अक्सर पुलिस, जिसे आम तौर पर थाना पुलिस कहते हैं, पर यह आरोप लगता रहता है कि, वे जानबूझकर कर, सुबूतों से छेड़छाड़ कर या बिना सुबूतों के भी कुछ मामलों में फर्जी केस बना देते हैं और ऐसा वे किसी दबाव या लोभ में करते हैं। कुछ हद तक जांच के बाद, इस तरह के आरोप सही भी निकलते हैं और दोषी पुलिस कर्मियों पर कार्यवाही भी होती है। लेकिन जब बात ईडी प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, एनआईए, आदि विशेषज्ञ जांच एजेंसियों की होती है तो, पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि, इन एजेंसियों द्वारा की जा रही जांच में कोई फर्जीवाड़ा नहीं होगा। पर ईडी का ट्रैक रिकॉर्ड इस मामले में, बेहद निराशाजनक रहा है। ईडी, पिछले दस साल में, राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और शत्रुता से दुष्प्रेरित होकर, कार्य करने का एक उपकरण बन गई है। अंत में सुप्रीम कोर्ट को भरी अदालत में ईडी को चेतावनी देनी पड़ी कि, किसी के प्रति बदले की कार्यवाही के रुप में, कोई जांच नहीं की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने मनीष सिसौदिया की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए ईडी से कई सवाल पूछे जैसे,
० मनी ट्रेल, यानी पैसे किस श्रृंखला में दिया गया है यह बताए।
० आपके मामले के अनुसार, मनीष सिसौदिया के पास कोई पैसा नहीं आया... तो शराब समूह से पैसा कैसे आया?
० यह केवल अप्रूवर के बयानों के आधार पर है कि आप कह रहे हैं कि रिश्वत दी गई थी।
० क्या आपके पास यह दिखाने के लिए कोई डेटा है कि पॉलिसी कॉपी की गई और साझा की गई? यदि प्रिंट आउट लिया गया था, तो डेटा उसे दिखाएगा। इस आशय का कोई डेटा नहीं है.
० 15 तारीख को दस्तावेज़ तैयार किया गया था और तब बदला नहीं गया था। 15 तारीख को शराब ग्रुप का कोई भी व्यक्ति सिसौदिया से नहीं मिला।
कहने का आशय यह कि, फिलहाल सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई से तो लगता है कि, ईडी का पूरा केस लचर और गढ़े गए सुबूतों पर टिका हुआ है। अदालती कार्यवाही का पूरा विवरण दिलचस्प और सरकार की जांच एजेंसी की साख पर बेहद गंभीर सवाल उठाता हुआ दिख रहा है।
दिल्ली शराब नीति घोटाले पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा दर्ज मामलों में आम आदमी पार्टी (आप) नेता और दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की जमानत आवेदन की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। आज लगभग, साढ़े चार घंटे की लगातार सुनवाई के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने जांच एजेंसियों के सामने, सवालों की झड़ी लगा दी। सुनवाई, जस्टिस संजीव खन्ना और एसवीएन भट्टी की पीठ कर रही है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने, मनीष सिसोदिया द्वारा दायर दो याचिकाओं पर विचार कर रही है, जिसमें दिल्ली हाई कोर्ट के उन फैसलों को चुनौती दी गई थी, जिसमें, उन्हें सीबीआई और ईडी द्वारा की जा रही जांच के संबंध में, जमानत देने से इनकार कर दिया गया है। ईडी और सीबीआई की ओर से पेश हुए, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल, एएसजी, एसवी राजू की ओर इंगित और विस्तार से पूछताछ की भूमिका तैयार करते हुए, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने कहा कि, "आम तौर पर, किसी जमानत याचिका के मामले में, हम इतना समय नहीं लेते हैं।" लेकिन अदालत ने समय भी लिया और गंभीरता से पूछताछ करते हुए, जज साहबान मामले की तह में भी गए।
० क्या आबकारी नीति को चुनौती दी गई है ?
जांच एजेंसियों द्वारा प्रस्तुत, तथ्यों की प्रकृति के बारे में, एएसजी से स्पष्टीकरण मांगते हुए, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने पूछा कि, "क्या 2021-22 के लिए दिल्ली सरकार की एक्साइज पॉलिसी, को कोई चुनौती देने का मामला विचाराधीन है।"
इस पर एएसजी एसवी राजू ने कहा कि, "एजेंसियां नीतिगत फैसले को चुनौती नहीं दे रही हैं।"
यानी, दिल्ली सरकार की आबकारी नीति को कोई चुनौती नहीं दी गई है। इस पर, जस्टिस खन्ना ने फिर पूछा, "लेकिन आप कहते हैं कि नीतिगत निर्णय व्यक्तिगत लाभ के लिए प्रेरित था। तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि आप नीतिगत निर्णय को चुनौती दे रहे हैं?"
अदालत ने ऐसा इसलिए पूछा कि, एजेंसी ने नीति पर सवाल भी जांच के दौरान उठाए थे। नीति को चुनौती देना एक अलग मसला है, आबकारी मामले में भ्रष्ट लेनदेन दूसरा और धन की मनी लांड्रिंग का आरोप एक अन्य मामला है जो पीएमएलए का अपराध है। इसीलिए अदालत ने नीति को चुनौती के मामले पर सरकार से स्पष्टीकरण चाहे।
एएसजी ने तब नकारात्मक जवाब दिया और दोहराया कि "एजेंसियों द्वारा प्रस्तुत तथ्य, यह था कि, विचाराधीन नीति को, इस तरीके से तैयार किया गया था, जिससे कुछ थोक विक्रेताओं को फायदा हुआ और इसमें मनीष सिसोदिया की भी भूमिका थी।"
उन्होंने कहा कि, "यह नीति, पुरानी एक्साइज नीति को बदलने के लिए एक "मुखौटे" के रूप में तैयार की गई थी, जिसे दिल्ली सरकार (यहां सरकार का अर्थ उपराज्यपाल है) का समर्थन नहीं था। इसे बदलने के लिए, रवि धवन विशेषज्ञ समिति से रिपोर्ट मांगी गई थी। हालाँकि, जब रिपोर्ट प्रतिकूल आई, तब, मनीष सिसौदिया इससे नाराज़ हो गए, तो उन्होंने उक्त रिपोर्ट के खिलाफ (जनता से) आपत्तियाँ और सुझाव मांगे।"
एएसजी ने आगे कहा, "पुरानी नीति वह नहीं थी, जो वे (मनीष सिसोदिया) चाहते थे। नीति को बदलने के लिए उन्हें धवन समिति की रिपोर्ट मिली थी, लेकिन यह रिपोर्ट वैसी नहीं थी जैसा वे चाहते थे। इसलिए फिर उन्होंने (मनीष सिसोदिया) आपत्तियां और सुझाव आमंत्रित किए। उन आपत्तियों में हम याचिकाकर्ता (मनीष सिसोदिया) की (संदिग्ध) भूमिका देखते हैं।"
० अब सवाल उठता है, किसी नीति के बारे में, क्या लोगों से राय मांगना या समर्थन करने के लिए कहना गलत है?
एएसजी राजू ने अपनी दलीलों को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, "नई आबकारी नीति तैयार करने के लिए हितधारकों की सार्वजनिक राय को छुपाया गया और उसमें हेरफेरी की गई।"
इस संदर्भ में, उन्होंने कहा कि "विभिन्न पक्षों को रवि धवन रिपोर्ट के खिलाफ आपत्तियां उठाने वाले ईमेल का मसौदा तैयार करने के लिए कहा गया था।"
उन्होंने कहा कि, "ये ईमेल एक हस्तलिखित नोट, निर्धारित ईमेल पते पर भेजे गए उक्त पंक्तियों पर कई ईमेल प्राप्त करने के निर्देश के साथ" से कॉपी किए गए थे, जिसे मनीष सिसोदिया ने जाकिर खान को सौंपा था। ये ईमेल खुदरा लाइसेंस के आवंटन जैसे मुद्दों पर थे।"
एएसजी के अनुसार, "ज़ोन की नीलामी के माध्यम से, उत्पाद शुल्क और वैट में कमी, साथ ही लाइसेंस शुल्क में वृद्धि, और शराब की दुकानों की संख्या में वृद्धि को अंततः नई आबकारी नीति, विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों से पूरी तरह से अलग होने के बावजूद, जनता की राय को, नीति में हेरफेर करने के लिए भेजा गया था।"
उन्होंने प्रस्तुत किया कि "अंततः, इन सभी, साक्ष्यों को आपस में लिंक किया गया था।"
इस पर, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने कहा,
"मिस्टर राजू, इस पर विश्वास करना बहुत मुश्किल है... एक नीति बनाई गई है। कुछ राजनीतिक नेता सोचते हैं कि, यह नीति इस तरह होनी चाहिए। वे बयान देते हैं। वे फीडबैक लेते हैं। वे लोगों से नीति का समर्थन करने के लिए कह रहे हैं - क्या यह गलत है?"
एएसजी राजू ने दोहराया कि, "वास्तविक सुझाव कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन समान शब्दों वाले ईमेल ने स्थापित किया कि यह "कॉपी-पेस्ट का काम" था।"
दरअसल, एक ईमेल ड्राफ्ट करके, नीति के समर्थन में रायशुमारी के लिए कुछ ईमेल पते पर भेजे गए थे। ईडी का कहना है यह रायशुमारी नहीं हुई, बल्कि एक तयशुदा राय को, मांगना हुआ। अदालत ईडी के इस तर्क से सहमत नहीं हुई।
एएसजी ने कहा कि, "मनीष सिसोदिया कुछ पार्टियों के लिए उपयुक्त तरीके से आबकारी नीति तैयार करने के लिए, पूर्वाग्रह युक्त विचार के साथ काम कर रहे थे।"
इस तर्क का आधार, तयशुदा ईमेल का ड्राफ्ट था, जिसका उल्लेख एएसजी अदालत में कर चुके हैं।
इस संदर्भ में आगे एएसजी ने कहा कि, "मनीष सिसौदिया ने पूर्व आबकारी आयुक्त राहुल सिंह से कैबिनेट नोट का मसौदा तैयार करने को कहा था। हालाँकि, चूंकि उक्त नोट उनके विचार के अनुरूप नहीं था कि, नीति कैसे तैयार की जानी है, एक नया नोट तैयार किया गया और मंत्रियों की कैबिनेट के सामने रखा गया और पुराने नोट को नष्ट कर दिया गया।"
इस दलील पर न्यायमूर्ति खन्ना ने टिप्पणी की, "श्री राजू, कभी-कभी नौकरशाह कुछ (ड्राफ्ट) बनाते हैं। कभी-कभी राजनीतिक एक्जीक्यूटिव (मंत्री आदि) कह सकते हैं कि कृपया इसे इस तरह से तैयार करें। यहां, राजनीतिक एक्जीक्यूटिव ने एक नोट भेजा है जिसमें कहा गया है कि यह (सचिव द्वारा तैयार ड्राफ्ट) वैसा नहीं है जैसा हम चाहते थे..."
अदालत का दृष्टिकोण यह था कि, सचिव द्वारा बनाए गए ड्राफ्ट में मंत्रियों द्वारा कोई भी संशोधन किया जा सकता है और यह कोई असामान्य स्थिति नहीं है।
एएसजी राजू ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि, "यह तथ्य कि, नोट को नष्ट कर दिया गया था, यह स्पष्ट रूप से स्थापित है कि "इसमें कुछ ऐसा था जिसे वे देखना नहीं चाहते थे।"
हुआ यह था कि, सचिव द्वारा तैयार ड्राफ्ट को अस्वीकार करके मंत्री द्वारा बदल दिया गया था, और सचिव द्वारा तैयार किए गया ड्राफ्ट बदल दिया गया था। इस पर एएसजी अपनी आपत्ति दर्ज करा रहे थे।
० क्या यह बयान कि विजय नायर, मनीष सिसौदिया के लिए काम कर रहे थे, महज़ एक राय नहीं है?
सुनवाई के दौरान, एएसजी ने कहा कि, "एक अप्रुवर (सरकारी, वायदा माफी गवाह या अनुमोदक) के बयान के अनुसार, विजय नायर, मनीष सिसोदिया की तरफ से काम कर रहे थे।"
इस पर जस्टिस खन्ना ने कहा, "यह किसका बयान है? यह उनकी राय है। जिरह में दो प्रश्न होंगे और यह तर्क उड़ जाएगा। यह महज एक राय है, वह भी किसी विशेषज्ञ की नहीं। विशेषज्ञ की राय अलग है। यह एक निष्कर्ष निकाला गया है। अतः, ईडी राय मायने नहीं रखती। अदालत की राय मायने रखती है।"
एएसजी राजू ने तर्क दिया कि, "विजय नायर को सीएम के बंगले के बगल में एक बंगला दिया गया था और वह सीएम के कार्यालय से अपना काम करते थे। वह कोई ऐसा व्यक्ति है, जो आम आदमी पार्टी से जुड़ा हुआ है। इसलिए यदि कोई कहता है कि वह डिप्टी सीएम से जुड़ा हुआ है...देखें कि वह कैसे काम कर रहा है, तो इस पर विश्वास करना ही होगा। आबकारी नीति जारी होने से पहले ही, उनके पास जीओएम GoM नीति है। इससे पता चलता है कि नीति बनाने में उसकी एक महत्वपूर्ण थी।"
० बिना पैसों के लेनदेन के, विचार-विमर्श के बाद, नीति में किया गया परिवर्तन अवैध नहीं है।
सुनवाई की कार्यवाही के दौरान, न्यायमूर्ति खन्ना ने यह भी कहा कि, "दबाव समूह" और "लॉबिंग" हमेशा मौजूद रहेंगे और कोई भी सरकार इसके बिना काम नहीं कर सकती।"
जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा, "हम समझते हैं कि नीति में बदलाव हुआ है। हर कोई अपने व्यवसाय के लिए अच्छी नीतियों का समर्थन करेगा। दबाव समूह हमेशा वहां रहते हैं। नीति में बदलाव भले ही गलत हो, बिना पैसे के लेनदेन के विचार के, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह पैसे के लेनदेन की भूमिका ही है, जो इसे अपराध बनाती है। एक हद तक यह कहा जा सकता है कि कोई दबाव समूह नहीं हो सकता, तो, कोई सरकार इसके बिना चल नहीं सकती है। कोई न कोई लॉबिंग हमेशा रहेगी। बेशक हम यह नहीं कह रहे हैं कि, रिश्वत ली जा सकती है।'
अदालत ने अपना ध्यान धन के लेनदेन के मुद्दे पर केंद्रित रखा। मनीष सिसोदिया के हस्तक्षेप से, नीति तो बदली गई। पर क्या इस नीति बदलने के पीछे पैसे की भूमिका थी? अदालत यह जानना चाहती थी। लेकिन पैसे की भूमिका नहीं मिली और न ही ऐसा ही कुछ प्रमाणित कर सकी।
० क्या मंत्रिपरिषद को दिया गया दस्तावेज़ वही था जो सिसौदिया के कंप्यूटर पर मिला था?
इसके बाद चर्चा 15 मार्च, 2021 के ड्राफ्ट नोट पर शुरू हुई। एएसजी के अनुसार, "मनीष सिसोदिया के कंप्यूटर से मिले ड्राफ्ट नोट में थोक विक्रेताओं के लिए लाभ मार्जिन 5% तय किया गया था। हालाँकि, सिसोदिया द्वारा दिए गए GoM के अंतिम मसौदे में 12% का बढ़ा हुआ मार्जिन था।"
इस संबंध में न्यायमूर्ति खन्ना ने टिप्पणी की, "यह एक स्पष्ट तथ्यात्मक अशुद्धि है। दस्तावेज़ 15 तारीख को 11.27 बजे तैयार किया गया है। इसे बदला नहीं गया है। शराब व्यापारियों के समूह की तरफ से 15 तारीख तक कोई भी मनीष सिसौदिया से नहीं मिला है। इसलिए उस संबंध में आपका तर्क गलत है। यह तथ्यात्मक रूप से गलत है। कृपया जांच एजेंसी से पूछें कि, क्या मंत्रिपरिषद को दिया गया दस्तावेज 15 तारीख को कंप्यूटर में मिले दस्तावेज जैसा ही था या अलग?"
० रिश्वत, किकबैक कैसे दी गई?
इसके बाद न्यायमूर्ति खन्ना ने सवाल उठाया कि, "किक बैक कैसे दिया गया। जांच एजेंसियों ने आरोप लगाया था कि सिसोदिया ने 100 करोड़ रुपये की रिश्वत के बदले दक्षिण के कुछ नेताओं को शराब के लाइसेंस दिए।"
जस्टिस संजीव खन्ना ने पूछा, "आप कैसे कहते हैं कि किक बैक दी गई थी? यह पूरी तरह से, अप्रूवर के बयानों के आधार पर ही कहा जा रहा है।"
एएसजी राजू ने जवाब देते हुए कहा कि, "इंडोस्पिरिट थोक में नहीं मिल रहा था। इंडोस्पिरिट आदि के साझेदारों के खिलाफ कुछ शिकायतें थीं, इसलिए वे थोक में इसे प्राप्त करने के पात्र नहीं थे। मनीष सिसौदिया ने तब, हस्तक्षेप किया और कहा कि, उन सभी शिकायतों को तुरंत दूर किया जाए। एक महादेव शराब थोक विक्रेता हैं। उन्हे (सौदे से) बाहर निकलने के लिए दबाव डाला गया...उन्हें बिना किसी कारण बताओ नोटिस के बंद कर दिया गया। जैसे ही उन्होंने लाइसेंस छोड़ा, उन सभी चीजों को मंजूरी दे दी गई।''
० अगर सिसौदिया के पास कोई पैसा नहीं आया तो शराब समूह ने पैसा कैसे दिया?
न्यायमूर्ति खन्ना द्वारा एएसजी से अगला प्रश्न था, "आपके के केस के अनुसार मनीष सिसौदिया के पास कोई पैसा नहीं आया है... तो शराब समूह से पैसा कैसे आया? आपने दो आंकड़े लिए हैं 100 करोड़ और 30 करोड़। उन्हें (मनीष सिसोदिया को) इस धनराशि भुगतान किसने किया? ऐसे कई लोग हो सकते हैं जो पैसे का भुगतान कर रहे हों, जरूरी नहीं कि, पैसा शराब से जुड़ा हो।"
जस्टिस खन्ना ने आगे जोड़ा, "सबूत कहां है? दिनेश अरोड़ा (एक अप्रूवर) ने स्वयं पैसा लिया है। (मनीष सिसोदिया के खिलाफ) सबूत कहां है? क्या दिनेश अरोड़ा के बयान के अलावा कोई अन्य सबूत आप के पास है?"
तब एएसजी ने बताया कि, सभी गतिविधियां गुप्त रूप से की गईं, लेकिन पीठ आश्वस्त नहीं दिखी। जस्टिस खन्ना ने आगे कहा, "आपको सुबूतों की एक कड़ी स्थापित करनी होगी। रिश्वत का पैसा, शराब लॉबी से व्यक्ति तक आना चाहिए। हम आपसे सहमत हैं कि, ऐसी कड़ी स्थापित करना कठिन कार्य है, क्योंकि सब कुछ गुप्त रूप से किया जाता है। लेकिन यही तो आपकी इन्वेस्टिगेटिव क्षमता की परीक्षा है..."
० सिसौदिया को पीएमएलए के तहत कैसे लाया जाएगा?
पीएमएलए अधिनियम के तहत आरोपों के संबंध में, न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा, "मनीष सिसौदिया इस सब में शामिल नहीं हैं। विजय नायर इसमें शामिल हैं, लेकिन मनीष सिसौदिया इस मामले में नहीं आते हैं। आप उन्हें मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत कैसे लाएंगे? पैसा उनके पास नहीं जा रहा है। अगर यह एक कंपनी है जिसके साथ वह भी शामिल है, तो हमारे पास परोक्ष दायित्व है। अन्यथा अभियोजन लड़खड़ाता है। मनी लॉन्ड्रिंग पूरी तरह से एक अलग अपराध है... हमें यह साबित करना होगा कि, वह उस संपत्ति के कब्जे में है। आपको आपराधिक धारा में अंकित सटीक शब्दों पर जाना होगा और तब आप के ऊपर है कि, कैसे उन्हें, पीएमएलए का आरोपी बनाते हैं।"
पीठ ने कहा कि "पीएमएलए अपराध की आय से जुड़ी प्रक्रिया या गतिविधि से निपटता है न कि "पीढ़ी" से।"
जस्टिस खन्ना ने आगे कहा, "उन्हें (मनीष सिसोदिया को) पैसा नहीं मिला है, किसी और को मिला है। पैसा, उसके द्वारा नहीं लिया गया है, यह किसी और द्वारा लिया गया है। और, उपयोग किसी और द्वारा किया गया है। प्रोजेक्टिंग किसी और के द्वारा है...पीढ़ी इसका हिस्सा नहीं है। मुझे नहीं पता। इसलिए मैंने कह रहा हूं, संभवतः आप इसे किसी तरह से जोड़जाड़ कर केस में ला सकते हैं। उकसाना एक अलग बात है, परोक्ष दायित्व अलग है और मुख्य अपराधी कोई अलग हो सकता है।"
जब एएसजी राजू ने प्रस्तुत किया कि "अपराध से आय पैदा करने में मनीष सिसोदिया की महत्वपूर्ण भूमिका थी, तो न्यायमूर्ति खन्ना ने दोहराया कि "पीएमएलए की धारा 3 के तहत अपराध से आय पैदा करना स्वयं में कोई अपराध नहीं है।"
एएसजी ने अपनी बात पर जोर दिया और कहा- "वह एक ऐसी प्रक्रिया या गतिविधि में शामिल है जो अपराध की आय से जुड़ी है।"
तब, न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा, "जब आप रिश्वत देते हैं, तो आप अपराध की आय से जुड़ी गतिविधि में शामिल होते हैं। मान लीजिए, अंततः कोई पैसा नहीं दिया जाता है। क्या पीएमएलए कारगर होगा? पीएमएलए में जो ट्रिगर होता है वह, अपराध की आय है। अपराध में भुगतान या भुगतान किया जाता है। आय के बाद पीएमएलए शुरू हो जाएगा। आपको संबंधित व्यक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपराधों की आय से जोड़ना होगा। उकसाना, एक विंदु हो सकता है। लेकिन एक प्रमुख अपराधी के रूप में यह एक अलग स्थिति होगी।"
अब इस मामले की सुनवाई 12 अक्टूबर 2023 को होगी.
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
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