से आजीवन संघर्ष करते रहे। ये विशुद्ध साहित्यजीवी थे और साहित्य के लिए ही जीते रहे। सन. 1967 में दिल्ली में इनका देहावसान हो गया।

© विजय शंकर सिंह

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