Tuesday, 31 October 2023

इंदिरा गांधी के उतार चढ़ाव भरे राजनीतिक जीवन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है / विजय शंकर सिंह

आज ही के दिन, साल 1984 में, पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की दिल्ली में, उनकी निर्मम हत्या कर दी गई थी। इंदिरा, जितनी सराही जाने वाली नेता थीं, उतनी ही उनकी आलोचना भी होती है। कांग्रेस सिंडिकेट ने, गूंगी गुड़िया को, कठपुतली की तरह, अपने इशारे पर काम करने के लिये, 1967 में प्रधानमंत्री मनोनीत कराया था। पर 1969 तक आते आते यह गूंगी गुड़िया इतनी मुखर हो गयी कि कांग्रेस के पुराने महारथी अपने लंबे अनुभव और अपनी सांगठनिक क्षमता की थाती लिए दिए ढह गये। 

कांग्रेस में एक नए स्वरूप का जन्म हुआ। तब हेमवती नंदन बहुगुणा ने कहा था, इंदिरा गांधी आयी हैं, नयी रोशनी लायीं है। यह नयी रोशनी, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के रूप में। यह कांग्रेस के अर्थनीति में बदलाव के काल के रूप में देखा गया। नयी पार्टी, पहले तो इंदिरा कांग्रेस या कांग्रेस आई,  कहलाई पर धीरे धीरे वह लोकप्रिय होती गयी और  पुरानी कांग्रेस संगठन कांग्रेस के नाम से चलते चलते 1977 में जनता पार्टी में विलीन होकर फिर  समाप्त हो गयी और इंदिरा कांग्रेस ही मूल कांग्रेस के रूप में स्थापित हो गयी।

1971 में उनके नेतृत्व की वास्तविक पहचान हुयी। किसी के भी नेतृत्व की परख, संकटकाल में ही होती है। जब सब कुछ ठीक चल रहा होता है तो लोगों का दिमाग नेतृत्व के गुण अवगुण पर कम ही जाता है। पर संकट काल मे नेतृत्व उस संकट से कैसे देश या संस्था को निकालता है इसकी परख संकट में ही होती है। 1971 में पाकिस्तान का भारत पर हमला, अमेरिका का पाकिस्तान को हर प्रकार का समर्थन, यह इंदिरा गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती बन कर आया। 

पर वे सफल रहीं और बांग्लादेश का निर्माण, पाकिस्तान की करारी हार, अमेरिका को जबरदस्त जवाब दे कर उन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी धाक जमा ली और वे देश की निर्विवाद रूप से समर्थ नेता बनीं। कूटनीति के क्षेत्र में भी रूस से बीस साला सैन्य मित्रता करके उन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ा। 

पर इतनी सारी उपलब्धियां, बहादुरी के किस्से, सब 1975 आते आते भुला दिए गए, जब 26 जून को इमरजेंसी लगी तो । जनता भूलती भी बहुत जल्दी है और भुलाती भी जल्दी है। यह इंदिरा का अधिनायकवादी रूप था। प्रेस पर सेंसर लगा। पूरा विपक्ष जेल में डाल दिया गया। कारण बस एक ही था वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपने चुनाव की याचिका हार चुकी थी।  देश मे बदलाव हेतु सम्पूर्ण क्रांति का आंदोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहा था। वे चाटुकारों से घिर गई थी। इंदिरा इंडिया हैं और इंडिया इंदिरा कही जाने लगी थी। 

इतनी सराही गयी नेता को भी जनता ने बुरी तरह नकार् दिया और वे 1977 में विपक्ष में आ गई। वे खुद अपना चुनाव हार गयीं। 1977 के चुनाव में यूपी बिहार में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। जनता की नब्ज नेताओ को पहचाननी चाहिये। राजनीति में न कोई अपरिहार्य होता है और न ही विकल्पहीनता जैसी कोई चीज होती है। शून्य यहां नहीं होता है। कोई न कोई उभर कर आ ही जाता है। इंदिरा 1977 से 1980 तक विपक्ष में थीं। 

1980 में फिर वे लौटीं। 1984 में उनकी हत्या कर दी गयं। उनका इतिहास बेहद उतार चढ़ाव भरा रहा। वे जिद्दी, तानाशाही के इंस्टिक्ट से संक्रमित, लग सकती हैं और वे थीं भी पर देश के बेहद कठिन क्षणों में उन्होंने अपने नेतृत्व के शानदार पक्ष का प्रदर्शन किया। जब वे सर्वेसर्वा थी। भारत की राजनीति में विपक्ष में प्रतिभावान और दिग्गज के नेताओं के होते हुए भी सब पर भारी रहीं तो बीबीसी के पत्रकार और उनके स्वर्ण मंदिर कांड पर एक चर्चित पुस्तक लिखने वाले मार्क टुली ने मज़ाक़ मज़ाक़ में ही लेकिन सच बात कह दी थी कि,
 " पूरे कैबिनेट में वे अकेली मर्द थी। "
इतिहास निर्मम होता है। वह किसी को नहीं छोड़ता। सबका मूल्यांकन करता है। 

इंदिरा के जीवन, राजनीति में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के अध्ययन से हम यह सीख सकते हैं राजनीति में सफल से सफल व्यक्ति के पतन के पीछे सबसे बड़ा कारण चाटुकारों की मंडली होती हैं। साथी जब सहकर्मी या कॉमरेड न रह कर दरबारी हो जाते हैं तो यह अतिशयोक्तिवादी चाटुकार मंडली अंततः नेता के पतन का कारण बनती हैं। ऐसे तत्व हर वक़्त यह कोशिश करते हैं कि नेता बस उन्ही की नज़रों से देखें और उन्ही के कानों से सुने। वे प्रभामण्डल का ऐसा ऐन्द्रजालिक प्रकाश पुंज रचते हैं कि उस चुंधियाये माहौल में सिवाय इन चाटुकारों के कुछ दिखता ही नहीं है। 

राजनीति में जब नेता खुद को अपरिहार्य और विकल्पहीन समझ बैठता है तो उसका पतन प्रारंभ हो जाता है। 1975 में ही इंदिरा के पतन की स्क्रिप्ट तैयार होना शुरू हो गयी थी। राजनेता उनके इस अधिनायकवादी  काल के परिणाम से सबक ले सकते हैं। 

आज इंदिरा गांधी की शहादत दिवस पर, उनका विनम्र स्मरण और श्रद्धांजलि….

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

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